यह आशा नादानी ही होगी कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत और एयर चीफ मार्शल राकेश कुमार सिंह भदौरिया के बीच राजनैतिक रूप से प्रेरित थिएटर कमांड सिस्टम के निर्माण पर मचे सार्वजनिक विवाद से कुछ भी अच्छा होने वाला है. हालांकि पेशेवर रूप से होने वाली असहमति में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन उन्हें सार्वजनिक रूप से जाहिर करना सैन्य बलों के लोकाचार (ईथास) के लिए कतई स्वीकार्य नहीं है. इससे भी बुरी बात यह है कि यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति खतरा भयावह रूप धारण कर रहा है.
पूरी संभावना इस बात की है कि जनरल रावत और एसीएम भदौरिया दोनों को ‘शांत हो जाने’ के राजनीतिक संदेश मिल गए होंगे और हर कोई उम्मीद कर सकता है कि चीजें आसानी से सुलझ जाएंगी. इस सब से भारत की सैन्य छवि अस्थायी रूप खराब जरूर हो सकती है लेकिन अगर राजनीतिक नेतृत्व अपने अगले कुछ कदमों को समुचित रूप से और तेजी के साथ उठाये तो इस अप्रिय घटना से कुछ अच्छी चीजें भी सामने आ सकती हैं.
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सीडीएस कई भूमिकाओं के बोझ तले दबे हुए हैं
सबसे पहले यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना इन थिएटर कमांड के लिए आवश्यक बदलाव और प्रगति व्यावहारिक रूप से असंभव है. संक्षेप में कहें तो, सीडीएस-आईएएफ प्रमुख के इस विवाद में जनजातियों जैसी मूल प्रवृत्ति दिखती है, जिसमें अपने-अपने समूह के लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता उन व्यक्तियों की भावनाओं में पूरी गहराई से निहित है जो उस जनजाति से आते हैं. सीडीएस रावत के बयान से अत्यधिक संदिग्ध पेशेवर विचारों की झलक मिलती है- बशर्ते कि उन्होंने वह नहीं कहा जो उनका मतलब था अथवा उनका मतलब वह नहीं था जो उन्होंने कहा.
चिंता की बात यह भी है कि जब भारतीय वायुसेना की छवि धूमिल हो रही थी, तो भावनाओं को नियंत्रित करने और बंद दरवाजों के पीछे बैठ कर मुद्दे को सुलझाने के कोई प्रयास नहीं किये गए. ऐसा लगता है कि जनजातिवाद की मूल प्रवृत्ति के उछाल ने विवेक पर पर्दा डाल दिया था. हां, यह एक तरह की स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया थी, लेकिन निश्चित रूप से इसे निजी स्तर पर रखा जाना चाहिए था और इसके सार्वजनिक अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी.
भारत एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है और यह अपने शीर्ष सैन्य नेतृत्व को पेशेवर रवैये के ऐसे छिछले मानकों को प्रदर्शित करने अथवा ज्ञान को भावनाओं के आगे झुकने देने की इजाजत नहीं दे सकता. ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक नेतृत्व ने फैसला कर लिया है कि भारत के लोकतांत्रिक माहौल में इस में विवाद को भी सरल-सा मार्ग दे दिया जाए.
ऐसा लगता है कि जनरल रावत के ऊपर गलत तरीके से एक साथ तीन महती जिम्मेदारियों – सीडीएस, चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (पीसी-सीओएससी) के स्थायी अध्यक्ष और सैन्य मामलों के विभाग के प्रमुख- को थोप दिया गया है. रक्षा मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति में दी गई उनकी जिम्मेदारियों की सीमा चौंका देने वाली है और इस पद के लिए तीन साल की समय सीमा अवास्तविक सी लगती है. राजनीतिक नेतृत्व को इस पर ध्यान देना चाहिए और भविष्य के थिएटर कमांड सिस्टम की संरचना को स्वरूप देने की जिम्मेदारी को सीडीएस के ऊपर से स्थानांतरित कर देना चाहिए. जनरल रावत को अब वह मुख्य वास्तुकार नहीं बनाना चाहिए जो संरचनात्मक ढांचे की अवधारणा तैयार करता है और इसे आकार और स्वरूप देता है.
इसके बजाय, उन्हें ऐसा निर्माता की भूमिका में होना चाहिए जो विशेषज्ञों के एक समूह द्वारा व्यापक परामर्श के बाद बाह्य रूप से तैयार की गई और राजनीतिक रूप से अनुमोदित संरचना पर लिए गए निर्णयों की देखरेख, मार्गदर्शन और निष्पादन करता हो. यह अपने आप में चुनौतीपूर्ण कार्य हैं क्योंकि इन्हें तेजी से बढ़ते भू-राजनीतिक खतरों, वित्तीय तंगी, सशस्त्र बलों और मंत्रालयों के भीतर की आंतरिक असहमति के माहौल में किया जाना है. शुरुआत में, सीडीएस के लिए किसी प्रकार की परिचालन संबंधी भूमिका की कल्पना नहीं की गई थी, लेकिन व्याहारिक रूप से यह तब तक अपरिहार्य थी जब तक वह पीसी-सीओएससी की जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं.
न्यूक्लियर खतरों के साये के साथ किसी संघर्ष में, सीडीएस का राजनीतिक नेतृत्व के लिए आसानी से उपलब्ध होना तब तक संभव नहीं है, जब तक वह पीसी-सीओएससी भी है. रक्षा मंत्रालय के प्रेस नोट में विस्तार से लिखे गए सभी संयुक्त सैन्य बलों से सम्बंधित मुद्दों (जॉइंट सर्विस इश्यूज) के समन्वय के लिए एक अलग चार सितारा सैन्य अधिकारी को पीसी-सीओएससी के रूप में जिम्मेदार होना चाहिए. पीसी-सीओएससी को थिएटर कमांड में परिवर्तित होने की जटिल और लंबी प्रक्रिया पर पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिए. जनरल रावत के सामने मुख्य चुनौतियों में मूल रूप से एक साझा और सामूहिक आख्यान/ कथानक(नैरेटिव) के आधार पर सैन्य बलों के मध्य संयुक्तता को बढ़ावा देना शामिल होगा. अभी तो, तीनों सेवाओं में से प्रत्येक में एक दूसरे पर विश्वास में कमी और शत्रुता की उफान से भरी है.
‘श्रेष्ठता ‘ वाली मानसिकता से निपटना होगा
मौजूदा स्वभाविक/ नैसर्गिक (डिफ़ॉल्ट) मुद्रा के पीछे अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र के उन हिस्सों की रक्षा के प्रति गहरी संवेदनशीलता है, जिसे किसी अन्य सशस्त्र सेवा द्वारा अतिक्रमित किये जाने के खतरे में माना जाता है. यह दिखाई देता है कि सीडीएस ने थल सेना की ओर से श्रेष्ठता का दावा किया है, शायद इसलिए कि उनका मानना है कि अंततः यह सब किसी इलाके के नियंत्रण के बारे में है और इसलिए अन्य सशस्त्र सेवाएं थल सेना के कार्य को पूरा करने में उसे सक्षम बनाने के लिए ही काम करती हैं. इस मानसिकता को तत्काल त्यागने की जरूरत है. हमेशा की तरह, और विशेष रूप से इस सूचना युग में, यह सब कुछ धारणाओं के नियंत्रण के बारे में अधिक है, और कौन किसके समर्थन में काम करता है यह राजनीतिक, रणनीतिक और सामरिक संदर्भ के आधार पर निर्भर एक गतिशील अवधारणा है.
डेटेररेन्स, जो सभी तरह के सैन्य प्रयासों का प्राथमिक उद्देश्य है, पूरी तरह से एक दिमागी खेल होता है. बल प्रयोग के दौरान सैन्य उपकरणों का लचीला संयोजन सबसे बेहतरीन तरीके से तब संचालित होता है जब स्वामित्व की धारणा को एक अभिरक्षात्मक (कस्टोडियल) और साझा लोकाचार द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है.
ऐसा कुछ भी कूटनीतिक नहीं होता जिसमें सैन्य शक्ति किसी भी रूप में – चाहे वह वायु, समुद्र, भूमि, साइबर या अंतरिक्ष हो- अंतर्निहित है. चाहे वह रणनीतिक हो या सामरिक यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी विशेष संदर्भ में इसके उपयोग किए जाने पर किस तरह के प्रभाव उत्पन्न होते हैं. कोई भी सशस्त्र सेवा किसी दूसरे पर श्रेष्ठता का दावा नहीं कर सकती. उनकी प्रधानता अथवा महत्व सिर्फ और सिर्फ संदर्भ के आधार पर निर्धारित होता है. ऐसा लगता है कि भारतीय सैन्य नेतृत्व का उच्च क्रम इस सामान्य सत्य से चूक रहा है.
किसी भी नवनियुक्त पीसी-सीओएससी को पहले इस मनोवैज्ञानिक क्षति की भरपाई करनी होगी और फिर सेना को एक ऐसे सम्पूर्ण उपकरण के रूप में मानने के कहानी को आगे बढ़ाना होगा जो कि उसके हिस्सों के सकल योग से अधिक प्रभावकारी है. इस कहानी को इस विचार को बढ़ावा देना चाहिए कि सैन्य उपकरण किसी ऐसे ऑर्केस्ट्रा या म्यूजिक बैंड की तरह है जिसे सामने प्रस्तुत मिशन के आधार पर लचीले ढंग से इकट्ठा/संयोजित किया जा सकता है. इस कहानी को पहले शीर्ष नेतृत्व के आधार पर लागू किया जाना चाहिए और फिर व्यक्तिगत उदाहरणों के माध्यम से नीचे की ओर रिसने देना चाहिए तथा उन्हें संचार के अन्य रूपों से भी सम्पुष्ट किया जाना चाहिए. इसे प्रवेश के स्तर से ही पेशेवर सैन्य शिक्षा प्रणाली में शामिल किया जाना चाहिए.
लेकिन अभी तो मौजूदा शीर्ष स्तर के सैन्य नेतृत्व को ही इसकी बूस्टर खुराक मिलनी चाहिए, जिसके बारे में पीसी-सीओएससी को स्वयं पहल और निगरानी करनी चाहिए. जब पेशेवर तर्क वितर्क संयुक्तता की ओर उन्मुख होता है, तभी यह साथ काम करने/ सहक्रियात्मक (सिनर्जिस्टिक) प्रयासों को बढ़ावा दे सकता है. इनमें से कोई भी कार्य आसान नहीं होने वाला है, लेकिन पहले वरिष्ठ सैन्य नेतृत्व को पुन: उन्मुख (रेओरिएन्टेड) किए बिना, थिएटर कमांड सिस्टम के बारे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती.
भारतीय सेना में डर और उम्मीद
भारतीय सशस्त्र बलों में सुधार को कमजोर करने वाली अंतर्धाराओं में से एक थल सेना के वर्चस्व का डर है और साथ ही कुछ दो या तीन -सितारा रैंक के पदों के खोने की संभावना भी व्याप्त है. ऐसा लगता है कि सीडीएस थल सेना के लिए बोल रहे थे और भारतीय वायु सेना के एक सहायक बल के रूप में अवनति वाले बयान ने भारतीय वायुसेना की सबसे कमजोर नस को छू लिया है. इसने नौसेना के संदेह की भी पुष्टि की होगी. केवल एक नया पीसी-सीओएससी ही इस क्षति की भरपाई कर सकता है. इसमें न केवल काफी समय लगेगा, बल्कि लगातार देखभाल की भी आवश्यकता होगी.
विभिन्न प्रकार की नियुक्तियों के वितरण में असमानता का डर पूरी तरह से व्यक्तिगत स्वार्थों में डूबा हुआ है और इसे उन निर्णयों को बाधित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जो विशुद्ध रूप से पेशेवर अनिवार्यताओं पर आधारित होने चाहिए. हालांकि, चूंकि मानवीय महत्वाकांक्षाएं प्राकृतिक भावनाएं हैं जो पेशेवर रवैये के अंदरूनी हिस्से को भी सताती हैं, अतः यह आश्वासन कि कोई भी सशस्त्र सेवा अपने किसी भी स्वीकृत रैंक को नहीं खोएगी, इस तरह के डर को शांत कर सकता है.
वायु सेना प्रमुख का पेशेवर अंदाज तब प्रदर्शित हुआ जब उन्होंने यह आश्वासन दिया कि तमाम मतभेदों के बावजूद, थिएटर कमांड के निर्माण की दिशा में प्रयास जारी रहेंगे. तो अब भी उम्मीद है और शायद यह प्रकरण मानसिकता में बदलाव का अगुआ बन सकता है जो प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा संचालित इस प्रसंसनीय सुधार के सस्ते में प्रमुख बाधा बन हुआ है.
‘इंडिया’ज थिएटर कमांड सिस्टम प्रणाली: ए प्रपोजल’ शीर्षक वाले एक चर्चा वाले दस्तावेज़ में इस परिवर्तन काल में सैन्य नेतृत्व की भूमिका को इस लेखक द्वारा कुछ इस प्रकार वर्णित किया गया था, ‘सैन्य नेतृत्व को उस राजनीतिक दूरदर्शिता की बराबरी करने से भी अधिक आगे रहना होगा जिसने इन थिएटर कमांडों के निर्माण की अनुमति दी है. सशस्त्र सेवाओं के संकीर्णतावाद को एक संयुक्त सेवा दृष्टिकोण के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए. यह आसान नहीं होगा. थिएटर कमांड के रूप में परिवर्तन एक चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया होगी और इसके लिए मुख्य खतरा सशस्त्र बलों के भीतर से ही आएगा.’
अब यह खतरा सार्वजनिक रूप से सामने आ गया है. इस नाटक में शामिल अभिनेताओं को अब अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए या फिर उन्हें एक राजनीतिक फरमान के माध्यम से इसे बदलने के लिए कहा जाना चाहिए. यह फैसला राजनीतिक नेतृत्व को लेना है. लेकिन वे किसी भी तरह से सिर्फ आम दर्शक नहीं बने रह सकते हैं और यह विश्वास नहीं करते रह सकते कि असंतोष की यह हवा अपने आप थम जाएगी. इस तरह का विश्वास देश की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता है जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ वे ही दोषी होंगे.
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(लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश मेनन (सेवानिवृत्त), सामरिक अध्ययन कार्यक्रम, तक्षशिला संस्थान के निदेशक और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. वे @prakashmenon51 से ट्वीट करते हैं. प्रस्तुत विचार व्यक्तिगत हैं.)
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