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Saturday, 21 December, 2024
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अयोध्या के बाद काशी और मथुरा का समाधान आसान होगा, पर पीओके भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है

अयोध्या हिंदुओं के एक नए पुनर्जागरण आंदोलन की शुरुआत है. भारत को इस ऊर्जा का उपयोग एकता बढ़ाने और आर्थिक पुनरुत्थान के लिए करना चाहिए.

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अयोध्या में एक भव्य समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राम मंदिर की आधारशिला रखे जाने के साथ ही एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है: ये एक लंबे संघर्ष का अंत है या एक नए संघर्ष की शुरुआत? यह शानदार समारोह अपने-आप में कई तरह से अनूठा था. शिलान्यास/शुभारंभ समारोहों का चुनावी हथकंडों के रूप में प्रयोग भारतीय राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है. लेकिन ये शायद पहला अवसर है जब अदालती लड़ाई के ज़रिए एक सदियों पुराने विवाद का अंत हुआ है.

काशी और मथुरा

भूमि पूजन समारोह के दो प्रमुख प्रतिभागी थे प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत. ये स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जन आकांक्षाओं को समझते हुए एक टीम के रूप में काम कर रहे हैं और उन्हें हिंदुओं की जनभावना की बेहतर समझ है. अयोध्या फैसले में हिंदुओं के लिए कोई पूर्व शर्त नहीं जुड़ी है- जैसे पूजा, धर्म या पहचान से जुड़े अन्य पवित्र स्थलों पर दावेदारी छोड़ने की अनिवार्यता. काशी और मथुरा के प्राचीन मंदिरों की यात्रा करने वाले भक्तों को मुगल शासन के दौरान मंदिर के ढांचे का हिस्सा बनी मस्जिद की उपस्थिति का सामना करना पड़ता है. हिंदुओं के प्राचीन पवित्र स्थलों के साथ इन मस्जिदों की मौजूदगी न सिर्फ ‘राजनीतिक हिंदुओं’ बल्कि उन धार्मिक हिंदुओं की भावनाओं को भी ठेस पहुंचाती है जिनका कि राजनीति से दूर-दूर का नाता नहीं है.

काशी और मथुरा के मंदिरों के पुनरोद्धार, वहां अतिक्रमण हटाए जाने और इन स्थलों को हिंदुओं के लिए अधिक सुलभ बनाए जाने, ताकि उन्हें बुतपरस्ती के विरोधियों के साथ इन्हें साझा नहीं करना पड़े की मांग बहुत पुरानी है. अयोध्या पर अदालती फैसले और केंद्र एवं राज्य में मज़बूत सरकारों की मौजूदगी ने इस संबंध में पहले से ही मुखर हिंदुओं की उम्मीदों को बढ़ा दिया है. अयोध्या में बिना किसी अड़चन के शिलान्यास समारोह संपन्न होने के साथ ही, हिंदुओं के लिए अहम तीन स्थलों पर दावेदारी के भाजपा और आरएसएस की मूल एजेंडे का एक तिहाई हिस्सा पूरा हो गया है. काशी और मथुरा की ‘मुक्ति’ के लिए शायद किसी आंदोलन की भी आवश्यकता नहीं पड़े.

पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर का मामला

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के अलावा भाजपा की प्रतिबद्धता समान नागरिक संहिता लागू करने की भी है. हिंदुओं के धार्मिक स्थलों के गौरव की पुनर्बहाली ही नहीं बल्कि अनुच्छेद 370 या समान नागरिक संहिता जैसे गैर-धार्मिक मुद्दे भी अन्य दलों के बिल्कुल राजनीतिक रवैये के कारण बुरी तरह विवादित हो गए हैं, जोकि इन विषयों को हिंदू बनाम मुस्लिम के नज़रिए से देखते हैं. मोदी के नेतृत्व में भाजपा की राजनीतिक पकड़ मज़बूत होने और कई राज्यों में पार्टी का प्रभाव बढ़ने के साथ ही हिंदू एकजुटता उत्तरोत्तर प्रबल होती जा रही है. इसलिए, भाजपा-आरएसएस का एजेंडा अब बहुत कम समय में आसानी से पूरा होने लायक दिखता है.


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जहां भाजपा के एजेंडे के ये मुद्दे घरेलू प्रकृति के हैं, वहीं कहीं अधिक कठिन चुनौती पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर फिर से पूर्ण नियंत्रण के लिए रणनीति तैयार करने की होगी. इस आशय का एक प्रस्ताव कांग्रेस शासन के दौरान संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित हुआ था. इसलिए इस बारे में घरेलू राजनीतिक आम सहमति बनाना मोदी सरकार के लिए आसान होना चाहिए. लेकिन इसके वैश्विक परिणामों से निपटने के लिए बहुत विस्तृत रणनीति की ज़रूरत पड़ेगी और इसमें समय भी लगेगा.

लेकिन इस संबंध में उत्साह और अयोध्या के बाद बढ़ी अपेक्षाओं को देखते हुए मोदी सरकार पर अपने एजेंडे की प्राथमिकताएं तय करने का दबाव पड़ सकता है. इन मुद्दों के अलावा, चुनावों के पास आने पर सरकार को कोविड-19 महामारी के कारण कहीं अधिक गंभीर बन चुके आर्थिक संकट से भी निपटना पड़ेगा.

राजनीतिक वर्ग, खासकर मोदी सरकार के लिए आम सहमति बनाना तथा आस्था के सवाल को राजनीतिक नेतृत्व या अदालतों के बजाय सामुदायिक नेताओं को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने देना विवेकपूर्ण होगा. अयोध्या एक नए हिंदू पुनर्जागरण आंदोलन की शुरुआत है. इस ऊर्जा और उपलब्धि भाव का एकता बढ़ाने, आर्थिक पुनरोत्थान के लिए काम करने और वैश्विक उत्कर्ष हासिल करने के प्रयासों में विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जाना देश के सर्वोत्तम हित में होगा.

कांग्रेस आस्था की राह पर

कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं, जिनमें शीर्ष नेतृत्व के लोग भी शामिल हैं, ने ना सिर्फ सोशल मीडिया पर भूमि पूजन के स्वागत में संदेश डाले हैं, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का ताला खोले जाने का श्रेय भी लिया जा रहा है. ये कदम 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 2007 की अपनी गलती सुधारने के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के समर्थन में उनके द्वारा सीडब्ल्यूसी में प्रस्ताव पारित कराने जैसा ही है.


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कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2007 में राम सेतु मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में कहा था कि ‘भगवान राम में वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सत्यता का अभाव है.’ मनमोहन सिंह सरकार ने कहा था, ‘वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस निश्चय ही प्राचीन भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन उन्हें उनमें वर्णित पात्रों और घटनाओं के अस्तित्व को निर्विवाद रूप से साबित करने वाला ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं माना जा सकता है.’

यूपीए ना सिर्फ उस मामले में हारी थी, बल्कि आस्था का स्थान अपनी कथित राजनीतिक व्यावहारिकता को देने के कारण उसे भाजपा के हाथों राजनीतिक ज़मीन भी गंवानी पड़ी. विडंबना देखिए कि भाजपा ने 2004, 2014 या 2019 में राम मंदिर या राम सेतु को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया था. लेकिन उसका सूक्ष्म संदेश स्पष्ट रूप से मतदाताओं तक पहुंच गया था.
अयोध्या का संदेश भी कम साफ या स्पष्ट नहीं है.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य हैं और पूर्व में आर्गनाइज़र का संपादक रहे हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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