अत्याधुनिक, टेक-सेवी कार्यस्थल की कल्पना करें तो हमारे दिमाग में क्या आता है? शर्तिया तौर पर संसद तो नहीं ही, जहां बेलगाम और संकीर्ण विचारों वाले सांसदों का शोरगुल छाया रहता है. लेकिन टेक्नोलॉजी में हालिया प्रगति, खासकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) ने उन्हें भी आकर्षित किया है. आप पूछ सकते हैं कि क्यों. एआइ आधारित टूल अनगिनत डेटा को छांटकर अलग-अलग कर सकता है, उसमें रुझान को पहचान कर नई सूचनाएं दे सकता है. इससे सांसदों को बड़े पैमाने पर लोगों से संवाद करने, विभिन्न मतों का विश्लेषण करने, सत्र और बैठकों में दूर से हिस्सा लेने और डिजिटाइजेशन के जरिए कागजी काम कम करने में मदद मिलती है.
इस मामले में भारत की स्थिति क्या है? डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट के तहत 2015 में शुरू हुए महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय ई-विधान (नेवा) प्रोजेक्ट की योजना के मुताबिक संसद-विधानमंडलों के डिजिटाइजेशन और सूचनाओं के विश्लेषण के लिए एआइ आधारित टूल का इस्तेमाल किया जाना है.
दूसरे देशों के अनुसंधानों के व्यवस्थित अध्ययन, गुण-दोष की जांच-परख से भारत को अपनी रूपरेखा तैयार करने में मदद मिल सकती है. दुनिया भर में कुछ प्रमुख अनुसंधानों और भारत में उनकी प्रासंगिकता के बारे में नीचे जानकारी दी गई है.
सूचना का डिजिटाइजेशन
डिजिटल डेटा डिपॉजिटरी की एआइ टेक्नोलॉजी में दरकार बेहद कम है. ज्यादातर देशों ने विधेयकों, सवालों, बहस और संसदीय कार्यवाहियों की ऐसी डिपाजिटरी बनाई हुई है. हमारी संसद के पास भी है, लेकिन अनेक राज्य विधानसभाएं और विधान परिषद इस मामले में पीछे हैं.
वर्चुअल संसद के प्रावधान
अब वर्चुअल या ई-संसद के विचार का वक्त आ गया है, खासकर कोविड-19 महामारी से इसमें तेजी आई है. ताजा वर्ल्ड ई-पार्लियामेंट रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 के अंत तक 65 प्रतिशत विधायिकाएं समितियों की वर्चुअल बैठकें और 33 प्रतिशत सत्र बैठकें कर रही थीं. हैरान करने वाली बात यह है कि इस मामले में सबसे चुस्त संसदें विकसित देशों की नहीं, बल्कि एस्टोनिया, नामीबिया और ब्राजील जैसे देशों की थीं. मोटे तौर पर हरियाणा के आकार के बेहद कम आबादी वाले इस्टोनिया को ई-पार्लियामेंट पर अमल में सबसे कुशल माना गया है.
भारत महामारी के दौरान इसको अपनाने से वंचित रहा. अब यहां विधायिकाओं के काम को सुचारू बनाने के लिए एक ऐप विकसित किया जा रहा है, जिसका पहला पायलट प्रोजेक्ट हिमाचल प्रदेश है.
सांसद-विधायकों को मदद
सांसद-विधायकों को अनेक तरह के विषयों से गुजरना पड़ता है. ज्यादातर परिपक्व लोकतंत्रों में भरी-पूरी लाइब्रेरियों के अलावा सांसद-विधायकों के लिए शोधकर्मी नियुक्त होते हैं.
कई संसद अब एआइ आधारित सहायकों पर प्रयोग कर रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका सांसदों की मदद के लिए चैटबोट के इस्तेमाल पर विचार कर हा है तो जापान में सांसदों को जवाब के लिए एआइ टूल के इस्तेमाल की तैयारी है. ऑस्ट्रिया में यूले मीडिया मॉनिटर सांसदों के लिए प्रासंगिक कंटेंट के बारे में सोचता, तलाशता और छांटता है. एस्टोनिया का एआइ आधारित बोली पहचानने वाला मददगार टूल एचएएनएस संसद के सत्र की सामग्री का ट्रांसक्राइब कर सकता है.
भारत निश्चित ही ऐसे अनुसंधानों से लाभान्वित हो सकता है क्योंकि सांसदों-विधायकों के पास संस्थागत शोध की मदद सीमित है. शोध के मामलों को संभालने वाले इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम से सांसदों और विधायकों के काम की गुणवत्ता काफी बढ़ सकती है.
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मतदाताओं से संपर्क
निर्वाचित प्रतिनिधियों को लोगों से संवाद कायम करने की दरकार पड़ी है और लोग भी उनसे संपर्क चाहते हैं. परंपरा से वे रैलियों, वाद-विवाद, सर्वेक्षणों और मीडिया के जरिए जमीन से जुडऩे की कोशिश करते हैं. लेकिन सांसद-विधायक तेजी से डिजिटल टूल की मदद ले रहे हैं. ब्राजील के चैंबर ऑफ डेपुटीज़ ने लोगों की भागीदारी और पारदर्शिता के लिए यूलीसेस जैसी मशीन लर्निंग सेवा विकसित की है. इसी तरह के टूल अमेरिका (पॉपवोक्स), फ्रांस (एसेंबल), और लक्ज़मबर्ग (माइंडूल) काम कर रहे हैं. उनके जरिए बड़ी संख्या में यूज़र गहमागहमी वाले सत्रों में हिस्सा लेते हैं. इन बहसों के विश्लेषण से साझा विचारों का अंदाजा लगाया जाता है या यह पता लगाया जाता है कि कौन-सा विचार लोकप्रिय है.
एआइ टूल सांसदों को बाखबर रहने में भी मदद करते हैं. बेल्जियम में फ्लेमिश स्क्रोलर्स उन नेताओं की पहचान करता है, जो बहस में दिलचस्पी नहीं लेते या कार्यवाही के दौरान फोन पर जुटे रहते हैं. वह इसे ट्विटर पर पोस्ट कर देता है और अमूमन संबंधित नेता को टैग कर देता है.
भारत के सांसदों को औसतन 15 लाख की आबादी के क्षेत्र से संपर्क करना पड़ता है. एआइ आधारित टूल उन्हें बड़े पैमाने पर वोटरों से संपर्क साधने और उनकी राय का विश्लेषण करने में मददगार हो सकता है. बेशक, लोग तो फ्लेमिश स्क्रोलर्स जैसे टूल का स्वागत करेंगे, जो सांसदों-विधायकों को सत्र के दौरान उंघते या पोर्न फिल्म देखते दिखा सकेंगे.
नीति-निर्माण प्रक्रिया
कुछ देश एआइ आधारित टूल के साथ विधेयकों के मसौदे तैयार करने और उसके एलगोरिद्म के जरिए उसकी संभावनाओं का पता लगाने के लिए प्रयोग कर रहे हैं. अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने विधेयकों, संशोधनों और कानूनों के बीच फर्क के विश्लेषण की प्रक्रिया को स्वचालित बनाने के लिए एआइ आधारित टूल का इस्तेमाल कर रही है. नीदरलैंड ने विधायी मसौदों के आकलन और यह जांचने के लिए एआइ आधारित टुल का इस्तेमाल किया कि मौसेदे में सभी जरूरी बातों का ख्याल रखा गया है या नहीं. एक टूल अब एकदम सटीक अंदाजा लगा सकता है कि अमेरिकी संसद में कौन-सा विधेयक पास होगा. विधेयक के कंटेंट और दर्जन भर बदलती स्थितियों के इस्तेमाल से एलगोरिद्म लगभग एकदम सही अंदाजा लगा लेता है कि विधेयक कानून बन पाएगा या नहीं.
भारत की पेचीदा नीति-निर्माण प्रक्रिया में कई आम फहम मगर उलझाऊ पहलुओं को भी स्वचालित किया जा सकता है. एआइ आधारित टूल भाषणों, विधेयकों, सवालों की काफी मात्रा को खंगाल कर रुझान बता सकता है. उसे विधेयकों के मसौदे तैयार करने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो फिलहाल बेहद लंबी और विचित्र प्रक्रिया है.
महामारी ने कई संसदों को कुछ कामकाज ऑनलाइन करने का मौका जुटा दिया. भारत उस दिशा में अपनी क्षमता विकसित कर रहा है तो उसे यह पता लगाने की जरूरत है कि किन मामलों में एआइ बेहतर कर सकता है और संबंधित टूल विकसित किए जाएं या मौजूदा से काम चलाया जाए. हालांकि एआइ आधारित नीति-निर्माण में पक्षपात, डेटा की गुणवत्ता और अस्पष्टता जैसी कमियों का भी ख्याल रखना चाहिए. अगर सरकार एआइ की ताकत का इस्तेमाल खुले, पारदर्शी और लोकहितैशी प्रक्रिया के साथ करना चाहे तो उससे देश के नीति-निर्माण में बड़ा बदलाव आ सकता है.
(कौशिकी सान्याल सुनय पॉलिसी एडवाइजरी प्राइवेट लिमिटेड की सीईओ तथा सह-संस्थापक हैं. वे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ऐंड इंडिया (ऑक्सफोर्ड इंडिया शॉर्ट इंट्रोडक्शन्स), 2020 की सह-लेखिका भी हैं. विचार निजी हैं.)
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