जंग का राजनीतिक-सामरिक लक्ष्य स्पष्ट हो जाने के बाद, साधन के बूते लक्ष्य हासिल करने की प्रक्रिया के तहत अगला कदम अपने साधनों का विश्लेषण करना होता है. ‘ग्रैंड’ रणनीति के स्तर पर, राजनीतिक और सामरिक लक्ष्यों को हासिल करने के दो रास्ते होते हैं. एक तो यह कि ‘एट्रीशन’ (यानी दुश्मन को धीरे धीरे चोट पहुंचाना) की रणनीति अपनाना; और दूसरे, ‘एनिहिलेशन’ (यानी दुश्मन को लगातार चोट पहुंचाना) की रणनीति अपनाना. कौन-सी रणनीति अपनानी है, यह तय करने के लिए सभी पहलुओं (युद्धक्षेत्र के स्वरूप, दुश्मन की ताकत आदि, और भू-राजनीतिक विकल्पों) का विस्तृत विश्लेषण जरूरी है.
‘एट्रीशन’ बनाम ‘एनिहिलेशन’
‘एनिहिलेशन’ की रणनीति के तहत आक्रमणकारी सेना का लक्ष्य दुश्मन सेना की सैन्य क्षमता को पूरी तरह नष्ट करना होता है. इस रणनीति में एक निर्णायक युद्ध, पूर्ण विनाशक युद्ध किया जाता है जिसमें दुश्मन को अपनी चाल से चकित करना, जबरदस्त ताकत का इस्तेमाल करना और दूसरे रणनीतिक उपाय करना शामिल होता है. इसका अंतिम लक्ष्य होता है दुश्मन सेना को आक्रामक या रक्षात्मक सैन्य कार्रवाई करने में बिलकुल अक्षम बना देना और उसके नेताओं को शांति के लिए अपील करने पर मजबूर करना.
प्राचीन काल में, लड़ाइयां प्रायः एक सेना के संहार के साथ ही खत्म होती थीं. इसके उल्लेखनीय उदाहरणों में कैन्ने का युद्ध (ईपू 216), ज़ामा का युद्ध (ईपू 202), और एड्रियानोपल कायुद्ध (378 ई) शामिल हैं. लेकिन पुनर्जागरण काल के बाद यूरोप में खासकर राष्ट्र-राज्य की स्थापना और वेस्टफालिया शांति समझौते (1648) के बाद इस रणनीति को त्याग दिया गया. वैसे, ऑस्टर्लिज़ (1805) और जेना (1806) में नेपोलियन बोनापार्ट की विजय को संहारक युद्ध का सटीक उदाहरण माना जाता है. नेपोलियन की चालों के कारण उसके दुश्मनों ने अदलबदल तो किए लेकिन उन चालों ने सैन्य सोच पर स्थायी प्रभाव डाला और युद्ध में निर्णायक नतीजे हासिल करने के महत्व को रेखांकित किया.
दूसरी ओर, ‘एट्रीशन’ की रणनीति में सैन्य लक्ष्य दुश्मन को सैनिकों, साधनों (साजोसामान और सप्लाई) और मनोबल के स्तर पर लगातार भारी नुकसान पहुंचाकर इतना थका देना होता है कि वह हिम्मत हार जाए. इसे दुश्मन सेना की आक्रामक या रक्षात्मक सैन्य कार्रवाई करने की क्षमता को धीरे-धीरे ध्वस्त करने की उग्र कोशिशों के रूप में परिभाषित किया जाता है.
थकाने की रणनीति वाले युद्ध में निर्णायक लड़ाइयों को छोड़कर कई तरह की लड़ाइयां शामिल हैं लेकिन इनमें फौरन जीत हासिल करने के लिए तूफानी ऑपरेशन या ताकत का केंद्रित इस्तेमाल शामिल नहीं है. जो पक्ष अपनी सेना को पहले मजबूती से आगे बढ़ता है वह हावी हो जाता है और दुश्मन को पस्त कर देता है. पिछड़ता पक्ष दुश्मन की बढ़त को बेअसर करने के लिए जानबूझकर थकाने वाली रणनीति अपना सकता है. जब यह रणनीति विरोधी सेना को काफी कमजोर कर देती है तब इसकी जगह दूसरी रणनीतियां अपनाई जा सकता हैं.
प्रथम विश्वयुद्ध के कमांडरों ने ‘एट्रीशन’ की रणनीति पर निष्प्रभावी रूप से भरोसा किया और कोई अहम रणनीतिक लाभ हासिल किए बिना कई सैनिकों को खो दिया. आज यूक्रेन में जारी युद्ध ‘एट्रीशन’ के उसी चरण में पहुंच गया है, जब दोनों पक्ष एक-दूसरे को पस्त कर देने के लिए थका देने वाली चाल चल रहे हैं. यह इस तथ्य से भी जाहिर है कि अमेरिका का व्यापक लक्ष्य यूक्रेन की आड़ लेकर रूस को कमजोर करना है.
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पस्त करने की रणनीति
‘एट्रीशन’ की रणनीति से ही निकलती है पस्त करने की रणनीति, और यह युद्धकौशल के मामले में एक दिलचस्प अवधारणा है. ‘एट्रीशन’ की रणनीति का लक्ष्य दुश्मन की लड़ने की ताकत को कमजोर करना है, तो पस्त करने की रणनीति में दुश्मन के लड़ाई लड़ने के मनोबल को तोड़ने पर ज़ोर दिया जाता है. इसका मकसद लड़ाई को अंतहीन या बेमानी बनाना है ताकि दुश्मन का मनोबल टूटे.
अक्सर ये दोनों रणनीतियां साथ-साथ लागू की जाती हैं. साजोसामान के मामले में दुश्मन की ताकत को ध्वस्त करने से उसका युद्ध जारी रखने का मनोबल भी कमजोर कर सकता है. वियतनामी नेता हो ची मिन ने पहले इंडो-चाइना युद्ध में पस्त करने की रणनीति लागू की थी. उन्होंने इंडो-चाइना पर फ्रांसीसी कब्जे को बेमानी कर दिया था, जिसके कारण वह दिएन बिएन फू की निर्णायक लड़ाई के बाद थककर लौट गया था.
पस्त करने की रणनीति के कई रूप हो सकते हैं. मसलन दुश्मन को अलगथलग करने के लिए नाकाबंदी करके उसकी सप्लाई लाइन को अस्त व्यस्त किया जा सकता है; किसी किलेबंदी के खिलाफ दबाव बनाने के लिए उसे अलग थलग करने के लिए उसकी घेराबंदी की जा सकती है; छापामार लड़ाई की तरह मारो और भागो की चाल के जरिए थकाया जा सकता है; हमलावर को जमीन या साधनों का लाभ उठाने से वंचित करने के लिए उन्हें नष्ट करने किया जा सकता है. ताइवान को चीन में शामिल करने की कोशिश में चीन नाकाबंदी की रणनीति अपना सकता है, जो कि उसके राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने का कम जोखिम और लागत वाला उपाय हो सकता है.
भारत के लिए सही रणनीति क्या ?
रणनीति का चुनाव भू-रणनीतिक जरूरतों और क्षेत्र की भौतिक भौगोलिक बनावट पर निर्भर होती है. लेकिन यह समझना जरूरी है कि थकाने और पस्त करने की रणनीतियों से देश की आबादी और आएथ्व्यवस्था पर भारी बोझ पड़ सकता है. इसलिए प्रायः यह सांस्कृतिक रूप से चुनौतीपूर्ण और आर्थिक दृष्टि से अव्यावहारिक साबित हो सकता है. इसलिए देश युद्ध में अपरिहार्य नुक़सानों और तकलीफ़ों से बचने के लिए आमतौर पर तेज, तीखे और निर्णायक अभियान को तरजीह देते हैं. लेकिन, अगर निर्णायक जीत नहीं हो पाती तो रणनीतियां बदलने का विकल्प हमेशा मौजूद रहता है, और लड़ाई लंबी चली तो यह आम तौर पर स्वीकृत है.
भारत को भी अपने हरेक विरोधी के हिसाब से अपनी रणनीति चुनने की जरूरत है. यह चयन इस पर भी निर्भर करेगा कि हमें किस विरोधी के लिए आक्रामक रणनीति अपनाने की जरूरत है और किसके लिए रक्षात्मक रणनीति.
साफ कहा जाए तो, हमारी उत्तरी सीमाओं का भूगोल रक्षात्मक अभियान के साथ ‘एट्रीशन’ की रणनीति की मांग करता है. लेकिन हमारी पश्चिमी सीमा का भूगोल और विरोधी सेना की तुलनात्मक ताकत के मद्देनजर ‘एनिहिलेशन’ की रणनीति बेहतर विकल्प है. इसका अर्थ यह नहीं है कि हम पूरी सीमा पर या तो रक्षात्मक या आक्रामक रुख अपनाएंगे, लेकिन यह कुल रणनीति पर निर्भर होगा. चाहे जो भी रणनीति अपनाई जाए, अंतिम लक्ष्य युद्ध जीतना ही होगा.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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