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Thursday, 9 May, 2024
होममत-विमतहुर्रियत पर मोदी सरकार के लगाम कसने से गिलानी इसे छोड़ने पर हुए मजबूर, भले ही वो इसका दोष पाकिस्तान पर लगाएं

हुर्रियत पर मोदी सरकार के लगाम कसने से गिलानी इसे छोड़ने पर हुए मजबूर, भले ही वो इसका दोष पाकिस्तान पर लगाएं

इस बात की संभावना है कि पाकिस्तान आईएसआई, हुर्रियत में लीडरशिप के खालीपन को संगठन पर कब्ज़ा करने और आतंकी मॉड्यूल्स को फिर से एकजुट करने के अवसर के तौर पर देखेगी.

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सत्रह साल तक अगुवाई करने के बाद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से सैयद अली शाह गिलानी की विदाई के साथ ही पाकिस्तान ने एक अहम संपर्क खो दिया है जिसके ज़रिए उनकी प्रमुख खुफिया एंजेंसी आईएसआई, जम्मू और कश्मीर में हंगामे भड़काया करती थी. जो लोग जम्मू-कश्मीर के घटनाक्रम पर करीब से नज़र रखते आ रहे हैं, खासकर अनुच्छेद-370 को रद्द करने और पूर्व राज्य को दो केंद्र-शासित क्षेत्रों में बांटने के बाद से ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से गिलानी के इस्तीफे पर उन्हें हैरत नहीं होनी चाहिए.

सैयद अली शाह गिलानी ने मान लिया है कि अंगूर खट्टे हैं.

अनुच्छेद-370 को रद्द करने और 2019 के बालाकोट हमले के बाद से इस्लामाबाद ने जल्दी ही समझ लिया, वो गलत नेताओं पर दांव लगाता रहा था, जो जम्मू-कश्मीर में नरेंद्र मोदी सरकार की एहतियात से तैयार की हुई रणनीति के आगे फीके पड़कर निरर्थक हो गए. भारत की ओर से सर्जिकल स्ट्राइक और पाक-अधिकृत कश्मीर (पीओके) में स्थित आतंकी कैम्पों तक पहुंचने के बाद शायद इस्लामाबाद ने 90 वर्षीय गिलानी समेत सभी हुर्रियत नेताओं को खारिज कर दिया जो इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) के लिए अब किसी काम के नहीं रह गए थे. पीओके को और अलग करने के मकसद से आईएसआई ने अपने एक प्रमुख ऑपरेटर मौहम्म्द हुसैन ख़तीब को हुर्रियत के पीओके चैप्टर का संयोजक बना दिया. आईएसआई उम्मीद करेगी कि नए और नौजवान लीडर्स, भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों में ज़्यादा आक्रामक और सक्रिय होंगे.


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एक नया मोड़

जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा देने वाली अनुच्छेद-370 और 35ए को खत्म करने का भारतीय जनता पार्टी का एजेंडा कभी भी रहस्य नहीं था और बरसों तक हुर्रियत नेताओं के लिए ये ‘चेतावनी’ देना फैशनेबल हो गया था कि केंद्र ने अगर जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक व्यवस्था को बदलने का प्रयास भी किया तो जम्मू-कश्मीर में ‘खून-खराबा‘ हो जाएगा.

लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में जब अपना कदम उठाया तो हुर्रियत लीडरशिप को सांप सूंघ गया. इसकी वजह समझना आसान है- इसके लिए पिछले दो-तीन सालों में केंद्र जो बिंदु छोड़ता जा रहा था उन्हें बस जोड़ने की ज़रूरत है.

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हुर्रियत को बेअसर करना

फरवरी 2019 में बालाकोट हवाई हमले के फौरन बाद ही नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) ने हुर्रियत नेताओं के घर और प्रॉपर्टीज़ की तलाशी ली. बाद में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अवैध विदेशी करेंसी रखने के आरोप में गिलानी और अन्य पर जुर्माने लगाए.

उसके बाद अक्टूबर 2019 में एनआईए ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख यासीन मलिक और कई दूसरे स्व:नियुक्त अलगाववादी नेताओं के खिलाफ एक चार्जशीट दाखिल की जिसमें लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक और जमात-उद-दावा के मुखिया हाफिज़ सईद के साथ उनके रिश्तों का ब्यौरा दिया था, जो एक घोषित अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी और मुम्बई आतंकी हमलों का मास्टरमाइंड था. ज्वाइंट रेज़िस्टेंस लीडरशिप (जेआरएल) जिसे 2016 में जल्दी में गठित किया गया था और जो नियमित रूप से विरोध प्रदर्शनों का कैलेंडर जारी करता था, अपने नेताओं की गिरफ्तारी और उन्हें बेअसर कर दिए जाने के बाद बर्बाद हो गया.

इस बात की संभावना है कि पाकिस्तान आईएसआई, हुर्रियत में लीडरशिप की शून्यता को संगठन पर कब्ज़ा करने और आतंकी मॉड्यूल्स को फिर से एकजुट करने के अवसर के तौर पर देख सकती है. नई दिल्ली को और अधिक सतर्क रहना होगा और उठने वाली किसी भी मुसीबत को शुरू में ही खत्म कर देना होगा. हिज़्बुल मुजाहिद्दीन कमांडर बुरहान वानी की चौथी बरसी मनाने की आड़ में हिंसक प्रदर्शन भड़काने का गंभीर प्रयास किया जा सकता है, जो 8 जुलाई को अनंतनाग ज़िले में एक मुठभेड़ में मारा गया था.

गिलानी के हुर्रियत छोड़ने से उनके गुनाह नहीं धुल जाते. वो कश्मीरी नौजवानों की कई पीढ़ियों की जिंदगियां बर्बाद करने के अकेले ज़िम्मेदार हैं. उन्होंने ही ‘भारत-विरोधी’ प्रदर्शनों में हिंसा का पुट शामिल किया, शांति का माहौल खराब किया और भारत के दुश्मनों के हाथों में खेलते रहे. और इस सब के बीच उनके करीबी रिश्तेदार, बेहतरीन शिक्षा, सरकारी नौकरियों और आरामदेह जीवन का मज़ा लेते रहे.


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केंद्र का एक नया उपाय

अतीत में हुर्रियत को लेकर सरकारों का रवैया नरम-गरम रहा है लेकिन मोदी सरकार ने एक नई रेड लाइन खींच कर साफ कर दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी बातचीत में हुर्रियत या दूसरे अलगाववादी नेताओं को शामिल नहीं किया जाएगा. हुर्रियत का मूल सिद्धांत एक मंच के तौर पर ऐसे मकसद के लिए काम करना है जिसे वो राज्य पर ‘भारत के ज़बर्दस्ती और धोखे से कब्ज़े के खिलाफ संघर्ष’ कहता है.

एक ऐसा संगठन जो ‘कब्ज़ा करने वाले भारत के बलों से’ से मुक्ति चाहता है और अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए उग्र हिंसा और आतंक का सहारा लेता है, उसके लिए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई जगह नहीं है. ज़रूरत इस बात की है कि हुर्रियत कॉनफ्रेंस को एक आतंकी संस्था के तौर पर पहचाना जाए और उसी हिसाब से उसके साथ निपटा जाए.

लेकिन जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया को बहुत समय तक निलंबित नहीं रखा जा सकता. देर सवेर से जम्मू-कश्मीर के केंद्र-शासित दर्जे़ को बदलना होगा और विधानसभा व नगर निकाय चुनाव कराकर उसके राज्य के दर्जे़ को बहाल करना होगा. जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं जिनमें 24 सीटें पीओके के सदस्यों के लिए आरक्षित हैं.

परिसीमन की प्रस्तावित एक्सरसाइज़ पूरी हो जाने के बाद पीओके की सीटें नामांकन से भरी जानी चाहिए. इससे न केवल पीओके के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाएं पूरी होंगी बल्कि नई दिल्ली भी 22 फरवरी 1994 को संसद की साझा बैठक में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव का मैंडेट पूरा करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ेगी.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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