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Friday, 19 April, 2024
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ग्राम्शी, आंबेडकर और लालू: वंचितों की मुक्ति के प्रश्न से टकराती तीन शख्सियतें

ग्राम्शी इटली के वंचितों, गरीबों, सबऑल्टर्न के सवालों पर लगातार मुखर रहे और जेल में भी उनकी आवाज कमजोर नहीं पड़ी. उसी तरह लालू प्रसाद भी भारत में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के सवाल पर लगातार मुखर रहे हैं.

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यूं तो इन तीन किरदारों में पहली नजर में कोई समानता नजर नहीं आती. इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और विचारक तथा मुसोलिनी की हत्या के षड्यंत्र में सजायाफ्ता अंतोनियो ग्राम्शी, भारत में वंचितों के मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत और लोकतांत्रिक संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और कुछ लोगों की नजर में अंग्रेजों के समर्थक और जातिवादी बी.आर. आंबेडकर और  बिहार में पिछड़ों-दलितों के राजनीतिक उभार के नायक और चारा घोटाले के सजायाफ्ता मुजरिम लालू प्रसाद.

आंबेडकर और ग्राम्शी में फिर भी समानता के कई स्पष्ट बिंदु हैं, हालांकि दोनों कभी नहीं मिले और दोनों के लेखन से ऐसा नहीं लगता कि दोनों एक दूसरे को जानते थे या दोनों ने एक दूसरे को पढ़ा था. दोनों का जन्म एक ही साल 1891 में हुआ. पहले विश्वयुद्ध और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच की वैश्विक परिस्थितियों में दोनों ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण काम किए. दोनों को अपने जीवनकाल में कम मरने के बाद ज्यादा पढ़ा गया.


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ग्राम्शी और आंबेडकर के बीच समानता

ग्राम्शी और आंबेडकर के बीच समानता के बिंदुओं की तलाश के क्रम में 2010 में लंदन यूनिवर्सिटी में दुनिया भर के राजनीति विज्ञानियों, इतिहासकारों, नारीवादी लेखकों, फिलॉसफी के विद्वानों एक सेमिनार में शामिल हुए, जिसे स्कूल ऑफ अफ्रिकन एंड एशियन स्टडीज के प्रोफेसर कॉसिमो ज़ीन ने आयोजित किया. इस सेमिनार का विषय था – ग्राम्शी एंड आंबेडकर ऑन सबअल्टर्न एंड दलित.

इस दौरान पेश किए गए आलेखों को संकलित करके एक किताब छापी गई है, जिसका नाम है –पॉलिटिकल फिलॉसॉफीज ऑफ अंटोनियो ग्राम्शी एंड बी.आर. आंबेडकर: आइटिनररिज ऑफ दलित एंड सबाल्टर्न. इस किताब की प्रस्तावना लिखते हुए प्रोफेसर ज़ीन ग्राम्शी और आंबेडकर के बीच समानता के कुछ बिंदुओं की चर्चा करते हैं.

1. ग्राम्शी और आंबेडकर दोनों समकालीन थे और दोनों ने एक समान वैश्विक परिस्थितियों में अपने राजनीतिक विचारों को विकसित किया. इस दौरान अंतराष्ट्रीय कानून और लोकतंत्र के विकास को ध्यान में रखकर ही दोनों ने अपने समाधान प्रस्तुत किए.

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2. ग्राम्शी और आंबेडकर दोनों ने क्रमश: सबअल्टर्न यानी वंचितों और अछूतों की समस्यओं का न सिर्फ वैचारिक और सैद्धांतिक समाधान प्रस्तुत किया, बल्कि उस समाधान को व्यवहार जगत में लागू करने की कोशिश (प्रेक्सिस) भी की. दोनों कोरे सिद्धांतवादी नहीं, संगठक और आंदोलनकारी भी थे. दोनों ही वंचितों की मुक्ति में वंचितों की सक्रिय भूमिका देखते थे.

3. सबअल्टर्न यानी वंचितों की ऐतिहासिक/राजनीतिक भूमिका और नेताओं तथा बुद्धिजीवियों के कार्य ग्राम्शी और आंबेडकर दोनों के लिए महत्वूर्ण रहे.

4. दक्षिण एशिया में अछूत या दलितों की जो स्थिति है, वह वैसी ही है जिसका जिक्र इटली में रहते हुए ग्राम्शी सबऑल्टर्न की ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के बारे में करते हैं.

5. आंबेडकर जिस तरह से अछूतों के अनुभव और इतिहास के बारे में बात करते हैं, और इतिहास के भूले-बिखरे स्रोतों से एक समग्र ऐतिहासिकता की रचना करता हैं, वैसी ही कोशिश ग्राम्शी सबऑल्टर्न के बारे में करते हैं.

6. दक्षिण एशिया में अगर ग्राम्शी के वैचारिक असर की बात की जाए तो बेशक सबअल्टर्न स्टडीज ग्रुप जैसे प्रयोग हुए लेकिन वे अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाए, जिसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि उन्होंने अपने देश में मौजूद आंबेडकर और दूसरे दलित नेताओं के अनुभव जगत को नहीं समेटा, जबकि वे सबऑल्टर्न विचारों के सबसे बेहतरीन प्रस्तोता थे.

7. आंबेडकर अछूतों की मुक्ति के लिए जिस तरह से धर्म से टकराते हैं. मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन (1927) करते हैं और मंदिरों में प्रवेश का आंदोलन (1930) चलाते हैं, उसी तरह ग्राम्शी भी मानते हैं कि धर्म का राजनीति में कितना बड़ा स्थान है. ग्राम्शी की क्लचरल हेजेमनी यानी सांस्कृतिक वर्चस्व की थ्योरी आंबेडकर के लेखन में भी मिलती है. आंबेडकर बताते है कि जाति टिकी हुई है क्योंकि उसे धार्मिक मान्यता मिली हुई है. दोनों विचारक धर्म से टकराते हैं लेकिन राजनीति में धर्म के महत्व से इनकार नहीं करते.

वंचित जनता को शिक्षित करने, उनके बीच नेतृत्व पैदा करने, वैचारिकी और आंदोलन दोनों को साथ लेकर चलने आदि के बारे में ग्राम्शी और आंबेडकर में समानता के कई बिंदु हैं, जिन पर अकादमिक जगत में काफी काम हो चुका है और ढेर सारा काम हो रहा है.


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ग्राम्शी और लालूकितने पास?

क्या इनके बीच भी समानता का कोई बिंदु या कई बिंदु हैं?

लालू प्रसाद आधुनिक समय के एक नेता है. वे बिहार के कई बार मुख्यमंत्री रहे, भारत के रेल मंत्री रहे और इस समय बिहार की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी के नेता हैं. चारा घोटाले के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में उन्हें निचली अदालत से सजा हुई है और जमानत न मिल पाने के कारण वे जेल में हैं. उनकी उम्र 70 साल है और उन्हें अब तक 27 साल की सजा सुनाई जा चुकी है. सेहत बिगड़ने के कारण इन दिनों उन्हें रांची के एक सरकारी अस्पताल में रखा गया है, जहां वे हफ्ते में सिर्फ तीन लोगों से मिल सकते हैं. वे किससे मिल सकते हैं, यह जेल प्रशासन तय करता है. पिछले कई हफ्तों से वे अपने बेटे और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से नहीं मिल पाए हैं क्योंकि जेल प्रशासन ने इसकी इजाजत नहीं दी है.

अंतोनियो ग्राम्शी की कहानी थोड़ी पुरानी है. लालू यादव का जन्म (1948) में होने से पहले ग्राम्शी मर चुके (1937) थे. वे इटली के मार्क्सवादी दार्शनिक और इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे. उन्होंने अपने जीवन का लंबा समय जेल में बिताया. उन्हें इटली के शासक और तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी की हत्या की साजिश रचने का आरोप साबित होने के कारण 20 साल कैद की सजा सुनाई गई. इस केस की सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने कहा था कि – ‘इस खतरनाक दिमाग को 20 साल के लिए कैद कर देना चाहिए.’

जेल में रहने के दौरान ग्राम्शी ने तमाम जोखिम उठाकर भी जमकर लिखा और चोरी-छिपे उस लेखन को जेल से बाहर छपने के लिए भेजा. ये समकालीन घटनाओं के साथ ही समाज, राजनीति और इतिहास पर उनके विचार हैं. इन रचनाओं को प्रिजन नोटबुक नाम से छापा गया. इनका पहली बार इंग्लिश अनुवाद 70 के दशक में हुआ. मार्क्सवादी दार्शनिकों और विचारकों की लिस्ट में ग्राम्शी का नाम काफी आदर के साथ लिया जाता है. जेल में वे गंभीर रूप से बीमार हो गए. जब वे मरने को हो गए तो उन्हें अस्पताल में भेजा गया, जहां उनकी मृत्यु हो गई.

इस तरह से इटली के शासकों की ये मंशा तो पूरी हुई कि उन्हें मरते समय तक जेल में रखा जाए, लेकिन वे उस दिमाग को कैद नहीं कर पाए. प्रिजन नोटबुक इसका प्रमाण है.

तो इतिहास के अलग अलग कालखंड और भौगोलिक धरातल पर काफी दूर, लालू की जन्मभूमि छपरा और ग्राम्शी की जन्मभूमि सार्डिनिया में 7000 किलोमीटर का फासला है, मौजूद इन दो शख्सियतों में तुलना या समानता खोजने का आधार क्या है?

दोनों में कम से कम तीन ऐसी समानताएं हैं, जिनकी वजह से ये लेख लिखा जा रहा है.

सत्ता संरचना चाहती हैं कि ऐसे लोग जेल में रहें

पहली समानता तो ये कि जहां इटली की सरकार चाहती थी कि ग्राम्शी कम से कम 20 साल तक जेल के अंदर रहें, वहीं भारत की वर्तमान सरकार और सत्ता संरचनाएं चाहती है कि लालू प्रसाद कभी जेल से न छूटें. लालू प्रसाद यादव की अपील पर झारखंड हाई कोर्ट ने 14 नवंबर, 2014 को फैसला दिया था कि चूंकि लालू प्रसाद को चारा घोटाले के एक मामले में षड्यंत्र के आरोप में सजा हो चुकी है, इसलिए एक ही अपराध के लिए चारा घोटाले के बाकी केस में उनके खिलाफ षड्यंत्र का मुकदमा नहीं चल सकता. हाईकोर्ट ने उनकी दलील को सही मान कर फैसला दिया. इसके लिए आधार ये बना कि संविधान के अनुच्छेद 20(2) के तहत किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जा सकता लेकिन सीबीआई चाहती थी कि चारा घोटाले में हर जिले में हुई धन की निकासी को अलग मामला मानकर लालू प्रसाद पर मुकदमा चले. सीबीआई इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गई जहां अदालत ने लालू प्रसाद के खिलाफ फैसला दिया.

चूंकि चारा घोटाले में 50 से ज्यादा ट्रेजरी से पैसे निकाले गए और हर ट्रेजरी से पैसा निकालने को अलग षड्यंत्र माना गया है, इसलिए माना जा सकता है कि लालू प्रसाद को इतनी लंबी सजा हो जाएगी कि वे कभी जेल में बाहर नहीं आ पाएंगे. दिलचस्प है कि लालू यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप पहले निचली अदालत और फिर सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो चुका है. यानी सीबीआई ये साबित नहीं कर पाई है कि लालू प्रसाद रिश्वतखोरी के दोषी हैं. उन पर आपराधिक षड्यंत्र के ही मामले चल रहे हैं.


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वंचितों के हक में आवाज उठाने का अपराध  

दूसरी समानता ये है कि जहां ग्राम्शी इटली के वंचितों, गरीबों, सबाल्टर्न के सवालों पर लगातार मुखर रहते हैं और जेल में रहने पर भी उनकी आवाज कमजोर नहीं पड़ी. उसी तरह लालू प्रसाद भी भारत में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के सवाल पर लगातार मुखर रहे हैं और जेल जाने के बाद भी इन सवालों पर बोलना बंद नहीं करते. इतने सारे मुकदमों और कानूनी उलझन में फंसे होने के बावजूद लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म के सवालों पर बोलना बंद नहीं किया है. पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के आरक्षण के सवाल पर वे देश की सबसे मुखर आवाज हैं. इस वजह से वे सामाजिक और राजनीतिक सत्ता संरचना में किन शक्तियों को नाराज कर रहे हैं, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है.

वंचित पृष्ठभूमि से आने का अपराध

तीसरी समानता है कि ग्राम्शी और लालू यादव दोनों अपने देश के कम प्रिविलेज वाले यानी वंचित समुदायों के सदस्य हैं. ग्राम्शी के पिता का परिवार अलबानिया से रिफ्यूजी बनकर इटली आया और सार्डिनिया में बस गया. इटली के प्रभु वर्ग से उनका सामाजिक दर्जा काफी नीचा था. दक्षिण इटली को लेकर किस तरह की भावनाएं उत्तर इटली में फैलाई गई इसके बारे में ग्राम्शी अपने निबंध सदर्न क्वेश्चन में लिखते हैं, ‘ये बात सबको पता है कि झूठ फैलाने वाले लोग और बुर्जुआ यानी पूंजीपति दक्षिण इटली के बारे में क्या क्या कहते हैं कि दक्षिण इटली ने इटली के पांव में बेड़ियां बांध दी हैं, जिसकी वजह से इटली का सामाजिक और आर्थिक विकास नहीं हो रहा है, दक्षिण इटली के लोग जन्मजात हीन हैं, या तो प्राकृतिक रूप से जंगली हैं या फिर उनका जंगलीपन गया नहीं है, अगर दक्षिण इटली का विकास नहीं हुआ है, तो इसके लिए न तो पूंजीवादी व्यवस्था दोषी है और न ही इसका कोई ऐतिहासिक कारण है, इसका दोष प्रकृति पर है, जिसने उन्हें आलसी, असमर्थ, अपराधी और जंगली बनाया है. उनमें जो कुछ प्रतिभाशाली लोग हैं, वे अपवाद के तौर पर हैं.’

इटली के प्रभुवर्ग और सवर्णों के एक हिस्से में वंचितों के लिए समान भाव

क्या ग्राम्शी उत्तर इटली वालों के मन में इटली के दक्षिणी हिस्से और द्वीपों के लोगों के लिए जिस तरह की भावना होने की बात बता रहे हैं, वैसी ही भावना सवर्ण जातियों में ओबीसी और दलितों के लिए नहीं है? खासकर मेरिट के सवाल पर और कई बार आपराधिक मनोवृत्ति को लेकर भी ये कह दिया जाता है कि दलित-पिछड़े उच्च पदों पर इसलिए नहीं हैं क्योंकि उनमें मेरिट नहीं है. ये भी कहा जाता है कि वे आरक्षण की मलाई खाना चाहते हैं और इस वजह से मेहनत नहीं करते. जब कभी ये सवाल उठाया जाता है कि नीचे की जातियों के लोग जेलों में ज्यादा क्यों हैं तो इसका समाजशास्त्रीय या संरचनात्माक जवाब देने की जगह कह दिया जाता है कि वे अपराध ज्यादा करते हैं और उनमें आपराधिक मनोवृत्ति होती है, इसलिए वे जेलों में ज्यादा होते हैं.

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इस तरह से हम देख सकते हैं कि ग्राम्शी ने अपने जन्म के संयोग के बारे में जो कुछ अनुभव किया, वैसे ही अनुभव से लालू प्रसाद को भी गुजरना पड़ा है.

इस आधार पर ये कहा जा सकता है कि लालू और ग्राम्शी एक ही पथ के पथिक हैं. ग्राम्शी को उनके मरने के कई साल बाद यूरोप के सबसे प्रतिभाशाली दार्शनिकों में गिना गया. दुनिया भर के वामपंथी और प्रगतिशील लोग उनका लिखा हुआ पढ़ते हैं. आंबेडकर को भी अपने जीवन में भयानक अपमान झेलने पड़े. उन्हें अंग्रेजों का पक्षधर और झूठा मसीहा तक कहा गया लेकिन अब आंबेडकर सबसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेताओं में हैं. क्या लालू प्रसाद के साथ भी इतिहास न्याय करेगा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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