‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए अमेरिकी रणनीतिक ढांचा’ नामक एक गोपनीय दस्तावेज़ 2018 का है, जो तीन साल तक अमेरिकी नीति का दिशासूचक बना रहा. यह एक ऐसा दस्तावेज़ है जिसे भारत के नीति निर्माता कृतज्ञता के भाव से याद रखेंगे. भारत इसलिए भी शुक्रगुजार हो सकता है कि इस दस्तावेज़ को सार्वजनिक कर दिया गया है, क्योंकि इसका अर्थ यह है कि नये राष्ट्रपति जो बाइडन की सरकार के लिए इसमें किए गए वादों से पीछे हटना आसान नहीं होगा. इसके पीछे ट्रंप सरकार की जो भी मंशा रही हो, 25 साल की जगह तीन साल में ही इस तरह के दस्तावेज़ को सार्वजनिक करना काफी असामान्य बात है. ट्रंप की विदाई की अफरातफरी का फायदा उठाकर लगता है किसी ने इस दस्तावेज़ को गोपनीय न रहने देने और इस पर चर्चा करवाने का फैसला कर लिया.
सैन्य विकल्पों के संकेत
यह दरअसल सैन्य कार्रवाई संबंधी नीतिगत दस्तावेजों में से एक है, जो व्यापक रणनीति तय करने वाली ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति 2017’ (एनएसएस) के बाद आए. एनएसएस में चीन का 33 बार जिक्र आया है लेकिन उक्त दस्तावेज़ में कहीं यह नहीं कहा गया है कि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व या विश्व में अमेरिकी हितों के लिए खतरा है. यह दस्तावेज़ अनुमान लगाता है कि अमेरिका और चीन के बीच ‘रणनीतिक होड़’ जारी रहेगी, क्योंकि दोनों की व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न हैं और लक्ष्य एक-दूसरे के विपरीत हैं.
एनएसएस में तो बड़े पवित्र भाव से यह कहा गया है कि ‘होड़ का हमेशा मतलब दुश्मनी ही नहीं होता है, न ही टकराव होता है’, लेकिन एनएसएस के विपरीत उक्त दस्तावेज़ में टकराव के मुद्दों की पहचान की गई है, जिनमें चीन द्वारा ताइवान को अपने में मिलाने के प्रयासों से भी टकराव की संभावना बताई गई है. इसमें उस रक्षा रणनीति की भी पहचान की गई है जो उस द्वीप शृंखला के बाहर के सभी क्षेत्रों पर अमेरिकी सुरक्षा और वर्चस्व के साथ चीन को बढ़त लेने से रोकने की उसकी क्षमता बढ़ाएगी और ‘इतने तक सीमित नहीं रहेगी’. ये जोरदार लक्ष्य हैं, खासकर इसलिए कि मुख्य बात, यानी युद्ध और परमाणु विकल्प के इस्तेमाल का खुलासा नहीं किया गया है. इस सबके विपरीत, यह दस्तावेज़ ‘अमेरिकी हितों’ की खातिर चीन से सहयोग करने की बात भी करता है. बाइडेन की टीम भी यही कह रही है. लेकिन यह इरादा इतने सारे इरादों से घिरा है कि वाणिज्य के मामले में चीन के प्रलोभनों के आगे अमेरिका के यों ही झुक जाने की आशंकाएं दूर हो जाती हैं. इन इरादों में ये शामिल हैं— चीन के ऊपर ‘खुफिया मामलों’ बढ़त बनाए रखना, चीन की खुफियागीरी से होमलैंड के साथ-साथ मित्रों और सहयोगियों को ‘निरापद’ बनाए रखना.
यह भी पढ़ें: पाकिस्तान की बदहाल अर्थव्यवस्था और आंतरिक असंतोष के बावजूद, भारत को समझना होगा कि शायद ही 2021 में वो बाज आए
अहम भारतीय पहलू
इस दस्तावेज़ का सबसे हैरतअंगेज़, और यह केवल भारतीयों के लिए नहीं है, पहलू यह है कि इस ‘ग्रांड प्लान’ में भारत को केंद्रीय महत्व दिया गया है. याद रहे कि एनएसएस में भारत का केवल तीन बार जिक्र किया गया है और वह भी पाकिस्तान के साथ जोड़ कर. लेकिन ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए अमेरिकी रणनीतिक ढांचा’ नामक दस्तावेज़ में भारत पर पूरा एक अध्याय ही है जिसमें पाकिस्तान का कोई जिक्र नहीं है यह दस्तावेज़ पिछले तीन साल की लगभग कहानी बताता है. इसमें ‘क्वाड’ (बीएचएआरएटी, जेएपीएएन, ऑएसटीआरईएलआईए, अमेरिका के बीच सुरक्षा वार्ता) को ऊंची अहमियत देने की बात की गई है, जो बाद में दी भी गई. रक्षा के मामले में सहयोग और सहभागिता के लिए मजबूत आधार तैयार करने की बात की गई है, जो तीन ‘फाउंडेशनल एग्रीमेंट’ के रूप में सामने आए. विदेश मंत्रालय में हिंद-प्रशांत विंग और ‘ओशनिया विंग’ गठित करने का भी जिक्र है. तीनों सेनाओं के संयुक्त अभ्यासों आदी कै चीजों का भी इस दस्तावेज़ में जिक्र किया गया.
इसके अलावा, एक आकलन यह भी किया गया है कि ‘एक मजबूत भारत और समान विचार वाले देशों के बीच सहयोग चीन के मामले में संतुलन बनाने में मदद करेगा’. पता नहीं यह बात चीन को भी पता लगी या नहीं, कि उसने उसे लद्दाख की गलवान घाटी में अचानक हमला करने के कई बहानों में से एक बहाना जुटा दिया हो.
एक रहस्यमय बात भी है इस दस्तावेज़ में. कहा गया है कि अमेरिका भारत को चीन के साथ सीमा विवाद जैसी ‘महती चुनौतियों’ का सामना करने में कूटनीतिक, सैन्य और खुफिया स्तरों पर मदद करेगा. अगर यह वादा सचमुच पूरा किया गया होता, तो इतना ही कहा जा सकता है कि भारत और अमेरिका ने अपनी क्षमताओं में इजाफा किया होता, क्योंकि ऐसा लगता है कि दोनों को यह उम्मीद नहीं थी कि चीन हमला करेगा. अंततः, गलवान हमला सैन्य, कूटनीतिक या खुफिया मामलों में विफलता का मामला नहीं है, या आकलन में विफलता का मामला है. शायद दोनों देशों को दिल से आपसी सहयोग बढ़ाने और प्रोफेशनलों के साथ बैठकर इस बारे में फैसले करने की जरूरत है.
यह भी पढ़ें: अफगानिस्तान में चीन या तो खुफियागीरी से बाज आए या वहां शर्मसार होने के लिए तैयार रहे
पड़ोस और उससे आगे
दस्तावेज में एक विसंगति साफ दिखती है. भारत को ‘सुरक्षा का आधार’ घोषित करने के बाद दस्तावेज़ के अगले भाग में मालदीव, बांग्लादेश, और श्रीलंका की ‘क्षमता को मजबूत’ करने की बात की गई है. इसके बाद अमेरिका ने मालदीव से ‘रक्षा समझौता’ किया, बांग्लादेश को रक्षा साजोसामान बेचने वाला है. इस सौदे में अपाशे हेलिकॉप्टर की बिक्री भी शामिल है, जिसका ढांचा हैदराबाद में बनाया जा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि यह त्रिपक्षीय रक्षा संबंध होगा जो चीन को पछाड़ेगा.
श्रीलंका के साथ, तमाम विरोधों के बावजूद, ‘एसीएसए’ (एक्वीजीशन ऐंड क्रॉस सर्विसिंग एग्रीमेंट) के नवीकरण और ‘स्टेटस ऑफ फोर्सेस एग्रीमेंट’ पर बात आगे बढ़ाई गई है. ऐसा लगता है कि भारत अपने पड़ोस में चीन के बढ़ते प्रभाव के बावजूद अमेरिका को कुछ छूट देने को तैयार है, जो कि एक दशक पहले की स्थिति से बिलकुल उलटी बात है.
अमेरिका जबकि भारत के पारंपरिक ‘प्रभाव क्षेत्र’ में प्रवेश कर रहा है, भू-राजनीति में एक और बदलाव मुमकिन है. इस दस्तावेज़ में इस बात का विशेष उल्लेख किया गया है कि रूस इस क्षेत्र में ‘हल्का खिलाड़ी’ बना रहेगा. इस लिहाज से, ‘सीएएटीएसए’ (अमेरिकी प्रतिद्वंद्वियों से प्रतिबंधों के जरिए निबटने के कानून) को लेकर विवाद को परे कर देना होगा, क्योंकि प्रस्तावित प्रतिबंध संबंधों को कई साल पीछे धकेल देंगे. इसकी जगह रूस को चुनिन्दा ‘क्वाड’ देशों के साथ सैन्य अभ्यासों में शामिल किया जा सकता है. तब भारत अमेरिका और रूस के बीच पुल का काम कर सकता है. यह कोई बहुत बड़ी अपेक्षा नहीं है. बस सामान्य बुद्धि की बात है.
चीन की ‘रक्षात्मक प्रतिरक्षा’
इस बीच, बीजिंग में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लीजियन ने उक्त दस्तावेज़ को ‘इतिहास के कूड़ेदान’ में डालने लायक बताते हुए अमेरिका पर चीन के खिलाफ ‘गिरोहबंदी’ करने का आरोप लगाया. उन्होंने यह भी कहा कि ताइवान चीनी भूभाग का अभिन्न हिस्सा है, और सीधे-सीधे यह भी कहा कि चीन के पास ‘रक्षात्मक’ प्रतिरक्षा नीति है जिसकी तस्दीक इस क्षेत्र के देश भी करेंगे.
अब यह कहना मुश्किल है कि यह खुद को मुगालते में रखने वाली बात है या महज दोहरापन, लेकिन झाओ ने ‘शीतयुद्ध के हार-जीत वाले बेमानी खेल’ को खत्म करने की जो बात की वह अमेरिका और यूरोप के घबराए हुए व्यावसायिक घरानों में भी प्रतिध्वनित हो सकती है. लेकिन सच्चाई यह है कि उक्त दस्तावेज़ वास्तविकता को सामने लाता है. मजबूत होता चीन अंततः अमेरिका के लिए जल्द ही कहीं-न-कहीं चुनौती बनेगा और भारत ही एक देश है जो अपने कंधों से उसे ओट दे सकता है. इसलिए अगली सरकार के लिए सबसे बेहतर सलाह यही है कि वह ‘इस सबका आदी हो जाए’. आखिर, उक्त दस्तावेज़ को शायद इसी मकसद से सार्वजनिक किया गया है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
य़ह भी पढ़ें: अमेरिका चाहता है कि भारत चीन पर तटस्थता छोड़ दे लेकिन क्यूबा संकट का सबक भूल जाता है