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Thursday, 3 October, 2024
होममत-विमतPM मोदी और अमित शाह को राष्ट्रीय हित में श्रीनगर में BJP के CM की योजना को क्यों टाल देना चाहिए

PM मोदी और अमित शाह को राष्ट्रीय हित में श्रीनगर में BJP के CM की योजना को क्यों टाल देना चाहिए

आठ अक्टूबर को विधानसभा चुनाव में कोई भी जीते या हारे, कश्मीरियों को निराशा ही हाथ लगेगी.

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अगर आप आज कश्मीर में घूमें, तो आपको उम्मीद की कई कहानियां मिलेंगी. श्रीनगर से 50 किलोमीटर दक्षिण में शोपियां जाएं, जो एक आतंक का गढ़ है, जहां कुछ समय पहले ही आतंकवादियों ने स्कूलों को जला दिया था. हायर सेकेंडरी स्कूल नारापोरा में आपको युवा लड़के और लड़कियां मिलेंगी जो आईएएस अधिकारी बनना चाहते हैं.

12वीं कक्षा की छात्रा सेहरिश कश्मीरी में कविता लिखती हैं. उन्हें अपनी कविताएं सुनाना बहुत पसंद है: “चंदर चंद्रयानस इल्मस मुबारक, खसुन आसमानस वुचुन तथ ज़मीनस, बुरुथ जान इल्मस यिमन इलम वालियन
खयालन छु चानयन शहर बाघबानो…”  (“Our greeting to the moon, Chandrayaan 3…Bharat is now symbol of greatness/Bharat holds the leadership now/salute to your imagination, O Great Garderner….”) हालांकि, कश्मीरी में लिखीं यह लाइनें शायद पूरी तरह सटीक न हों, लेकिन यह इतनी सुंदर थीं कि जब लड़की ने मेरे सामने इसे सुनाया तो क्लास के सभी बच्चों ने बहुत देर तक ताली बजाई. शोपियां के एक स्कूल में चंद्रयान कार्यक्रम और ‘भारत’ की महानता के बारे में सुनकर आपको हैरान नहीं होना चाहिए. ये सभी स्टूडेंट्स ऊंची उड़ान भरने का सपना देख रहे हैं.

सेहरिश स्कूल पहुंचने के लिए नौ किलोमीटर पैदल चलती हैं. शोपियां में कई स्टूडेंट्स के लिए स्कूल जाने के लिए 5-10 किलोमीटर पैदल चलना सामान्य बात है. स्कूल में नई ऑनलाइन लाइब्रेरी और बेहतर सुविधाओं को दिखाते हुए इतिहास के शिक्षक जॉन मोहम्मद पॉल ने मुझसे कहा, “सरकार ने यहां कुछ अच्छे काम किए हैं. उन्हें इन गरीब बच्चों के लिए पिक-एंड-ड्रॉप सुविधाओं के लिए वाहनों की व्यवस्था करने के हमारे अनुरोध पर भी विचार करना चाहिए! इससे उनकी ज़िंदगी बदल जाएगी.”

कुछ साल पहले स्कूल की इमारत को आतंकवादियों ने आग लगा दी थी, लेकिन वहां पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के अंदर एक अलग ही जुनून है.

एक समय था जब सरकारी अधिकारी सहित लोग शोपियां के दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में बाहर नहीं निकलते थे. अब आप उन्हें हर जगह देख सकते हैं, कचरा निपटान इकाई चलाते हुए, क्रिकेट के मैदान बनाते हुए, सड़कें और पुल बनाते हुए, जल जीवन मिशन के तहत पाइप लाइन बिछाते हुए, मनरेगा कार्यों की देखरेख करते हुए और इसी तरह के अन्य काम करते हुए.

आप बारामुल्ला और अन्य जगहों पर भी ऐसी ही कहानियां सुन पाएंगे. अगर आप कश्मीरी राजनेता नहीं हैं, तो आप बदलाव के इन स्पष्ट संकेतों को अनदेखा नहीं कर सकते. आप उम्मीदों और सपनों की कहानियां सुनने से नहीं बच सकते. “थोड़ा काम तो हुआ है” यह आम बात है. लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा की अक्सर तारीफ होती है. लोग बेशक इससे कहीं ज़्यादा चाहते हैं, खासकर नौकरियां.

उनसे पूछें कि वे अगली सरकार से क्या चाहते हैं — तो, आम जवाब नौकरियां और विकास हैं. अनुच्छेद-370 एक संवेदनशील मुद्दा बना हुआ है. इसी तरह विभिन्न आरोपों में जेलों में बंद लोगों का मुद्दा भी है. बेशक, ये संवेदनशील मुद्दे टीवी कैमरों की नज़र में प्रमुखता से छाए रहते हैं. अब्दुल्ला और मुफ्ती जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को बहाल करने का वादा कर सकते हैं, लेकिन लोगों में धीरे-धीरे यह एहसास हो रहा है कि यह हमेशा के लिए चला गया है. वो दुख और लालसा से कहते हैं, हमारी पहचान छीन ली गई है. नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) द्वारा अनुच्छेद-370 और 35ए को बहाल करने का वादा करना राजनीतिक रूप से सही है, लेकिन यह महज़ बयानबाजी है.

कश्मीर अब कहां जाएगा? आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर काफी उत्साह है. उन्हें अपनी सरकार चुनने के लिए वोट दिए 10 साल हो गए हैं. वो अपना खुद का शासन चाहते हैं, ‘दिल्ली का शासन’ नहीं. इसलिए लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी प्रभावशाली मतदान की उम्मीद करें. चौंकने वाली बात नहीं कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी भी इससे दूर नहीं रह सका. इसने सात उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और उनका समर्थन किया. चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम ज़मानत पर बाहर, आतंकी-फंडिंग के आरोपी इंजीनियर रशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) ने लगभग तीन दर्जन उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं और वो प्रभावशाली भीड़ जुटाने में कामयाब भी रहे हैं.


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आठ अक्टूबर को तीन परिदृश्य

आपकी राजनीतिक और वैचारिक सोच चाहे जो भी हो, आप कश्मीर में हो रहे इन बदलावों को अनदेखा नहीं कर सकते. हालांकि, इस चुनाव को लेकर उनके उत्साह के बावजूद — चाहे आठ अक्टूबर को नतीजे आने पर कोई भी जीते — कश्मीरियों को जल्द ही निराशा का सामना करना पड़ सकता है. इससे पहले कि मैं समझाऊं कि ऐसा क्यों होगा, मैं उन तीन परिदृश्यों के बारे में बात करूंगा जो उस दिन उभर सकते हैं.

सबसे पहले, एक स्पष्ट विजेता होगा जो सरकार बनाएगा. केवल कांग्रेस-एनसी गठबंधन सभी-90 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कुल 62 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें घाटी की 47 सीटों में से केवल 19 सीटें शामिल हैं. इसलिए केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को 46 सीटें जीतने के लिए चमत्कार करना होगा, जो कि बहुमत का आंकड़ा है. अगर हम चमत्कार को नज़रअंदाज़ कर दें, तो कांग्रेस-एनसी ही एकमात्र पार्टी या (चुनाव पूर्व) गठबंधन है जो अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल कर सकता है. अगर उन्हें आधा दर्जन सीटें कम मिलती हैं, तो भी वे संख्या बढ़ाने की उम्मीद कर सकते हैं — जिसमें ज़रूरत पड़ने पर पीडीपी भी शामिल है. पहली स्थिति में उमर अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री बनने की संभावना है.

दूसरी स्थिति में कांग्रेस-एनसी का खेल इंजीनियर रशीद की एआईपी, गुलाम नबी आज़ाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी, अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी, सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस और यहां तक ​​कि जेईआई समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों के कारण खराब हो गया है. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने मुझे बताया कि यहीं पर भाजपा की उम्मीदें टिकी हैं. रशीद आज भाजपा विरोधी हो सकते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि 2014 के विधानसभा चुनाव से पहले, उन्होंने घोषणा की थी कि वो कश्मीर समस्या को हल करने के लिए भाजपा सहित किसी से भी हाथ मिलाने के लिए तैयार हैं. यह पांच साल पहले की बात है जब उन्हें आतंकवाद के वित्तपोषण के आरोप में जेल भेजा गया था और 10 साल पहले जब वे बारामुल्ला लोकसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला को हराकर कश्मीर में ‘नए विकल्प’ के रूप में उभरे थे. रविवार को एआईपी और जमात-ए-इस्लामी के बीच हुए समझौते — जिसमें एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार न उतारने की बात कही गई है — ने एक नया मोड़ ला दिया है. हालांकि, नतीजे आने तक रशीद वापस जेल में होंगे. एआईपी के विजेताओं को, अगर कोई है, तो भाजपा को ‘न’ कहने के लिए बहुत हिम्मत दिखानी होगी. अन्य निर्दलीय उम्मीदवारों को भी इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ेगा. आज़ाद-बुखारी-लोन की तिकड़ी व्यावहारिक तौर पर भाजपा की सहयोगी है. दूसरे परिदृश्य में भाजपा को श्रीनगर में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने के अपने लंबे समय से संजोए सपने को पूरा करने का मौका मिलेगा.

तीसरा परिदृश्य यह है कि जनादेश इतना खंडित हो कि कोई भी पार्टी या गठबंधन सरकार बनाने में सक्षम न हो. इसका मतलब होगा कि मनोज सिन्हा के नेतृत्व वाली सरकार बिना किसी निर्वाचित सरकार के जारी रहेगी.


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आठ अक्टूबर को मिल सकती है — निराशा

इस बिंदु पर मैं वही बात दोहराना चाहता हूं जो मैंने पहले कही थी: 8 अक्टूबर को कोई भी जीते, कश्मीरियों को निराशा ही हाथ लगेगी. तीसरा परिदृश्य तत्काल निराशा लाएगा, जो अंततः दूसरे परिदृश्य में भी दिखाई देगा. पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती सही थीं जब उन्होंने दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि जम्मू-कश्मीर का अगला मुख्यमंत्री एक नगर निगम का मेयर मात्र होगा. चुनाव के बाद भी निर्वाचित सरकार की अधिकांश शक्तियां एलजी के पास ही होती हैं, इसलिए अगला सीएम और उनकी पार्टी/गठबंधन वही करेगा जो अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में किया था — एलजी कार्यालय से विवाद. दिल्ली में एलजी कार्यालय नौकरशाहों के माध्यम से दिल्ली प्रशासन चलाता है, लेकिन अगर कुछ गलत होता है तो उसके लिए चुनी हुई सरकार को ही आलोचना झेलनी पड़ती है. अगर कांग्रेस-एनसी चुनाव जीत जाती है, तो चुनी हुई सरकार भी दिल्ली की तरह ही शक्तिहीन और अप्रभावी हो जाएगी. बस इतना ही कि लोगों की निराशा का जम्मू-कश्मीर में कहीं अधिक गंभीर प्रभाव और परिणाम होंगे!

दूसरा परिदृश्य वो आखिरी परिदृश्य है जो घाटी के लोग चाहते हैं. विकास के रुके हुए पहियों को आखिरकार गति देने के लिए एलजी मनोज सिन्हा के प्रति सद्भावना है, चाहे वो कितना भी धीमा क्यों न हो, लेकिन घाटी के लोगों के लिए भाजपा पूरी तरह से अस्वीकार्य है. पीडीपी अभी भी सरकार बनाने के लिए भाजपा के साथ साझेदारी करने की कीमत चुका रही है. घाटी में केंद्र की अलोकप्रियता केवल अनुच्छेद-370 के कारण नहीं है. यह हिंदुत्व की राजनीति, भाजपा के नेतृत्व वाले केंद्र की कथित सख्ती और बहुत कुछ के कारण है. जैसा कि है, जम्मू-कश्मीर में भाजपा सरकार बनाने का एकमात्र तरीका निर्दलीय विधायकों या उन लोगों को शामिल करना है जिन्हें लोग स्थिति के विरोध में या मुख्यधारा की पार्टियों को खारिज करने के लिए चुनते हैं. दूसरे राज्यों में किसी भी तरह से सरकार बनाना एक बात है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा करने का कोई भी प्रयास गंभीर परिणाम देगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को यह किसी और से ज्यादा पता होगा. भाजपा का मुख्यमंत्री होना, भले ही वो हिंदू न हो, हर पार्टी कार्यकर्ता का सपना रहा है. मोदी-शाह को राष्ट्रहित में इसे पूरा करने के प्रलोभन से बचना चाहिए क्योंकि इससे पिछले पांच सालों में उनकी सारी उपलब्धियां बेकार हो जाएंगी और वह समय में पीछे चले जाएंगे.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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