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Friday, 3 May, 2024
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कार्टूनों में बाबा साहब का मजाक उड़ाने वाले आज उनकी पूजा कर रहे हैं!

पुस्तक के लेखक का कहना है कि अगर आप बाबा साहब का सम्मान करते हैं तो किताब में छपे कार्टूनों को देखते समय आपकी भावना आहत हो सकती है, क्योंकि इन कार्टूनों में बाबा साहब को अपमानित करने में कोई कसर छोड़ी नहीं गई थी

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सौ साल से भी कम समय में वक्त कैसे बदलता है, इसकी ये शानदार मिसाल है. हालांकि कोई कह सकता है कि 70 या 80 साल पहले अखबारों और पत्रिकाओं में किसी शख्स पर कैसे कार्टून छपे, इस पर अब बात क्यों की जानी चाहिए. कार्टून ही तो हैं, जिसको मजा लेना होगा, उन्होंने लिया होगा. जिन्हें बुरा लगा होगा, वे सब भी मर-खप गए होंगे. ये सच है कि वे पत्र-पत्रिकाएं इतिहास में खो चुकी हैं या किसी लाइब्रेरी में धूल खा रही हैं या हो सकता है कि दीमक उन्हें चाट चुके हों. कुछ पत्रिकाओं और अखबारों का नसीब ठीक रहा होगा तो माइक्रोफिल्म या डिजिटल फॉर्मेट में उन्हें बदला जा चुका होगा, जिसे कभी कोई रिसर्चर देखने आएगा.

ऐसे ही एक रिसर्चर हैं दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्ट एंड एस्थेटिक्स डिपार्टमेंट से पीएचडी कर रहे उन्नमति श्याम सुंदर, जो खुद भी श्याम के नाम से कार्टून बनाते हैं. उन्होंने बाबा साहब भीम राव आंबेडकर पर उस दौर में बने कार्टूनों का अध्ययन किया है. उनका ये प्रयास अब एक किताब की शक्ल में है, जिसका शीर्षक है – नो लाफिंग मैटर: द आंबेडकर कार्टून्स 1932-1956.

दरअसल श्याम जब इन कार्टूनों की खोज में निकले, तब उनका इरादा किताब लिखने का नहीं था. 2012 में एनसीईआरटी की समाज विज्ञान की किताब में बाबा साहब और नेहरू के एक कार्टून को लेकर विवाद हो गया था. शंकर के बनाए इस कार्टून में बाबा साहब एक घोंघे पर बैठे हैं और नेहरू उन्हें कोड़े मार रहे हैं और भीड़ हंस रही है. दरअसल ये कार्टून संविधान की ड्राफ्टिंग में हो रही कथित देरी पर टिप्पणी है. हंगामा बढ़ने पर सरकार ने एक कमेटी बैठाकर इसकी जांच कराई और इसके साथ ही कई और कार्टून किताबों से हटा दिए गए.


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श्याम का इरादा बाबा साहब के बारे में छपे अन्य कार्टूनों को इस कमेटी की सौंपना था. इस क्रम में वे देश भर की लाइब्रेरी की खाक छानते रहे. कई स्थानों पर उन्होंने पुस्तकालयों के अधिकारियों को बताया कि वे गांधी के कार्टून ढूंढ रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने अनुभव से ऐसा समझ में आया कि बाबा साहब के कार्टून ढूंढने की बात करने से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है. आखिरकार उन्हें बाबा साहब के 112 कार्टून मिले, जो इस किताब में संकलित हैं.

इस किताब और इसमें छपे कार्टूनों को देखते ही पता चल जाता है कि उस समय का मीडिया बाबा साहब को लेकर कितना अनुदार और क्रूर था. कला और पत्रकारिता की मिली-जुली विधा के रूप में कार्टून का उद्देश्य समसामयिक घटनाओं पर टिप्पणी करना होता है. आजादी के आंदोलन के दौरान और उसके बाद तमाम नेताओं पर कार्टून बने. गांधी और नेहरू उनमें प्रमुख हैं. लेकिन बाकी नेताओं को कार्टूनिस्ट जिस नजर से देख रहे थे, वह दृष्टि बाबा साहब के मामले में बदली हुई नजर आई.

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बाबा साहब पर कार्टून बनने 1932 में शुरू हुए. ये भी एक दिलचस्प बात है कि बाबा साहब इससे पहले कई महत्वपूर्ण कार्य कर चुके थे और उनकी वजह से मीडिया में उनकी चर्चा होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उनका भारत में सार्वजनिक जीवन 1919 में शुरू हुआ. उसी समय उन्होंने अपना पहला अखबार मूकनायक निकाला. 1927 में वे प्रसिद्ध महाड़ सत्याग्रह कर चुके थे. ये आंदोलन उन्हें इसलिए करना पड़ा क्योंकि देश के कई हिस्सों की तरह महाराष्ट्र के कोंकण में सार्वजनिक तालाब में पानी पीने का अछूतों को हक नहीं था.


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इसी दौरान उन्होंने मनुस्मृति को सार्वजनिक रूप से जलाया था. उन्होंने 1930 में अछूतों के मंदिर प्रवेश के अधिकार के लिए नासिक के कालाराम मंदिर के सामने आंदोलन किया और जीत हासिल की. इसी दौरान वे राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने लंदन गए और दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग की और कहा कि अछूतों को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होना चाहिए.

इसके बाद तो मानों हंगामा हो गया. बाबा साहब पर हिंदू धर्म को तोड़ने के आरोप लगे. आंबेडकर के प्रस्ताव के खिलाफ गांधी आमरण अनशन पर बैठ गए और बाबा साहब को पूना पैक्ट के लिए मजबूर किया गया. यही वह समय है जब बाबा साहब पहली बार कार्टूनिस्टों की नजर में आते हैं.

इन कार्टूनों में बाबा साहब आम तौर पर बाकी सभी नेताओं की तुलना में छोटी कद के, अक्सर फ्रेम के किसी कोने में और कई बार काले और बेढब दिखाए गए हैं. कई बार उन्हें नीचा दिखाने के लिए उन्हें औरत की शक्ल में दिखाया गया, मानो औरत होना कोई घटिया बात हो. उन्हें कभी अंग्रेजों का सहयोगी, तो कभी राष्ट्रीय एकता को तोड़ने वाला बताया गया है. कार्टूनिस्टों की नजरों में वे स्वार्थी और आत्ममुग्ध दिखते हैं.

इन कार्टूनों में जातीय नफरत भी बार-बार झलक जाती है. खासकर कानून मंत्री रहते हुए जब बाबा साहब हिंदू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार दिलाने की बात करते हैं और पुरुषों के बहुविवाह पर पाबंदी लाने की कोशिश करते हैं तो उन्हें कई कार्टूनों में महिलाओं को पथभ्रष्ट करने वाला बताया जाता है. इस क्रम में आरएसएस की पत्रिका आर्गनाइजर का एक कार्टून (पेज-276) खास तौर पर जिक्र किए जाने लायक है. इस कार्टून में बाबा साहब एक हिंदू औरत का अपहरण करके भागते दिखाए गए हैं. वे एक खच्चर पर बैठे हैं और ये खच्चर एक खाई में गिरने जा रहा है.

दरअसल बाबा साहब को हमेशा इस बात का एहसास था कि मीडिया उनकी कैसी इमेज गढ़ रहा है. इसलिए जब उन्हें महादेव गोविंद राणाडे की 101वीं जयंती पर भाषण देने के लिए पुणे बुलाया गया था तो उन्होंने अपने प्रसिद्ध भाषण ‘गांधी, राणाडे और जिन्ना’ (1943) में कहा था कि “मैं कांग्रेस प्रेस को बहुत अच्छे से जानता हूं. मैं उनकी आलोचना की परवाह नहीं करता. उन्होंने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया. वे सिर्फ मेरी निंदा करना, मुझे फटकार लगाना और मेरी छवि खराब करना जानते हैं. मैं जो भी कहता हूं, उसे वे गलत तरीके से पेश करते हैं और उसका अर्थ बिगाड़ देते हैं. मेरे कुछ भी करने से कांग्रेस प्रेस खुश नहीं होगा.” बाबा साहब इसका कारण जातिवाद और अछूतों के प्रति कांग्रेस की भावना को मानते हैं.

बाबा साहब जिसे कांग्रेस प्रेस कह रहे थे, वही उस समय का राष्ट्रीय या मुख्यधारा का प्रेस था, जिसमें वे कार्टून छप रहे थे, जिसमें बाबा साहब का मजाक उड़ाया जा रहा था.


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इस जातिवादी मीडिया से मुकाबले के लिए और लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए बाबा साहब हमेशा अपना मीडिया खड़ा करना चाहते थे. इस क्रम में उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता, समता और प्रबुद्ध भारत जैसे अखबार निकाले. ये बात और है कि धन की कमी के कारण वे लंबे समय तक चल नहीं सके. लेकिन इससे ये तो समझ में आता है कि मुख्यधारा प्रेस पर बाबा साहब को भरोसा नहीं था.

जिन लोगों को लगता है कि वह तो पुरानी बात थी और अब मीडिया ऐसा नहीं है, उन्हें खासकर जाति के प्रश्न पर मीडिया का अभी का कवरेज देख लेना चाहिए. मिसाल के तौर पर, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन लागू किया, तो उनको विलेन बताते हुए काफी कवरेज हुई और ढेरों कार्टून बनाए गए, जिसमें स्पष्ट जातिवादी तेवर थे. इसी तरह जब 2006 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू किया तो उनके बारे में भी ऐसे ही कार्टून बने. इनके अलावा लालू प्रसाद यादव और मायावती मीडिया और कार्टूनिस्टों की इस मानसिकता की शिकार रही हैं.

मीडिया की भूमिका के बारे में बाबा साहब कहते हैं कि – ‘अगर प्रेस आपके हाथ में हो तो महान आदमी बनाए जा सकते हैं.’

उपर्युक्त किताब को पढ़ने से पता चलता है कि मीडिया और कार्टूनिस्ट सिर्फ महान आदमी नहीं बनाते, बल्कि किसी आदमी को लोगों की नजरों में गिराने की भी कोशिश कर सकते हैं. ये और बात है कि 70 साल पहले जिस आदमी को लोगों की नजरों में गिराने के लिए कार्टून बनाए गए, उसके सम्मान में एक ऐसी सरकार ने पंचतीर्थ बनाए हैं, जो बाबा साहब की विचारधारा का मन से सम्मान भी नहीं करती. अपने विरोधियों के बीच भी छा जाने की ताकत बाबा साहब के विचारों में है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख उनके निजी विचार हैं)

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