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शुक्रवार, 25 अप्रैल, 2025
होममत-विमतRSS मुख्यालय से वापस आने के बाद, PM मोदी के सामने मुश्किल विकल्प है—ट्रंप बनाम ठेंगड़ी

RSS मुख्यालय से वापस आने के बाद, PM मोदी के सामने मुश्किल विकल्प है—ट्रंप बनाम ठेंगड़ी

मोदी ट्रंप के शब्दों और कार्यों से अपनी सार्वजनिक छवि को धूमिल नहीं होने दे सकते. राजनीति को अलग रखें तो अमेरिकी राष्ट्रपति की मांगों पर सहमत होने का मतलब होगा दीनदयाल उपाध्याय और दत्तोपंथ ठेंगड़ी के विचारों को नकारना.

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पिछला रविवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए एक ऐतिहासिक दिन साबित हुआ. यह पहली बार था कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में नागपुर स्थित इसके मुख्यालय गए. दो पूर्व प्रचारकों, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के 17 साल तक इस पद पर रहने के बावजूद इसमें इतना वक्त लगना, किसी और चीज़ से ज्यादा हमें यह बताता है कि संघ रिमोट कंट्रोल के रूप में देखे जाने से कतराता है. मोदी इससे पहले दो बार 2012 और 2013 में यहां आए थे, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे. वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद से हटने के तीन साल बाद 2007 में यहां का दौरा किया था.

30 मार्च को मोदी का आरएसएस मुख्यालय का दौरा — जब वे दीक्षाभूमि भी गए, जहां बीआर आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था — विपक्ष को “संघम शरणम गच्छामि” का नारा लगाने का एक कारण दे सकता है, लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनावों के ठीक बाद से ही इसके स्पष्ट संकेत आने लगे थे.

जैसा कि मैंने 14 अक्टूबर के अपने कॉलम में लिखा था, पिछले साल आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण के तुरंत बाद, पीएम मोदी ने ट्वीट किया था. उन्होंने संघ के 100वें वर्ष में प्रवेश करने पर सभी स्वयंसेवकों को बधाई दी और राष्ट्र के प्रति उनकी सेवा की प्रशंसा की. आखिरी बार उन्होंने 2017 में संघ के स्थापना दिवस के बारे में ट्वीट किया था.

मोदी ने भागवत के विजयादशमी भाषण का यूट्यूब लिंक भी ट्वीट किया. यह पहली बार था और शायद आखिरी बार उन्होंने भागवत के बारे में एक्स पर पोस्ट किया था, 2016 में उनके जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने के लिए. सिर्फ 15 दिन पहले, उन्होंने पॉडकास्टर लेक्स फ्रिडमैन को बताया कि कैसे आरएसएस ने उन्हें “उद्देश्यपूर्ण जीवन” दिया है.

मोदी का आरएसएस मुख्यालय का दौरा जेपी नड्डा की उस टिप्पणी को पीछे छोड़ने के भाजपा के प्रयास की परिणति है, जिसमें उन्होंने आज की ‘सक्षम’ भाजपा को संघ की जरूरत नहीं होने का संकेत दिया था, जिसकी वजह से पार्टी को पिछले लोकसभा चुनाव में भारी कीमत चुकानी पड़ी थी.


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मोदी की दुविधा

अंदाज़ा लगाइए कि मोदी और भागवत ने इस यात्रा के दौरान क्या चर्चा की होगी. सितंबर में दोनों के 75 साल पूरे होने के बारे में, भागवत 11 तारीख को और मोदी 17 तारीख को? लगता नहीं है. यह बहुत ही संवेदनशील विषय है. भागवत का मानना ​​है कि 75 साल की उम्र के बाद किसी को भी पद पर नहीं रहना चाहिए. वे 75 के होने के बाद क्या करेंगे, इस पर अब तक कुछ नहीं कह रहे. मोदी भी 75 साल को लेकर ऐसे ही सोचते थे, लेकिन अब उन्होंने अपना विचार बदल लिया है. अभी कुछ दिन पहले ही वे संसद में विपक्ष से कह रहे थे कि उनकी सरकार का अभी तीसरा कार्यकाल ही है.

तो, मोदी और भागवत ने और क्या चर्चा की होगी? नए भाजपा अध्यक्ष के बारे में? नड्डा का अध्यक्ष के रूप में विस्तारित कार्यकाल 30 जून 2024 को समाप्त हो गया. पार्टी के संविधान के अनुसार, वे अब अनधिकृत रूप से पद पर हैं. उनका तीन साल का कार्यकाल 20 जनवरी 2023 को समाप्त हो गया. अगर वे मौजूदा गतिरोध के जारी रहने से खुश हैं, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता.

मोदी और भागवत दुनिया की किसी भी चीज़ पर चर्चा कर सकते थे, लेकिन क्या, हम नहीं जानते. कोई केवल यह उम्मीद कर सकता है कि आरएसएस मुख्यालय का दौरा मोदी को उनकी दुविधा को हल करने में मदद करेगा—भारत की आर्थिक अनिवार्यताओं और उनकी राजनीति और विचारधारा के बीच एक मुश्किल विकल्प. यह अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, उनके बहुत अच्छे दोस्त और दीनदयाल उपाध्याय और दत्तोपंत ठेंगड़ी, आरएसएस के विचारकों के बीच एक विकल्प है, जिन्होंने उनके आर्थिक दर्शन को ‘प्रेरित’ किया. ये दोनों 2014 से उनके शासन की मार्गदर्शक शक्ति रहे हैं, चाहे वह योजना आयोग का उन्मूलन हो, आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी, आयुष्मान भारत, राजकोषीय रूढ़िवाद, ‘सबका साथ, सबका विकास’ का आदर्श वाक्य वगैरह.

उन्होंने यहां-वहां कुछ विचलन और समायोजन किए—आरएसएस या उसके सहयोगियों को हस्तक्षेप करने की अनुमति दिए बिना, लेकिन वे ठेंगड़ी और उपाध्याय के व्यापक सिद्धांतों पर टिके रहे. यह गुजरात के सीएम के रूप में मोदी की तरह था, जो संघ कार्यकर्ताओं को बिना ज्यादा महत्व दिए, हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे थे.


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ठेंगड़ी बनाम ट्रंप

जब मैं 2007 के विधानसभा चुनाव को कवर करने के लिए गुजरात गया था, तो मुझे विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं को मोदी के नेतृत्व वाली सरकार से नाखुश देखकर हैरानी हुई. उनमें से कई लोगों को उम्मीद थी कि उनके खिलाफ मामले बंद हो जाएंगे, जबकि बाकी को वह समर्थन नहीं मिला जिसकी उन्हें भाजपा सरकार से उम्मीद थी. कमोबेश यही कहानी पीएम मोदी की आर्थिक एजेंडा के बारे में भी है. स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ जैसे आरएसएस से जुड़े संगठनों ने अपनी आवाज़ लगभग खो दी है, जबकि उनके संस्थापक ठेंगड़ी मोदी सरकार के प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं.

उदाहरण के लिए सितंबर 2021 में केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक्स पर पोस्ट किया कि उन्हें “यह जानकर खुशी हुई कि पीएम नरेंद्र मोदी जी की सरकार श्रमिकों के कल्याण के लिए दत्तोपंत ठेंगड़ी जी द्वारा बताए गए रास्ते पर काम कर रही है”. 2020 में, जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि मोदी की आत्मनिर्भर भारत की परिभाषा का मतलब भीतर की ओर देखना या एकांतवादी देश बनना नहीं है, तो वह केवल ठेंगड़ी के विचार को दोहरा रही थीं.

ये संगठन वाजपेयी सरकार के दौरान ज़्यादा मुखर थे, हालांकि, शक्तिशाली नहीं थे. याद कीजिए कि कैसे ठेंगड़ी ने कहा था कि यशवंत सिन्हा अर्थ मंत्री नहीं बल्कि अनर्थ मंत्री हैं. 2001 में ठेंगड़ी ने उन्हें सुधारों के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ‘अपराधी’ कहा था. दिलचस्प बात यह है कि तत्कालीन भाजपा महासचिव नरेंद्र मोदी ने ही वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के कहने पर सिन्हा के खिलाफ ठेंगड़ी के बयान को नकारते हुए एक बयान जारी किया था.

13 साल बाद, जब भाजपा सत्ता में लौटी, तो सिन्हा को मोदी कैबिनेट में कोई जगह नहीं मिली. माना जाता है कि ठेंगड़ी ने मोदी को उनके शुरुआती वर्षों में गहराई से प्रभावित किया था.

1979 में, उन्होंने कथित तौर पर मोदी को आपातकाल के दौरान आरएसएस की भूमिका पर शोध करने का काम सौंपा, जिससे बाद में उन्हें दिल्ली में ज़्यादा समय बिताने और प्रमुख नेताओं के साथ बातचीत करने का मौका मिला. मोदी का आर्थिक और सामाजिक कल्याण दर्शन ठेंगड़ी और उपाध्याय से गहराई से जुड़ा हुआ है और उनसे प्रेरित है.

यहीं पर ट्रंप ने पीएम मोदी के लिए बड़ी दुविधा—बल्कि संकट—खड़ा कर दिया है। जबकि वे मोदी को अपना महान दोस्त कहते हैं, वे भारत के “क्रूर” टैरिफ पर सवाल उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जैसा कि दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता ने शनिवार को लिखा, मेक इन इंडिया के 10 साल ने विनिर्माण या निर्यात के लिए कोई उपलब्धि नहीं दी.

उन्होंने तर्क दिया कि टैरिफ को लेकर ट्रंप द्वारा हमारे सिर पर बंदूक तानना अब तक की सबसे अच्छी बात हो सकती है. टैरिफ संरक्षण में भारी कमी से उद्यमी भारत को फिर से प्रतिस्पर्धी बनने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. मुझे लगता है कि मोदी इससे सहमत हो—अगर यह सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में होता. उन्होंने पहले ही ट्रंप को शांत करने की कोशिश की है, हार्ले-डेविडसन बाइक और बॉर्बन व्हिस्की पर आयात शुल्क कम करके और तथाकथित ‘गूगल टैक्स’ को वापस लेकर.

सरकार ट्रंप की उम्मीदों को पूरा करने के लिए थोड़ा और आगे जाने के लिए तैयार दिखती है, लेकिन मोदी इस दिशा में बहुत आगे जाने के राजनीतिक नतीजों के बारे में चिंतित होंगे. उनकी वैश्विक हैसियत और उनके नेतृत्व में भारत का ‘विश्वगुरु’ के रूप में कद भाजपा के केंद्रीय चुनावी मुद्दों में से एक रहा है. विश्वगुरु की छवि मोदी के सार्वजनिक व्यक्तित्व के लिए भी महत्वपूर्ण है. वह किसी भी अन्य देश के नेता-मित्र या विरोधी — द्वारा धकेले जाने या डराए-धमकाए जाने की स्थिति में नहीं दिख सकते. बेड़ियों में जकड़े अपराधियों की तरह अमेरिका से डिपोर्ट किए गए भारतीयों की तस्वीरों ने पहले ही मोदी के प्रशंसकों के बीच बेचैनी पैदा कर दी है — इसलिए नहीं कि वह डिपोर्ट किए जाने या उनके साथ वैसा व्यवहार किए जाने के लायक नहीं थे, बल्कि इसलिए कि मोदी का भारत कल्पना नहीं कर सकता कि उनके नेतृत्व में कोई देश भारतीयों के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार करे.

2020 में गलवान घाटी में हुई झड़पों के कुछ हफ्ते बाद, मैं बिहार की यात्रा कर रहा था, यह देखने की कोशिश कर रहा था कि क्या इसका कोई चुनावी नतीजा होगा. लोगों से बातचीत से मुझे जो धारणा मिली, वह यह थी कि चीन डर से कांप रहा था और उसे पीएम मोदी ने पाकिस्तान के साथ जो किया, उससे सबक सीखना चाहिए था. बहरहाल, मोदी ट्रंप के शब्दों और कार्यों से अपनी सार्वजनिक छवि को नुकसान नहीं होने दे सकते.

राजनीति को एक तरफ रखते हुए, ट्रंप की मांगों पर सहमत होने का मतलब होगा ठेंगड़ी के विचारों को नकारना.

‘थर्ड वे’

अपनी किताह, थर्ड वे (1998) में “स्वदेशी: देशभक्ति की व्यावहारिक अभिव्यक्ति” नामक अध्याय में, ठेंगड़ी कहते हैं कि स्वदेशी भावना ने अंग्रेज़ों को अपने राष्ट्राध्यक्ष को उनके निजी इस्तेमाल के लिए एक शानदार जर्मन मर्सिडीज कार खरीदने से रोकने के लिए प्रेरित किया. कल्पना कीजिए कि आरएसएस में ठेंगड़ी के अनुयायी आज हार्ले-डेविडसन या बॉर्बन व्हिस्की को दी गई रियायतों के बारे में क्या सोच रहे होंगे.

अपनी किताब में ठेंगड़ी ने एक और उदाहरण दिया है, जब अमेरिका ने जापान को अपने कैलिफोर्नियाई संतरे के लिए बाज़ार में पहुंच देने के लिए मजबूर किया, तो जापानी ग्राहकों ने एक भी कैलिफोर्नियाई संतरा नहीं खरीदा और इस तरह “अमेरिकी दबाव को हास्यास्पद बना दिया”.

ठेंगड़ी ने लिखा, जबकि संरक्षणवाद की बढ़ती खुराक ने पिछले वर्षों में (अमेरिकी) राज्य हस्तक्षेप का मूल आधार बनाया, अपने साझेदार देशों को अपनी नीतियों को बदलने और अधिक खुले होने के लिए मजबूर करके अमेरिकी उत्पादों के लिए बाज़ार में पहुंच बढ़ाने की मांग करना इसकी नीति का वर्तमान तरीका रहा है. याद रखिए, यह किताब पहली बार 1998 में प्रकाशित हुई थी. ठेंगड़ी ने कहा, “यह (अमेरिका) अपने कृषि क्षेत्र को भारी सब्सिडी दे रहा है, जबकि अन्य देशों से मांग कर रहा है कि वह उस क्षेत्र को सभी सब्सिडी वापस ले लें. यह दवा क्षेत्र में भी दोहरे मापदंड अपना रहा है.”

ठेंगड़ी और अन्य आरएसएस विचारकों ने पीएम मोदी के आर्थिक दर्शन की नींव रखी. ट्रंप इसे खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं. वे अनजाने में अपने ‘great friend’ को भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत ज़रूरी परिवर्तन करने के लिए मजबूर कर रहे हैं ताकि इसके व्यापार और उद्योग को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी और वास्तव में आत्मनिर्भर बनाया जा सके. पीएम मोदी इसे अपनी राजनीति और विचारधारा के साथ कैसे जोड़ेंगे, यह एक सोचने का विषय है.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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