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Monday, 20 May, 2024
होममत-विमतपार्टी प्रमुख के रूप में अमित शाह द्वारा भाजपा-आरएसएस के पाखंड को उजागर करना सबसे बड़ा योगदान था

पार्टी प्रमुख के रूप में अमित शाह द्वारा भाजपा-आरएसएस के पाखंड को उजागर करना सबसे बड़ा योगदान था

भाजपा की गौरव गाथा में मोदी ही मुख्य कारक रहे हैं, भले ही अमित शाह को चाणक्य बताया जाता हो. ऐसा लगता है कि इस बार चंद्रगुप्त की वजह से ही चाणक्य का नाम हुआ है.

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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में अमित शाह का सबसे बड़ा योगदान क्या है? अगले कुछ घंटों में उनके भाजपा अध्यक्ष का पद छोड़ने के बाद इस सवाल पर आने वाले दिनों और सप्ताहों में बहस जारी रहने वाली है. जाहिर है इसके कई जवाब आएंगे.

मेरे ख्याल से भाजपा में और भारतीय राजनीति में भी, उनका सबसे बड़ा योगदान है. राजनीतिक पाखंड पर हमला, भले ही ऐसा अनजाने में या गैर-इरादतन किया गया हो. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. क्या आप किसी भाजपा अध्यक्ष के बारे में सोच सकते हैं, जोकि भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का ‘राजनीतिक अंग’ बताएगा? आरएसएस का हमेशा से यही दावा रहा है कि उसका ‘राजनीति से कोई संबंध नहीं’ है, पर शाह ने अपनी खुद की वेबसाइट पर सच को उजागर करने का काम किया. इस पर कहा गया है कि 1980 के दशक में जब वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में हुआ करते थे तो उन्हीं दिनों ‘भाजपा का आरएसएस के राजनीतिक अंग के रूप में उदय हुआ…’

शाह अपनी स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते हैं. आपने उन्हें कभी भाजपा को ‘बाकियों से अलग तरह की पार्टी’ कहते सुना, जो कि उनके पूर्ववर्ती बड़े दंभ के साथ कहा करते थे? नहीं, क्योंकि शाह के लिए सत्ता हासिल करना ही एकमात्र लक्ष्य था और उन्होंने भाजपा अध्यक्ष के रूप में अपने साढ़े पांच वर्षों के कार्यकाल का हरेक पल इसी लक्ष्य में लगाया. यदि इसके लिए राज्यों की निर्वाचित सरकारों को गिराने में केंद्र सरकार की सहायता लेनी पड़ी हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करना पड़ा हो, तो ऐसा ही सही. यदि इसके लिए थोक भाव में विपक्षी नेताओं का दलबदल कराना पड़ा हो, याद करें अरुणाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने के लिए पेमा खांडू का 33 विधायकों समेत दलबदल करना या तटस्थ बैठे वोटरों के लिए कृत्रिम रूप से ‘भाजपा लहर’ निर्मित करना हो, तो यही सही.

‘धर्मनिरपेक्ष’ ब्रिगेड का पर्दाफाश

कहते हैं प्यार और युद्ध में सब जायज होता है. अमित शाह के लिए राजनीति भी युद्ध की तरह है जिसमें वो किसी बात से परहेज नहीं करते हैं. ऐसा नहीं है कि उनके पूर्ववर्तियों ने ये सोचकर ऐसा नहीं किया हो कि वे भाजपा को बाकियों से अलग पार्टी मानते थे. ऐसा भी नहीं है कि सत्ता हासिल करने और सत्ता में बने रहने के लिए वे कांग्रेस की हद तक नीचे गिरना नहीं चाहते थे. नहीं, अमित शाह के पूर्ववर्तियों के लिए ऐसा करना संभव ही नहीं था. उनमें शाह जैसी निडरता, जीवंतता और धृष्टता नहीं थी.

एक दौर ऐसा भी था जब भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू को डीपी यादव को उनके आपराधिक अतीत के कारण पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा था. पर शाह को 2014 में यादव के साथ हरियाणा में सार्वजनिक मंच साझा करने में कोई परेशानी नहीं हुई.

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असम के कांग्रेसी हिमंत बिस्वा सरमा पर भाजपा कभी भ्रष्टाचार के आरोप लगाती थी, पर जल्दी ही वह पूर्वोत्तर में शाह के विश्वस्त सहयोगी बन गए.


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कांग्रेस और अन्य पारंपरिक विपक्षी दलों के नेता शाह की सरासर ढीठ चालों से हैरान थे, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि शाह उन बातों को ताक पर रख देंगे, जिन्हें कि वे और भाजपा के पुराने नेता सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और ईमानदारी के गुण मानते थे. उनका सामना एक ऐसे व्यक्ति से था, जो सत्ता के खेल में उनकी मक्कारी और अनैतिकता के खिलाफ मक्कारी और अनैतिकता भरे दांव खेलने के लिए तैयार था.

कांग्रेस के लोग गुस्से और बेबसी में फट पड़े और उन्होंने शाह पर ‘सांप्रदायिक एजेंडा’ चलाने का आरोप लगाया, पर वे मुसलमानों के समर्थन में सामने नहीं आए. शाह के आक्रामक और बेलाग हिंदुत्व की मार मुसलमानों और कथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ ब्रिगेड दोनों पर ही पड़ी.

जब भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुसलमानों का साथ देने दिल्ली की जामा मस्जिद पर आए तो ये ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल गुस्से, हताशा और बेबसी में दांत पीस रहे थे. शाह कितना भी चाहते हों, पर ये दल आज़ाद का साथ नहीं दे सकते थे.

आज़ाद मुस्लिम वोटों के नए दावेदार के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे थे और धर्मनिरपेक्ष गुट को इस पर चिढ़ मचनी ही थी, जब प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ज़्यादती के शिकार लोगों से मिलने गईं, तो उनके साथ टीकाधारी ब्राह्मण मौजूद थे. शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के बीच आपने किसी प्रमुख नेता को देखा है? अमित शाह को ‘धर्मनिरपेक्ष’ ब्रिगेड के पाखंड को उजागर करने का श्रेय मिलना चाहिए, जो इस दुविधा में पड़े हैं कि टीका धारण किया जाए या मुसलमानी टोपी पहनी जाए. अपनी इस दुविधा के लिए वे शाह को जितना कोसते हैं, शाह को उतना ही बढ़िया महसूस होता है. उनकी वेबसाइट पर जाकर देखिए. वहां खबरों की उन कतरनों को भी गर्व के साथ प्रदर्शित किया गया है जिसे किसी सामान्य नेता ने फाड़कर फेंक दिया होता.

अजेय से कागज़ी शेर तक का सफर

शाह ने भाजपा का ‘कांग्रेसीकरण’ भी किया है. हाइकमान संस्कृति, जन नेताओं को कमजोर किया जाना, पूर्व मुख्यमंत्रियों वसुंधरा राजे, शिवराज चौहान और रमन सिंह का हाल देखें, औसत दर्जे के दिल्ली दरबार वाले नेताओं को बढ़ावा देना, चाटुकारिता की संस्कृति, आंतरिक लोकतंत्र का अभाव, पार्टी में निष्ठा के ऊपर सर्वोच्च नेता के प्रति निष्ठा को तरजीह, आदि-आदि. पर, इनके बारे में कोई शिकायत कर रहा है?

भाजपा में शाह के तमाम योगदानों की चर्चा इस लेख के दायरे में संभव नहीं है, पर उनके कार्यकाल का विश्लेषण उस मुद्दे के जिक्र के बगैर पूरा नहीं हो सकता. जो कि सबके सामने है पर जिस पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता.

यदि आप ‘चाणक्य+अमित शाह’ गूगल करें तो आपको 6,00,000 से भी अधिक परिणाम मिलेंगे. इससे जाहिर है कि राजनीतिक रणनीतिकार की उनकी ‘प्रतिभा’ को लेकर कितनी ज़्यादा बहस होती रही है. लेकिन यदि हम उन्हें चाणक्य मानते हैं, तो फिर चंद्रगुप्त कौन है—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी? क्या मोदी को सबकुछ शाह के कारण ही हासिल हुआ है जिनको कि उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव का ‘मैन ऑफ द मैच’ घोषित किया था?

जब 2014 में भाजपा को केंद्र की सत्ता मिली तो ’मोदी लहर’ को एक निर्णायक कारक के रूप में देखा गया और साथ ही मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ भारी एंटी-इनकंबेंसी भी एक प्रमुख वजह मानी गई. चुनावी रणनीतिकार के रूप में शाह की ‘प्रतिभा’ का डंका बजना तब शुरू हुआ जब भाजपा एक-एक कर विधानसभा चुनाव जीतने लगी और भाजपा शासित राज्यों की संख्या मई 2014 के 7 से बढ़कर 2018 के मध्य तक 21 हो गई.


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शाह की अगुआई में भाजपा अजेय मानी जाने लगी थी. हालांकि, ज़मीनी रिपोर्टों से यही संकेत मिल रहा था कि ‘मोदी लहर’- प्रधानमंत्री को अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों के जरिए राज्यों में शासन के लिए जनादेश देने की जनता की आकांक्षा, अभी खत्म नहीं हुई थी. शाह को भाजपा को एक अदम्य चुनावी मशीन बनाने का श्रेय मिला.

पिछले साल भर में भाजपा के हाथ से पांच राज्यों के निकलने के बाद शाह के इर्द-गिर्द बनी शीर्ष रणनीतिकार की अजेयता वाली आभा मंद पड़ती जा रही है. बहुप्रचारित बूथ स्तर के कार्यकर्ता और पन्ना-प्रमुख भी कागज़ी शेर साबित हो रहे हैं.

अमित शाह को विभिन्न गठबंधनों के जरिए ओबीसी और दलित वोटरों को अपने पाले में लाकर भाजपा की ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि बदलने का भी श्रेय दिया गया था, पर हाल के विधानसभा चुनावों में नवागंतुकों में से अधिकांश गायब दिखे. जैसा कि 2019 के लोकसभा चुनावों में देखा गया, मोदी की लोकप्रियता अब भी बरकरार है, पर भाजपा के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती है.

भाजपा की गौरव गाथा में जाहिर तौर पर मोदी ही मुख्य कारक रहे हैं. जब आधुनिक भारतीय राजनीति का इतिहास लिखा जाएगा, तो चंद्रगुप्त को चाणक्य को प्रसिद्धि दिलाने का श्रेय मिलेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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