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Friday, 20 December, 2024
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जातीय सम्मेलन: हाशिए पर पड़ी जातियों की गगनचुंबी अपेक्षाएं

जातीय सम्मेलनों में प्रायः ऐसे नेता होते हैं जो चुनाव लड़ने के लिए टिकटों के इंतज़ाम में लगे होते हैं और भारी भीड़ जमा कर अपनी ताकत राजनीतिक पार्टियों को दिखाते हैं.

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पिछले छह-सात महीनों से बिहार की राजधानी पटना से लेकर सभी शहरों, कस्बों और गांवों के सार्वजिनक स्थान बड़े-बड़े चमचमाते फ्लैक्स बोर्ड, पोस्टर और जातीय रैलियों के होर्डिंग्स से पटे पड़े हैं. इन रैलियों में सभी बड़े दलों के सर्वोच्च नेताओं का साथ इन सम्मेलनों को मिलता है. ऑटो रिक्शा से लेकर बड़ी-बड़ी गाड़ियों और शहर के चौराहों पर चमचमाते फ्लैक्स, पोस्टर, बोर्ड और होर्डिंग इन जातियों के इतिहास और भूगोल को समेटे हुए है जिसमें सभी जातियां किसी न किसी भगवान अथवा पौराणिक और मध्यकालीन राजा से सम्बद्ध हैं, जो उन्हें उनकी जाति का इतिहास और गौरव बताते हैं.

नेता मंच पर चढ़ते ही अपनी जाति के प्राचीनतम इतिहास, मध्यकालीन साख और वर्तमान में वोटों का गणित समझाने लगते हैं कि कैसे उनके साथ धोखा हुआ है या कैसे उन्हें उनके वोट अनुपात के हिसाब से सत्ता में हिस्सेदारी और न्याय नहीं मिल सका है. जिसके कारण उनका समाज और युवा अभी तक प्रगति नहीं कर सके हैं.

अति पिछड़ी जाति में पहले ही शामिल तेली जाति के लोगों ने पटना में 2 दिसंबर को बिहार तैलिक साहू समाज ने ‘तेली हुंकार रैली’ का आयोजन किया, इसके बिहार प्रभारी मंजीत आनन्द साहू, जो बिहार तैलिक साहू सभा के प्रतिनिधि और भारतीय राष्ट्रीय युवा कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं, कहते हैं कि ‘हमारी जनसंख्या बिहार में लगभग 7 प्रतिशत हैं और हमारे समाज की मांग इसी अनुपात में विधानसभा और लोकसभा सीटों के लिए है’.


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सवर्ण जातियां भी प्रायः जातीय सम्मलेन करती रहती हैं जिसमे मुख्य मुद्दा सवर्ण एकजुटता को बनाये रखना तथा आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करना रहा है जिसे अब केंद्र सरकार ने पूरा भी कर दिया है. कुछ महीने पहले हुए तुरहा जाति के प्रांतीय सम्मलेन में इस जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा देने तथा साथ ही जाति के बच्चों की अनिवार्य शिक्षा, उनको आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से मज़बूत करने की सरकार से मांग की गई.

बिहार में तुरहा जाति का खुदरा सब्जी कारोबार पर कब्ज़ा है. ये उत्पादक जातियों से खरीदकर इन्हें विभिन्न बाज़ार और मोहल्लों में घर-घर तक पहुंचाते है. बिहार में एक तरह से इस समुदाय ने तमाम आधुनिक होम डिलीवरी कंपनियों के आने के दशकों पहले से होम डिलीवरी का काम शुरू कर दिया था.

पिछले साल के मध्य में बांका ज़िले के धानुक सम्मलेन में नेताओं ने अपने लोगों को याद दिलाया कि इस जातीय सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य सामाजिक एवं राजनीतिक स्तर पर धानुक समाज को संगठित करना है. जिसकी वजह से हम आज भी पिछड़े हुए हैं.

स्वयं को मगध सम्राट जरासंध के वंशज बताने वाले चंद्रवंशी उर्फ़ कहार जाति का ‘अखिल भारतवर्षीय चन्द्रवंशी क्षत्रिय ‘कहार’ महासभा’ का आयोजन हुआ. इस सभा में इन्हे एससी/एसटी में सम्मिल्लित करने की मांग इस उद्घोष के साथ की गयी कि अगर मांग नहीं मानी गई तो चंद्रवंशी समाज वर्तमान सरकार से अलग किसी और गठबंधन को वोट करेगा.

सन ऑफ़ मल्लाह नाम से विख्यात हो चुके विकासशील इन्साफ पार्टी (वीआईपी) सुप्रीमो मुकेश सहनी ने अपने 4 नवम्बर 2018 के ‘निषाद आरक्षण महारैली’ के आयोजन में निषाद और इससे जुड़ी लगभग 20 उपजातियों मल्लाह, केवट, गोड़ी, तुरहिया, नोनिया, खुलवट, तियर, चांय को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग की जिनका व्यवसाय अथवा जीवन-यापन नदियों और तालाबों से सम्बद्ध है.

मुकेश सहनी के अनुसार बिहार में इस जाति की जनसंख्या कथित रूप से 14 प्रतिशत है. मुकेश सहनी 2015 बिहार विधानसभा चुनाव के समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के ‘हेलीकाप्टर’ में सफ़र कर चुके हैं लेकिन इधर निषादों के दबाव में महागठबंधन का रुख किया क्योंकि महागठबंधन आरक्षण का पैरोकार है और निषादों का बौद्धिक जमात जिसका हिमायती है.

जातीय समूहों में वैश्य समुदाय ही है जिसने अभी तक बिहार में कोई मज़बूत मांग नहीं रखी है, वैसे बनिया या वैश्य कोई एक जाति नहीं है बल्कि कई व्यावसायिक पारंपरिक जातियां इसमें सम्मिलित हैं जैसे कलवार, कलार, तेली, तमोली (चौरसिया पान उत्पादक), कानू, रौनियार, स्वर्णकार, बरनवाल, मारवाड़ी, सूढ़ी, हलवाई, केसरवानी (केसरी), ठठेरा, कसेरा, अग्रहरी इत्यादि. इसमें मारवाड़ी बिहार के बाहर से आकर बसे हैं जिनका वहां के व्यावसाय और राजनीति में अच्छा-ख़ासा दबदबा है.

माना जाता है कि सम्मिलित रूप से वैश्यों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर है लेकिन राजनीतिक डोनेशन देने में ये जितने आगे हैं राजनीति में इनकी सक्रियता और भागीदारी उतनी ही कम है या इन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है. लेकिन खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है को चरितार्थ करते हुए वैश्य जातियों ने भी अधिकार सम्मलेन करना शुरू कर दिया है.

अखिल भारतीय रौनियार वैश्य महासभा का शताब्दी समारोह सह राजनैतिक अधिकार महासम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें विधान पार्षद राजेश गुप्ता उर्फ बब्लू गुप्ता ने कहा कि संगठित होकर रौनियार समाज को राजनैतिक समेत तमाम अधिकार शीघ्रतापूर्वक हासिल करना है.

17 फ़रवरी 2019 को पटना में कलवार जाति का कलवार अधिकार महासम्मेलन रैली प्रस्तावित थी. इस सम्मेलन में उनको अति पिछड़ा वर्ग में शामिल करने तथा गुण्डों-मवालियों द्वारा जुल्म, अत्याचार पर अंकुश लगाने एवं इतिहासकार डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल को भारत रत्न देने आदि की मांग थी. लेकिन यह रैली भाजपा के किसी बड़े नेता के कहने पर इसलिए रद्द कर दी गई कि अगर उपरोक्त मांगे नहीं मानी गयी तो कलवार समाज एनडीए को वोट नहीं देगा.

हाल ही में संपन्न कानू-हलवाई राजनैतिक चेतना रैली के सह-संयोजक डॉ अनिल अनल कहते हैं, ‘हमें अपनी जाति में चेतना जागृत करनी है. हमारी जाति मिठाई बनाने से लेकर भुजा भुजने, चाय दूकान और छोटे-मोटे होटल चलाने का काम करती है लेकिन इनका सामाजिक और शैक्षणिक विकास नहीं है इसी कारण अनुसूचित जाति के दर्जे की मांग चल रही है.’ चुनाव के वक्त ही ऐसे सम्मलेन क्यों होते हैं के जवाब में डॉ अनिल ने कहा कि अब राजनीति चौबीसों घंटे का काम है नेताओं को लगता है कि काम न भी हो तो कुछ न कुछ किया कर पायजामा फाड़ के सिया कर के तर्ज पर अपने जात-जमात के लोगों को जोड़े रखना होता है वर्ना फुसलाने वालों की कमी कहां है आजकल.

भाजपा, जेडीयू और राजद अपनी-अपनी पार्टियों के बैनर तले पार्टी के विभिन्न प्रकोष्ठों के माध्यम से ज़िलेवार जातीय सम्मलेन भी करवा रही हैं, जिसमे अति पिछड़ी जातियों के सम्मलेन सबसे ज़्यादा हो रहे हैं. भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस का कथित तौर पर जात-पात में भरोसा नहीं लेकिन भाजपा भी जातीय रैलियां करवा रही है.

भाजपा द्वारा पटना के बापू सभागार में तीन दिन का अति पिछड़ा वर्ग का राष्ट्रीय अधिवेशन प्रस्तावित था जो पुलवामा में आतंकी हमले के कारण टाल दिया गया. जातीय सम्मेलनों की कुछ सच्चाईयां बिहारी जनमानस को मालूम है इसलिए वो इन पर ज़्यादा गर्व भी नहीं करते. बौद्धिक तबका तो इसमें शामिल भी नहीं होता.

राजनीतिक रूप से समृद्ध और जागृत बिहार राज्य में इसके अलावा भी अन्य कई कारण है इन जातीय रैलियों और सम्मेलनों के.

जातीय नेताओं का टिकटार्थी होना: जातीय सम्मेलनों में प्रायः ऐसे नेता होते हैं जो चुनाव लड़ने के लिए टिकटों के इंतज़ाम में लगे होते हैं और भारी भीड़ जमा कर अपनी ताकत राजनीतिक पार्टियों को दिखाते हैं और इसका इस्तेमाल किसी भी राजनीतिक पार्टी से टिकट हासिल करने में करते हैं.

टिकटों की बिक्री: कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं का भी मानना है कि सम्मेलनों के दबाव से अगर कुछ कामयाबी मिलती है और टिकट हासिल होता है तो जाति का नेता एकाध टिकट स्वयं के लिए रखकर पार्टी फंड के नाम पर कुछ टिकटों को बेचकर उससे काफी पैसे भी बना लेता है. हाल ही में एक पूर्व सांसद ने अपने नेता पर पैसे लेकर टिकट बेचने का आरोप भी लगाया है जिसे पार्टी से निष्काषित कर दिया गया.

अति पिछड़ी जातियों में राजनीतिक खालीपन: बिहार में यादव, कुर्मी और कोइरी ही मजबूत राजनीतिक जातियां हैं जो लगभग तीस सालों से सत्ता संभाल रही हैं लेकिन गत वर्षों में कई अन्य जातियां भी राजनीतिक हिस्सेदारी मांगने लगीं हैं जिसका ताज़ा उदाहरण वीआईपी पार्टी की निषाद जाति है जो अपनी जाति से मुख्यमंत्री बनाने की भी बात करने लगी है.
पिछड़ों की गंभीर राजनीति कोई नहीं कर रहा: राजद हो या जेडीयू ये अब प्रतीकात्मक राजनीति कर रहे हैं जिसमे कोई गंभीरता नहीं है केवल जातीय गोलबंदी हो रही है.

शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे राजनीतिक बहसों से गायब है या चुनावी मुद्दे हैं इसलिए पिछड़ों की मझोली और हाशिए पर डाल दी गई जातियां अब उठ खड़ी होने लगी हैं. हां इधर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और इसके नेता उपेन्द्र कुशवाहा ने अवश्य शिक्षा, स्वास्थ्य और न्यायपालिका से जुड़े मामलों को जनमानस तक पहुंचाया है. लेकिन इतना काफी नहीं. जनता की अपेक्षाएं आसमान छू रही हैं और परिणाम शून्य है.


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संस्कृतिकरण हो रहा है उपेक्षित जातियों का: बिहार कई मामलों में संस्कृतिकरण के दौर से भी गुजर रहा है जहां दलित और पिछड़ी जातियों के लोग स्वयं को प्रथाओं, रीतियों और जीवनशैली में अपने से ऊंची जातियों के समानांतर रखना चाहते हैं. लेकिन यहां सबसे प्रबल पक्ष है राजनीतिक अधिकार. इस कारण इन जातियों का उद्भव रैलियों और सम्मेलनों में होने लगा है और जिसकी चर्चा समाज में गली-मोहल्लों तक होने लगीं हैं. मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भी अपने जातीय नेताओं के साथ खडा है.

अभी बिहार में सीट बंटवारे से लेकर उम्मीदवारी तय करने तक में जातीय समीकरण का गुणा- भाग चल रहा है. सभी दल पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने-अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए इस हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन इसे कोई भी दल प्रत्यक्ष रूप से स्वीकारता नहीं है उसे अपने पर जातिवादी ठप्पा भी नहीं चाहिए और राज्य के मानव संसाधन के विकास में सभी स्तरों पर अपना प्रतिनिधित्व भी चाहिए. वैधानिक प्रावधानों के तहत सभी जातियां सामाजिक अनुक्रम में आरक्षण लेने के लिए नीचे ‘गिरने’ को बेकरार हैं. सवर्ण अगर आरक्षित होना चाहता है तो पिछड़ा अत्यंत पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा अनुसूचित जाति/जनजाति में जाने को बेचैन है.

(लेखक पत्रकार एवं मीडिया प्रशिक्षक हैं)

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