scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतक्यों नहीं मिल सका ध्यानचंद, कर्पूरी ठाकुर और सुभाष चंद्र बोस को भारत रत्न सम्मान?

क्यों नहीं मिल सका ध्यानचंद, कर्पूरी ठाकुर और सुभाष चंद्र बोस को भारत रत्न सम्मान?

ध्यानचंद, राममनोहर लोहिया, कांशीराम और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न न मिलना उन सामाजिक समूहों को पीड़ा पहुंचा गया है जो वर्षों से इसका इंतजार कर रहे थे.

Text Size:

25 जनवरी को जब पद्म पुरस्कारों की घोषणा हुई उसके चंद मिनटों बाद ही सोशल मीडिया से लेकर जनसामान्य तक में लोगों ने अपने-अपने हिसाब से इसकी विवेचना शुरू कर दी, विशेष रूप से भारत रत्न के बारे में, जिसमें सबसे ज्यादा नजर लोगों ने इस बात पर डाली कि एक ही समुदाय के अलावा सरकार ने किसी और पर दृष्टि क्यों नहीं डाली चुनावी गणित के हिसाब से भी.

भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान इधर कुछ दशकों से विवादों में रहा है, टाइमिंग के हिसाब से, पक्षपात या कई बार उसे राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के हिसाब से इस अवार्ड को भुनाने की कोशिश करती हैं, तब जब यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है. इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल शामिल है.

खेल को सबसे पहले क्रिकेट के ‘भगवान’ कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर के लिए ही नियम में बदलाव कर इसे भारत रत्न में खेल कटेगरी को जोड़ा गया और दिया गया. और यहीं से विवाद और विरोध की भी शुरुआत हुई. समाज के कई हिस्सों से हॉकी के सर्वकालिक खिलाड़ी और जादूगर कहे जानेवाले ध्यानचन्द के लिए भी भारत रत्न की मांग उठी, आनन-फानन में इसे सचिन तेंदुलकर को दिया गया, वर्तमान यूपीए सरकार ने सभी मांगों और विरोधों को दरकिनार कर दिया और आम चुनाव भी बुरी तरह से हार गए. इस वर्ष भी ध्यानचंद का नाम नदारद रहा. माना यह भी जा रहा था कि प्रधानमंत्री स्वयं एक सामान्य पृष्ठभूमि से आते हैं इसलिए वह ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व का ध्यान रखेंगे लेकिन ध्यानचंद और हॉकी के प्रशंसकों को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी.

21वीं सदी का भारत जागृत भारत है, यहां का प्रत्येक समुदाय अब चाहने लगा है कि उसके समाज के नायकों को राष्ट्रीय फलक पर राजनीतिक रूप से भी प्राथमिकता दी जाय, लेकिन जब कभी उन्हें लगने लगता है कि उन्हें हाशिए पर डाला जा रहा है या पक्षपात हो रहा है, तब ऐसे मुद्दे उठ खड़े होते हैं और विवाद की परिधि में आ जाते हैं.

इसी परिप्रेक्ष्य में बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के लिए भी कई वर्षों से इस सम्मान की मांग हो रही है जिन्होंने सबसे पहले सामाजिक न्याय के मुद्दे पर काम करना शुरू किया था. 1967 में उपमुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने स्कूलों में छात्रों पर लगने वाली फीस को माफ़ कर दिया था, वंचित तबकों के लिए तब अंग्रेजी किसी राक्षस से कम नहीं थी जिसकी उन्होंने अनिवार्यता समाप्त कर दी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

1971 में जब वो थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने सबसे पहले पांच एकड़ तक की जमीन पर लगान को माफ़ कर दिया था, पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने संबंधी मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दी, जिस आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण पर आज हंगामा मचा है उस अगड़े वर्ग और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान कर्पूरी ठाकुर ने ही किया था. लेकिन उन्हें हमेशा से इस सम्मान से दरकिनार किया जाता रहा. शायद उनके समुदाय की हैसियत इतनी नहीं कि किसी दल की सरकार बनवाने में निर्णायक भूमिका निभा सके.

नवीन पटनायक की बहन गीता मेहता की ना: सबसे पहले ओडिशा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की बेटी और वर्तमान मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बहन गीता मेहता ने पद्म पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया है, उन्होंने इसके टाइमिंग पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा कि चुनाव निकट होने की वजह से अवार्ड लेने का यह सही समय नहीं है क्योंकि ओडिशा में लोकसभा और विधानसभा चुनाव दोनों साथ होने वाले हैं.

गीता मेहता ने एक प्रेस स्टेटमेंट भी जारी किया और कहा कि देश में आम चुनाव नजदीक हैं और अवॉर्ड की टाइमिंग से समाज में गलत संदेश जाएगा, जो उनके और सरकार दोनों के लिए शर्मिंदगी की बात होगी. इसका उन्हें हमेशा अफसोस रहेगा. जाहिर है, भाजपा ओडिशा में बढ़त लेने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती.

संन्यासियों के लिए व्याकुल बाबा रामदेव: बाबा रामदेव का दर्द भी छलक कर सामने आया कि इन 70 सालों में किसी भी संन्यासी को भारत रत्न नहीं मिला है. शायद उन्हें लगा होगा कि भारत रत्न के एक उम्मीदवार वो भी हो सकते हैं इसलिए उन्होंने अपना नाम न लेकर सम्पूर्ण संन्यासी समुदाय को उसमें समावेशित कर लिया. लेकिन वो भूलते से नजर आये कि सैद्धांतिक रूप से भारतीय परंपरा के संन्यासी व्यवसाय, मोह-माया, धन-दौलत सत्ता प्रतिष्ठान जैसी बातों से अलग होते हैं.

रामदेव का व्यावसायिक प्रतिष्ठान पातंजलि का साम्राज्य काफी बड़ा हो गया है लेकिन शायद उन्हें भारत रत्न नहीं मिला, उन्होंने सीधे-सीधे अपना नाम लिए बगैर बोला ‘महार्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद जी या शिवकुमार स्वामी.’ मदर टेरेसा को दे सकते हैं क्योंकि वह ईसाई हैं, लेकिन संन्यासियों को नहीं क्योंकि वे हिंदू हैं, इस देश में हिंदू होना गुनाह है क्या?’ विवेकानंद और दयानंद सरस्वती ने हिन्दू समाज में सुधार के लिए बहुत सारे उत्कृष्ट कार्य किये हैं लेकिन ऐसी इच्छाओं से दूर ही रहे हैं.

आम आदमी पार्टी के संजय सिंह का प्रणब दा पर निशाना: आम आदमी पार्टी से राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने भी सवाल उठाया कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, शहीद-ए-आजम भगत सिंह, डॉ. राम मनोहर लोहिया, हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को आज तक भारत रत्न नहीं, नानाजी देशमुख, भूपेन हजारिका और ‘आप’ के बीस विधायकों की सदस्यता रद करने का मामला आगे बढ़ाने वाले और संघ के प्रशंसक प्रणब दा को भारत रत्न. दरअसल पूर्व राष्ट्रपति ने स्वयं स्वीकार किया कि उन्होंने राष्ट्र को जितना दिया है उन्हें उससे ज्यादा मिल गया और वे इस सम्मान को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं.

डॉ राममनोहर लोहिया व कांशीराम भी दरकिनार: कई वर्षों से राजनीति के इन दो दिग्गजों के लिए भी भारत रत्न की मांग होती रही है लेकिन इस बार भी इन्हें इस लायक नहीं समझा गया. राममनोहर लोहिया के लिए तो प्रतीकात्मक रूप से ही कुछ लोग मांग करते हैं, लेकिन कांशीराम के अनुयायी इसके लिए सतत संघर्षशील हैं और वो आगे भी चुप नहीं बैठने वाले. अपने-अपने स्तर पर दोनों नेताओं ने पिछड़े और वंचित समुदायों के लिए काफी संघर्ष और कार्य किये हैं जिस कारण दलित और पिछड़े आज यहां तक पहुंचे हैं.

पी वी नरसिम्हा राव या आडवाणी को अवार्ड देकर सरकार अच्छी राजनीतिक दांव चल सकती थी: भारत को आर्थिक समृद्धि की राह पर ले जाने के लिए नरसिम्हा राव को अगर भारत रत्न दिया जाता तो शायद भाजपा का एक मास्टर स्ट्रोक हो सकता था, नरसिम्हा राव को आर्थिक सुधारों का जनक माना जाता है. उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान लाइसेंस राज को ख़त्म किया था, साथ ही कई सारे क्रान्तिकारी आर्थिक सुधारों को लागू करने वाले नरसिम्हा राव को अगर यह दिया जाता तो पूरे दक्षिण भारत में भाजपा इसे चुनावों में साध सकती थी, लेकिन शायद सरकार कि ये रणनीतिक भूल रही.

भारत में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण लाने में नरसिंह राव सरकार का योगदान को कोई नकार नहीं सकता जिसने भारत को विश्व का लगभग सबसे बड़ा बाजार तो बनाया ही साथ ही वह एक विशाल आर्थिक रूप से समृद्ध मध्यवर्ग भी तैयार हुआ जो यहां कि राजनीति और सामाजिक दिशा को तय करता है. नरसिम्हा राव पर काफी सारे आरोप भी लगे लेकिन कौन से प्रधानमंत्री इससे बचे हैं अभी तक. सभी आरोप-प्रत्यारोपों के बावजूद राव एक विद्वान, लेखक और दर्जन भर भाषाओं के जानकार भी थे.

भाजपा प्रायः कांग्रेस पार्टी द्वारा उसके ही उपेक्षित नेताओं को गले लगाने की कोशिश करती दिखती है जैसे सरदार पटेल के मामले में हुआ है या सुभाषचंद बोस के, उसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राव के मामले में भी कर सकती थी. इसी तरह भाजपा के लौह पुरुष कहे जानेवाले पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को दे सकती थी जिससे उन्हें दरकिनार कर दिए जाने के आरोप से छुटकारा मिल जाता और पार्टी के एक धड़े में पुनः ऊर्जा का संचार हो जाता क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ से जुड़े नाना जी देशमुख के किये उत्कृष्ट कार्यों पर कोई आलोचना इस सम्मान के मिलने से नहीं हुई है, सोशल मीडिया में भी उनपर कोई टीका-टिप्पणी नहीं हुई है जैसे कि भूपेन हजारिका के लिए कहा जा रहा है कि इस बार भाजपा ने उत्तर-पूर्व में अपनी लोकसभा सीटें को बढाने के मकसद से ऐसा किया है लेकिन इस पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता कि वे इस सम्मान के हकदार नहीं हो सकते.

नानाजी देशमुख ने सेवा के कई कार्यक्रम शुरू किये थे जो हवा में न होकर जमीनी थे और जनसामान्य ने इसका लाभ भी उठाया था जिसमे आरोग्यधाम, कृषि विज्ञान केंद्र, जल प्रबंधन, नन्ही दुनिया, शैक्षणिक अनुसंधान केंद्र , आजीवन स्वास्थ्य संवर्धन महाविद्यालय, गौ-विकास अनुसंधान केंद्र, परमानन्द आश्रम पद्धति विद्यालय, समाज शिल्पी दम्पति योजना एवं स्वावलंबन अभियान इत्यादि जैसे कार्यकर्म साक्षात् भारतीय परम्परा एवं दर्शन पर आधारित हैं इसलिए उनके सम्मान पर किसी भी दल या संगठन ने विरोध या निराशा नहीं जताई है. दरअसल भारत रत्न इस तरह के सेवा कार्यों के लिए ही दी जानी चाहिए जिससे कि किसी भी स्तर पर लाखों लोग लाभान्वित हों और प्रेरणा पा सकें.

लेकिन ध्यानचंद, राममनोहर लोहिया, कांशीराम और कर्पूरी ठाकुर को न मिलना उन सामाजिक समूहों को पीड़ा पहुंचा गया है जो वर्षों से इसका इंतजार कर रहे थे. दरअसल कांग्रेस की इन्हीं चालाकियों ने उसे काफी नुकसान पहुंचाया है जहां धीरे-धीरे भाजपा भी पहुंचना चाह रही है.

कोई एक वैधानिक चयन प्रणाली तो होनी ही चाहिए:

देश का यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान आखिर किसे दिया जाए इसके लिए कोई वैधानिक प्रक्रिया तो होनी चाहिए जिससे कि इस सम्मान का एक आदरणीय स्थान बना रहे. क्योंकि इससे देश के सभी वर्गों की आकांक्षाएं जुड़ी हैं लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. जिसकी भी सरकार होती है वो अपने लाभ-हानि के हिसाब से इस सम्मान को प्रदान करती है. इस पुरस्कार को लेकर संसद में एक कानून बनाकर एक दिशा-निर्देश तय किए जाने की आवश्यकता है जिसमें सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के निर्णय के अलावा विपक्षी पार्टियों और गैर सरकारी संस्थानों के अधिकारियों को शामिल किया जाना चाहिए.

इस मुद्दे पर आलोचना के साथ-साथ चुप्पी भी कई स्तरों पर देखने को मिलती है लेकिन चयन पद्धति क्या हो, निर्णय की प्रणाली क्या हो इसमें कौन-कौन से लोग शामिल होने चाहिए अभी इसपर बात नहीं हो रही है वर्तमान राजग सरकार कई पुरानी प्रणालियों को ध्वस्त करती दिखी है तो उसे इसके लिए भी एक प्रणाली विकसित करनी ही चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा इसे मान्यता मिले और यह शिखर सम्मान आलोचना से वंचित रहे.

(लेखक पत्रकार एवम मीडिया प्रशिक्षक हैं)

share & View comments