भारत पड़ोसी पाकिस्तान में पहली बार बिना युद्ध के हवाई हमला करने का जयघोष कर रहा है. यह कार्रवाई जम्मू कश्मीर में हुए आत्मघाती हमले की प्रतिक्रिया में की गई, जिसमें कि भारतीय सुरक्षा बल के 40 जवानों की मौत हो गई थी. भारतीय अधिकारियों का कहना है कि मंगलवार तड़के हुए हवाई हमले में 300 आतंकी मारे गए और कश्मीर के आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी उठाने वाले जैश-ए-मोहम्मद के ‘सबसे बड़े ट्रेनिंग कैम्प’ को नष्ट कर दिया गया.
सत्तारूढ़ पार्टी के पदाधिकारी ‘नए भारत’ द्वारा की गई ‘निर्णायक’ कार्रवाई की शेखी बघार रहे हैं. अखबार और टीवी नेटवर्क देशभक्तिपूर्ण उत्तेजक सुर्खियां लगा रहे हैं और ऐसे संकेत दे रहे हैं मानों पाकिस्तान को कभी न भूलने वाला पाठ पढ़ाया जा चुका है. एक बर्गर कंपनी इस खुशी में ‘#SorryNotSorry’ हैशटैग के तहत अपनी दुकानों में 20 प्रतिशत छूट दे रही है.
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पाकिस्तान दावा कर रहा है कि भारतीय बम एक पहाड़ी की वीरान चोटी के अलावा और किसी चीज़ को निशाना नहीं बना पाए और इसकी पुष्टि के लिए उस जगह पत्रकारों को ले जाने का भी वादा किया है. भले ही भारतीय दावे में कुछ सच्चाई हो, और भले ही दोनों पक्ष किसी तरह शत्रुता को बढ़ने नहीं देने में कामयाब हो जाते हैं, पर हवाई हमले को एक अस्थाई जीत से अधिक मानना मुश्किल है. इससे न तो कश्मीर में भावी हमलों पर रोक लगने, न ही आगे और अधिक रोमांचक जवाबी कार्रवाई की आवश्यकता या दो परमाणु ताकतों के बीच भीषण टकराव का खतरा समाप्त होने के आसार हैं.
यह कोई नई दुविधा नहीं है. भारत और पाकिस्तान के बीच पहली लड़ाई कश्मीर के विवादित क्षेत्र को लेकर हुई थी, जब 1947 में आज़ादी के वक्त इस मुस्लिम-बहुल क्षेत्र के हिंदू शासक ने भारत में मिलने का फैसला किया, और पाकिस्तान समर्थित कबाइलियों ने उनके राज्य के पश्चिमी तिहाई हिस्से पर कब्जा कर लिया. उस साल के अंत में परेशान भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन ‘शिविरों और साज़िश के केंद्रों’ को मटियामेट करने के लिए भारतीय फौज को सीमा पार भेजने की धमकी दी थी, जहां कि कथित रूप से उग्रवादियों को प्रशिक्षण और साजो-सामान दिए जा रहे थे.
इस विवाद के समूल और त्वरित सैन्य समाधान की फंतासी पिछले सात दशकों में बढ़ी ही है. हालांकि, ऐसे समाधान का विकल्प न तो तब था, और न ही अब है. दंडात्मक हमले या परोक्ष कार्रवाइयों से रणनीतिक जीत मिल भी सकती है. पर, पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर की ‘मुक्ति’ को राष्ट्र के मुख्य लक्ष्यों में से एक घोषित कर रखा है; वह भारत की बदले की कार्रवाई के डर से जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठनों का समर्थन करना बंद नहीं कर सकती, खास कर जब इसे युद्ध की कार्रवाई नहीं माना जाता हो.
सफल हमलों के लिए भारत को अतीत के स्तर से बेहतर खुफिया जानकारियों के साथ-साथ निशाना बनाए जा सकने लायक लक्ष्यों की दरकार होगी. उग्रवादियों के पास व्यापक ढांचागत सुविधाएं होने की उम्मीद नहीं की जाती है; इसलिए भारत के इस दावे को थोड़ा संशय से देखे जाने की ज़रूरत है कि सैंकड़ो आतंकी बालाकोट के पास एक ‘फाइव स्टार’ ट्रेनिंग कैम्प (स्विमिंग पूल की सुविधा वाला!) में एकत्रित हुए थे.
आतंकवादी गुटों के सरगनाओं को निशाना बनाने के लिए पाकिस्तान के बहुत भीतर हमले करने की ज़रूरत होगी, जहां कि वे खुलेआम घूमते हैं. और, भले ही साधनों के हिसाब से ऐसा करना संभव हो और यह असहनीय रूप से अस्थिरकारी नहीं हो, आतंकी सरगनाओं का खात्मा हमले बंद होने की गारंटी नहीं बनता, जिसकी इज़रायल और अमेरिका ताकीद कर सकते हैं.
साथ ही, एक कामयाब हमला भी भारत के लिए एक तरह से दुविधापूर्ण है. सफलता का शोर मचाना एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है— और यहां तो इसे एक उन्मादी राष्ट्रवादी मीडिया का समर्थन प्राप्त है, जिसे तुष्ट नहीं करना किसी भी भारतीय नेता के लिए आसान नहीं होगा. इधर जितने बड़े दावे किए जाएंगे, पाकिस्तान के पास अपना सम्मान बचाए रखने लायक खंडन के मौके – जो कि दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच तनाव को कम कर सके– उतने ही कम हो जाएंगे.
संभव है इस बार स्थिति संभाल ली जाए. भारत ने अपने सर्वाधिक चौंकाने वाले दावे चुपके से लीक किए हैं और वो भी पृष्ठभूमि में न कि आधिकारिक तौर पर, जबकि पाकिस्तान का कहना है कि भारतीय विमान कोई वास्तविक नुकसान कर पाते उससे पहले ही उन्हें खदेड़ दिया गया. संभव है, 2016 के आतंकी हमले के बाद जैसे पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में घुसकर भारत ने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ किया था, उसी तरह आखिरकार दोनों असहमत होने पर सहमत हो जाएं. हालांकि यह एक ज़ोखिम भरा दांव है, खास कर जब भारत में एक बेहद प्रतिस्पर्द्धा वाले चुनाव का माहौल बन रहा हो.
अमन पसंद पक्ष के अंतत: हावी होने की स्थिति में भी, भारत को दोबारा ऐसी खतरनाक स्थिति में पड़ने से बचने के प्रयास करने होंगे. इसका मतलब है शांतिकाल में अधिक सक्रियता दिखाना, ताकि भावी हमलों – जिनका होना लगभग अवश्यंभावी है – को रोका जा सके या उनका बेहतर सामना किया जा सके.
उदाहरण के लिए, भारत ने 2016 के हमले के बाद से कश्मीर में न तो वास्तविक सीमा को सुरक्षित करने के लिए, और न ही वहां अपने सैनिकों और अर्द्धसैनिक बलों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम उठाए हैं. इस महीने निशाना बनी बस तो एक बेहद आसान लक्ष्य थी. जैसा कि कार्नेगी एंडोमेंट के एशलि टेलिस कहते हैं, ‘नियंत्रण रेखा पर तैनात सेना की यूनिटों और जम्मू कश्मीर में तैनात आंतरिक सुरक्षा के घटकों समेत भारतीय सुरक्षा बल साजो-सामान की भारी कमी से जूझ रहे हैं और अक्सर उनके पास आतंकवाद के मुकाबले के लिए उपलब्ध बेहद बुनियादी उपकरण तक नहीं होते हैं.’
साथ ही, कश्मीर में बढ़ते कट्टरपंथ के खिलाफ भारत सरकार की कठोर प्रतिक्रिया ने नि:संदेह वहां की स्थिति को और खराब किया है. आत्मघाती हमलावर एक स्थानीय कश्मीरी युवक था, कोई पाकिस्तानी आतंकी नहीं. राज्य में सेना और पुलिस की भारी तैनाती और भीड़ पर काबू पाने के उनके क्रूर उपायों ने उसके जैसे अनेक मुसलमान युवकों को मुख्यधारा से दूर किया है. ऐसे भारतीय नागरिकों को – और उनके लिए आवाज़ उठाने वाले लोगों को – राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानना पाकिस्तान स्थित आतंकियों को राज्य में सक्रियता बढ़ाने के और अधिक मौके मुहैय्या कराता है.
इसमें से कुछ भी पाकिस्तान और आतंकी गुटों को उसके अनुचित समर्थन से ध्यान हटाने के लिए नहीं है. पर वर्तमान भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के मद्देनज़र पाकिस्तान पर दबाव डालने में भारत को अधिक सतत और विवेकपूर्ण रवैया अपनाने की ज़रूरत है.
कश्मीर और कश्मीरियों के प्रति नरम दृष्टिकोण अपनाना इस दिशा में सहायक साबित होगा और इससे पाकिस्तानी दुष्प्रचार का भी बेहतर सामना किया जा सकेगा. मौजूदा अमेरिकी प्रशासन भारत की निराशा को लेकर सहानुभूति रखता है, पर पाकिस्तान पर उसका प्रभाव पूर्ववर्ती प्रशासनों की अपेक्षा कम है. अमेरिका पर निर्भर रहने के बजाय भारतीय अधिकारियों को अंतरराष्ट्रीय संगठनों– संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, और बहुत ही अहम फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स जिसने आतंकियों के वित्त पोषण के साधनों पर चोट नहीं करने के लिए पाकिस्तान को काली सूची में डालने की चेतावनी दी है – में उसके प्रभाव का लाभ उठाने के प्रयास करने चाहिए.
चीन हालांकि, राजनयिक अवरोध खड़े करता है, लेकिन उनको दूर करना संभव है. फाइनेंशियल एक्शन टास्कफोर्स से संबद्ध मामलों में चीन सहायक साबित हुआ है, और दक्षिण एशिया में अस्थिरता की स्थिति कायम रहना पाकिस्तान में उसके निवेश के लिए भी सही नहीं होगा. जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अज़हर जैसे आतंकियों का बचाव करना जारी रखने की नीति अंतत: चीन के लिए गले की हड्डी साबित हो सकती है.
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यह एक धीमा और ग्लैमर हीन काम है – हमले के निशान के नक्शे लहराने और हमले में शामिल विमानों के तारीफ करने जैसा संतोषप्रद तो बिल्कुल ही नहीं. इसका विकल्प है— और हमले झेलना और ये उम्मीद करना कि बदले की कोई कार्रवाई पूर्ण युद्ध में तब्दील न हो जाए. भारत दोबारा इस विकल्प को नहीं चुनना चाहेगा.
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