पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव, खासकर उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम, राष्ट्रीय राजनीति के लिए काफी महत्वपूर्ण होने जा रहा है. 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी इसकी छाया होगी. उत्तर प्रदेश न सिर्फ लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाला राज्य है, बल्कि उत्तर भारत और हिंदी भाषी राज्यों का मिजाज भी काफी हद तक यहीं से तय होता है. यहां के मुद्दे अक्सर राष्ट्रीय मुद्दे बन जाते हैं.
वर्तमान चुनाव के नतीजों से कुछ संकेत और प्रवृत्तियां उभरी हैं और कुछ प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं.
भारत बीजेपी केंद्रित राजनीति के दौर में है
ये सिर्फ लोकसभा और विधानसभा चुनाव जीतने की बात नहीं है. बीजेपी भारतीय राजनीति की धुरी बन चुकी है. उसी तरह जैसे 1919 में गांधी के रंगमंच पर आने के बाद से लेकर 1977 तक कांग्रेस भारतीय राजनीति की धुरी थी. उसके बाद बेशक कांग्रेस की अकेले दम पर सरकारें बनीं, लेकिन कुल मिलाकर राजनीति “मिली-जुली सरकारों” के दौर में दौर में चली गई. ये प्रवृत्ति 1989 के बाद और और मजबूत हुई और ये 2014 तक चला.
अब बीजेपी का दौर है.
राजनीतिक व्यवस्था की केंद्रीय पार्टी होने के कारण इस दौर में बीजेपी ही ज्यादातर मुद्दे तय करेगी और उसके तय किए सवालों के इर्द-गिर्द ही देश में ज्यादातर चर्चाएं होंगी. यूपी की जीत के बाद, बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मजबूत स्थिति में है.
एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी की बीजेपी सरकार, अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार से अलग है. वाजपेयी को एक मिलीजुली सरकार मिली थी, जिसमें बीजेपी अपने एजेंडे पर काम नहीं कर पाई. यहीं नहीं, वाजपेयी जब देश के प्रधानमंत्री थे, तब 2002 में बीजेपी यूपी का विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई थी और फिर 2017 तक सत्ता से लगातार बाहर रही थी. 2002 में बीजेपी को यूपी में लगभग 20% वोट मिले थे और सीटें घटकर 88 रह गई थीं. वहीं मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने यूपी में लगातार दो विधानसभा चुनाव बंपर बहुमत से जीते हैं.
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नया राष्ट्रीय विकल्प: आम आदमी पार्टी?
पंजाब के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की धुआंधार जीत इस 10 साल पुरानी पार्टी का सबसे ऊंचा मुकाम है. इस जीत में देश की राजनीति का चेहरा बदल देने की क्षमता है. आप बेशक दिल्ली में जीतती रही है, लेकिन दिल्ली सरकार आखिरकार एक अपेक्षाकृत प्रतिष्ठित नगर निगम की तरह ही है. यहां ज्यादा कुछ करने को होता नहीं है.
पंजाब में पहली बार अरविंद केजरीवाल के पास मौका है कि वे देश को बताएं कि उनका शासन का मॉडल क्या है. अगर केजरीवाल पंजाब में कुछ चमत्कारिक कर पाते हैं तो उनके पास वह मशीनरी और तंत्र है कि वे देश भर में इसका ढिंढोरा पीट लेंगे. आप के राष्ट्रीय होने का रास्ता पंजाब मुहैया करा सकता है. लेकिन यहां फेल होने का मतलब इस कहानी का अंत भी हो सकता है.
बहरहाल, आप के लिए अगली चुनौती इस साल के आखिर में होने वाला गुजरात विधानसभा चुनाव है. यहां अगर आप जीतती है या मुख्य विपक्षी दल भी बन जाती है तो उसका प्रभाव पूरे देश में बढ़ेगा. कांग्रेस के लिए इसके गंभीर मायने हैं.
कांग्रेस का संकट और बढ़ा है
कांग्रेस की दुर्दशा जारी है. पंजाब हाथ से निकल जाने के बाद राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही उसके मुख्यमंत्री हैं. इसके अलावा वह महाराष्ट्र, झारखंड और तमिलनाडु सरकार में जूनियर पार्टनर है. कांग्रेस ने इस बीच न सिर्फ अपना संगठन खोया है, बल्कि कांग्रेस के नेतृत्व की चमक भी फीकी पड़ी है. कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व और सेक्युलरिज्म के बीच झूल रही है और इसका वैचारिक आधार भी स्पष्ट नहीं है. जबकि सामने खड़ी बीजेपी की वैचारिक पोजिशन को लेकर किसी को कोई भ्रम नहीं है. कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है और पार्टी आंतरिक चुनाव नहीं करा पा रही है. ऐसी हालत में कांग्रेस की वापसी सिर्फ इसलिए नहीं हो जाएगी कि मोदी सरकार कभी न कभी तो कोई बड़ी गलती करेगी या एंटी इनकंबेंसी का बोझ बड़ा हो जाएगा.
इन चुनावों में कांग्रेस ने अपनी एक महत्वपूर्ण बंद मुट्ठी खोल दी है. ये जानते हुए कि यूपी में कांग्रेस कोई चमत्कार नहीं कर पाएगी, कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को यहां झोंक दिया. यूपी में कांग्रेस की तय हार का बोझ प्रियंका अब बिना वजह ढोएंगी.
कांग्रेस ने पंजाब चुनाव से ठीक पहले चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर दलित दांव चला था. ये दांव बेशक नहीं चला और इसकी कई वजहें है, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा करके दलितों के साथ तार जोड़ने की कोशिश की है. एक हार की वजह से कांग्रेस को ये कोशिश बंद नहीं करनी चाहिए. ये वो जगह है, जहां कांग्रेस के लिए संभावनाएं हैं.
ये देखना भी दिलचस्प होगा कि गुजरात और कर्नाटक के आगामी चुनाव में कांग्रेस कैसा करती है. ये दो जीत कांग्रेस में नया जान फूंक सकती है. या फिर उसकी दुर्गति की कहानी जारी रह सकती है.
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बीएसपी की नाकामी और विचारधारा का संकट
बहुजन समाज पार्टी का प्रदर्शन इस चुनाव में बेहद बुरा रहा. यूपी में उसे सिर्फ एक सीट मिली और पंजाब में अकाली दल के साथ गठबंधन का उसका प्रयोग फेल हो गया. 1984 में बनी बीएसपी को भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार माना जाता है क्योंकि साधारण पृष्ठभूमि से आने वाले मान्यवर कांशीराम ने देखते ही देखते इसे देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी में तब्दील कर दिया था और यूपी की सत्ता इस पार्टी के हाथ में आ गई थी.
लेकिन अब पार्टी लगातार ढलान पर है. 2007 का यूपी विधानसभा चुनाव आखिरी चुनाव है, जो इस पार्टी ने जीता है. उसके बाद के तीनों विधानसभा चुनाव और दो लोकसभा चुनाव में पार्टी का उतार पर होना नजर आ रहा है. 1989 के बाद, 2022 में पार्टी ने अपना सबसे कमजोर प्रदर्शन किया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन में बीएसपी ने लोकसभा की 10 सीटें जीती थीं, लेकिन फिर बीएसपी ने तय किया कि वह अकेली चलेगी. ये दांव उल्टा पड़ा.
चुनावी हार से परे एक सवाल ये भी है कि क्या बीएसपी की वैचारिक जमीन कायम है. बीएसपी ने बहुजन से सर्वजन की यात्रा की है और ये सफर 2007 तक कामयाब रहा. बीएसपी के राजनीतिक कार्यक्रम में ब्राह्मणों को जोड़ने पर बहुत ध्यान होता है. जब तक यूपी की राजनीति सपा-बसपा द्वंद्व पर चल रही थी, तब ब्राह्मण यहां या वहां होते थे. लेकिन 2014 के बाद ब्राह्मण बीजेपी में लौट गए हैं. ऐसे में ब्राह्मणों को लुभाने पर बीएसपी का ज्यादा जोर देना राजनीतिक परिणाम नहीं दे पा रहा है. इसके अलावा बीएसपी के लिए सांगठनिक चुनौती भी है और ये सवाल भी कि पार्टी क्या अगले चरण के लिए अपने नेतृत्व को तैयार कर रही है.
समाजवादी पार्टी और मुसलमान वोटर का सवाल
समाजवादी पार्टी ने यूपी में अपना प्रदर्शन बेहतर किया है. जैसा कि अखिलेश यादव ने खुद कहा है कि सपा के एमएलए की संख्या ढाई गुना हो गई है और उसका वोट प्रतिशत डेढ़ गुना हो गया है. लेकिन सपा और बीजेपी के बीच अब भी बड़ा फासला है. मायावती समेत कई राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि मुसलमान वोट का बड़ा हिस्सा सपा को गया है. ये सही हो सकता है. जनसंख्या के आधार पर यूपी के कुल वोटर का 19.3% मुसलमान हैं. लेकिन सपा की समस्या ये है कि मुसलमान वोटर उसे प्रमुख विपक्षी दल तो बना सकता है, लेकिन सत्ता तक पहुंचने के लिए उसे अभी ढेर सारा हिंदू वोट अपने पाले में लाना होगा. चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि सपा दलितों और ओबीसी के लिए जो ऑफर कर रही है, वह काफी नहीं है.
सपा ने आखिरी चुनाव 2012 में जीता है. लंबे समय तक चुनाव न जीतने पर पार्टी के खत्म हो जाने का खतरा होता है, जो बीएसपी के मामले में हो रहा है. इसलिए सपा और बसपा को अब एक बड़ी चुनावी जीत चाहिए. ये अखिलेश और मायावती के लिए अस्तित्व रक्षा का प्रश्न है.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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