scorecardresearch
Saturday, 27 April, 2024
होममत-विमतअनुच्छेद 370 बहाल करने की कुछ कश्मीरी पंडितों की मांग अतार्किक, ऐतिहासिक समर्थन का अभाव

अनुच्छेद 370 बहाल करने की कुछ कश्मीरी पंडितों की मांग अतार्किक, ऐतिहासिक समर्थन का अभाव

मोदी सरकार के फैसले को चुनौती देने वाले अधिकांश मामले जम्मू-कश्मीर की विशिष्टता बनाए रखने और शेष भारत के साथ इसके भावनात्मक और आर्थिक एकीकरण को नकारने की कोशिश करते हैं.

Text Size:

अपने जैसे जीवंत लोकतंत्र में सरकार का कोई भी निर्णय बिना चुनौती अमल में नहीं आता है. और इसलिए, अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म करके 5 अगस्त 2019 को जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का फैसला भी इस लिहाज से कोई अपवाद नहीं रहा.

यद्यपि स्थानीय राजनीतिक दल, जिन्होंने गंभीर नतीजों की चेतावनी दी थी, को शांत करा लिया गया और राष्ट्रीय दलों ने अपनी आपत्तियों को जाहिर करने में सतर्कता बरती, लेकिन सतीश महाल्दर की अगुवाई वाले एक संगठन ‘रिकंसीलिएशन, रिलीफ एंड रिहैबिलिटेशन’ ने अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग उठा दी है.

आइए इस तथ्य से प्रभावित न हों कि संगठन में कश्मीरी ’पंडित’ शामिल हैं, जो खुद में एक अत्यधिक अस्पष्ट अभिव्यक्ति है क्योंकि इस शब्द का इस्तेमाल कश्मीर के शैव पंच गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों को इंगित करने के लिए किया जाता है. किसी के इनमें से एक या सभी विशेषताओं के साथ अपनी पहचान बताने में कुछ गलत भी नहीं है. लेकिन ऐसे व्यक्ति और संगठन हैं जो भिन्न होने का दावा करते हैं और शेष भारतीयों को कश्मीर से बाहर रखने के लिए अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग करते हैं.

शुक्र है कि कश्मीर से विस्थापित बहुसंख्यक हिंदू इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं और मोदी सरकार की कार्रवाई का दृढ़तापूर्वक समर्थन करते हैं.

जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग समझ में आती है, और गृह मंत्री अमित शाह ने कश्मीर की स्थिति सामान्य होने पर ऐसा करने का वादा भी किया है. लेकिन जो अनुचित है वो है अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा बहाल करने की मांग करना.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें: एलएसी पर अब जबकि सेनाएं ‘पीछे हट’ रहीं तो भारत चीन के खिलाफ अभी तक न आजमाये गए विकल्पों पर विचार करे


कश्मीरियत का अस्तित्व नहीं

कुछ ऐसे अनजाने से संगठनों की तरफ से दिए जा रहे तर्क पूरी तरह असंगत हैं, जिनके राजनीतिक जुड़ाव स्पष्ट हैं और जिसमें केवल कुछ ही लोग शामिल हैं. कश्मीरियत के संरक्षण और उसे आगे बढ़ाने के लिए विशेष दर्जे की बहाली की मांग न तो तर्कसंगत है और न ही इसे कोई ऐतिहासिक समर्थन हासिल है.

कश्मीरियत को सभी भारतीय नागरिकों के लिए समान भारतीयता से भिन्न और अलग करके नहीं देखा जा सकता. यह किसी राज्य के निवासियों के लिए विशिष्ट धर्म या अलग पहचान नहीं है. अगर ऐसा हो भी, तो यह हिंदू और मुसलिम दोनों के लिए समान होना चाहिए. 1990 के दशक में कश्मीर से हिंदुओं के पलायन, जब उन्हें अपने पैतृक घरों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और जो अब घर नहीं लौट पाए हैं, ने कश्मीरियत के जम्मू-कश्मीर में हर किसी की समान पहचान होने की गलतफहमी दूर कर दी थी.

इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक वर्ग का एक हिस्सा या तो अहितकारी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन गया था या कश्मीरी हिंदुओं पर हमले रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहा था, जो हमले एक नरसंहार को अंजाम देने की स्पष्ट योजना के साथ किए गए थे. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि समुदायों के बीच कायम सद्भावना का तत्व बहुत पहले ही नदारत हो चुका है, जिससे अराजकता और राजनीतिक क्षय की स्थिति उपजी.

तीन दशकों के बाद कश्मीरी हिंदुओं की उनके घरों में वापसी और पूरी गरिमा, सम्मान और सुरक्षा के साथ उनका पुनर्वास जरूरी है, अन्यथा अनुच्छेद 370 हटाने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा. घाटी की स्थिति सामान्य होनी चाहिए ताकि इन परिवारों को अब अपने ही देश में विस्थापितों की तरह न रहना पड़े.


यह भी पढ़ें: बॉर्डर पर सेना, हॉस्पिटल में डॉक्टर और बाढ़ में NDRF है फ्रंटलाइन वॉरियर, संकटमोचक बन अबतक डेढ़ लाख को बचाया


फैसले में बदलाव मुमकिन नहीं

सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार के फैसले की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले अधिकांश मामले जम्मू-कश्मीर की विशिष्टता बनाए रखना चाहते हैं और शेष भारत के साथ इसके मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और आर्थिक एकीकरण को अस्वीकार करते हैं.

केंद्र का प्रतिनिधित्व करने वाले अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि ‘अनुच्छेद 370 के प्रावधान खत्म किया जाना अब एक निष्पादित कार्य बन चुका है, जिस बदलाव को स्वीकार करना ही एकमात्र विकल्प है.’ यह हलफनामा प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों को ही स्पष्ट रूप से दोहराता है. उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में लोगों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘दुनिया भर के सारे दबावों के बावजूद, इन फैसलों पर हम कायम हैं और कायम रहेंगे.’

‘राष्ट्र के हित में’ अपने फैसलों पर मजबूती से आगे बढ़ने के प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प और संसद में भाजपा के संख्याबल को देखते हुए अगस्त 2019 के इस फैसले में किसी बड़े उलटफेर की संभावना शून्य है.

अनुच्छेद 370 को एक अस्थायी प्रावधान के तौर पर लाया गया था जिसका उद्देश्य विभाजन, पाकिस्तान के सैन्य आक्रमण और अतिक्रमण के कारण अशांत राज्य में भारतीय संविधान के प्रावधानों को लागू करने का प्रक्रियात्मक तंत्र बनाना था.

लेकिन राजनीतिक तत्वों ने इस प्रावधान का दुरुपयोग शुरू कर दिया और इसकी आड़ में राज्य सरकार के कई कदमों पर अमल में तरह-तरह की अड़चनें पैदा की गईं. सूचना का अधिकार (आरटीआई), शिक्षा का अधिकार (आरटीई), भ्रष्टाचार निरोधक और एससी/एसटी/ओबीसी आदि से जुड़े कानूनों सहित 130 से अधिक कानूनों को जम्मू-कश्मीर के दायरे से बाहर रखकर वहां के लोगों को उनके वैधानिक अधिकारों से वंचित रखा गया.

यही सब जम्मू-कश्मीर और शेष भारत के बीच एक दीवार बने अनुच्छेद 370 के खिलाफ खड़े होने की वजह बना, जो इसे खत्म करने के लिए एक सर्वसम्मत समर्थन था. यह दीवार ढहने के साथ अब किसी भी भारतीय नागरिक के लिए जम्मू-कश्मीर में बसना और उसके विकास में योगदान देना संभव है. और इसलिए, एक साल पहले वाली स्थिति में लौटने का सवाल ही नहीं उठता.


य़ह भी पढ़ें: हुर्रियत पर मोदी सरकार के लगाम कसने से गिलानी इसे छोड़ने पर हुए मजबूर, भले ही वो इसका दोष पाकिस्तान पर लगाएं


काम अभी पूरा नहीं हुआ

अनुच्छेद 370 निरस्त होने और उसके बाद की गई कड़ी कार्रवाइयों की वजह से आतंकवाद से जुड़ी घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है.

द इकोनॉमिक टाइम्स की एक न्यूज रिपोर्ट में ‘आधिकारिक आंकड़ों’ का हवाला देते हुए बताया गया है कि स्थानीय युवाओं के आतंकवाद की राह पर जाने में 40 फीसदी की गिरावट आई है और आतंकी हमले की घटनाएं 188 से घटकर 120 हो गईं. जहां तक जम्मू-कश्मीर को लेकर हमारे पश्चिमी पड़ोसी की धृष्टताओं की बात है तो भारत ने इसे खत्म करके सीमा पर एक सख्त और स्पष्ट संदेश पहुंचा दिया है कि अब बहुत हो चुका.

लेकिन अभी कुछ काम किया जाना बाकी है. मोदी सरकार को रोजगार के अवसर बढ़ाने, समग्र आर्थिक विकास, बुरी तरह प्रभावित पर्यटन और हस्तशिल्प उद्योगों को पुनर्जीवित करने, लाखों विस्थापित हिंदू परिवारों के पुनर्वास जैसे तमाम लंबित मुद्दों पर तत्काल ध्यान देना चाहिए, और इन सबसे ऊपर, एक राजनीतिक आम सहमति बनानी चाहिए ताकि जब राज्य का दर्जा बहाल हो तो बदले राजनीतिक सुर पुनरुद्धार की प्रक्रिया पटरी से न उतार सकें और जम्मू-कश्मीर को एक बार फिर अनिश्चित भविष्य की ओर न धकेल दें.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments