उत्तर प्रदेश और बिहार, भारत के दो सबसे बड़े सूबे अपने जूझते विकास के संकेतकों की वजह से निरंतर फोकस में रहते हैं. जहां उत्तर प्रदेश में इस समय ग्राम पंचायत चुनाव चल रहे हैं, वहीं बिहार आने वाले कुछ महीनों में अपने स्थानीय प्रतिनिधियों को चुनेगा.
बिहार में पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) के कुल 1.3 लाख प्रतिनिधियों में 71,000 से अधिक महिलाएं हैं. उत्तर प्रदेश में 9.1 लाख प्रतिनिधियों में से 3,04,638 महिलाएं हैं. जेंडर कोटा के साथ पंचायत चुनाव 1992 में स्थापित किए गए थे, जिसके लिए 73वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, जिसमें महिलाओं तथा हाशिए पर रह रहे समुदायों के लिए देश भर की पीआरआईज़ में 33.3 प्रतिशत आरक्षण अनिवार्य कर दिया गया था. लेकिन फिर भी 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर, जब हम संशोधन के पारित होने को याद कर रहे हैं, तो जमीनी स्तर की महिला नेताओं के ठोस और परिवर्तनशीन योगदान अभी भी हाशिए पर रहते हैं और उनकी नाकामियों और सहयोजन से जुड़ी कहानियों को उजागर किया जाता है. इस साल 1 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के एक शख़्स की कहानी खूब वायरल हुई, जिसने अपनी पत्नी को पंचायत चुनाव लड़ाने के लिए अपना ब्रह्मचर्य का व्रत तोड़ दिया था.
1992 अधिनियम उत्प्रेरक साबित हुआ और भारत के स्थानीय शासन में 14.5 लाख से अधिक महिलाएं नेतृत्व की हैसियत में आ गईं. आज, बीस राज्यों- आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलांगना, त्रिपुरा, उत्तराखंड, और पश्चिम बंगाल ने अपने पीआरआईज़ में महिला आरक्षण को बढ़ाकर 50% कर दिया है. कर्नाटक जैसे कई राज्यों में पीआरआईज़ में 50 प्रतिशत से अधिक महिला प्रतिनिधि हैं, जिनसे संकेत मिलता है कि महिलाएं अब ऐसे वॉर्ड्स में भी जीत रही हैं, जो उनके लिए आरक्षित नहीं थे.
राजनीति और शासन, जिन्हें एक ज़माने से पुरुषों का विशेषाधिकार समझा जाता रहा है, अब जमीनी स्तर पर बदल रहे हैं.
राजनीति में महिला सहभागिता के कुछ आयामों में भारत सबसे आगे रहा है, जहां महिलाओं के नेतृत्व की सफलता की कई कहानियां मौजूद हैं- बतौर प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री और मुख्यमंत्री. आज कोविड-19 के दौर में पीआरआईज़ में महिला नेता स्वतंत्र रूप से सफलता हासिल करने की भूमिका में आ रही हैं और एक ऐसे क्षेत्र में अपना रास्ता बना रही हैं जिससे उन्हें ऐतिहासिक रूप से बाहर रखा गया है.
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कोविड-19 से लड़ाई में अग्रिम मोर्चे पर अगुवाई कर रहीं महिलाएं
कोविड संकट का महिलाओं पर असमान प्रभाव रहा है लेकिन रोज़गार और आमदनी के नुकसान तथा देखभाल के अतिरिक्त बोझ के मामले में इसने पहले उत्तर देने वालों के तौर पर महिलाओं पर ही रोशनी डाली है, जो फ्रंटलाइन हेल्थ वर्कर्स और पीआरआईज़ तथा स्वयं सहायता समूह में स्थानीय नेता की भूमिका में नज़र आती हैं.
बिहार में ग्राम पंचायतों की महिला वॉर्ड सदस्यों के एक हालिया टेली-सर्वे में 46 उत्तरदाताओं ने कहा कि महामारी और लॉकडाउन शुरू होने के बाद से उनके काम का बोझ काफी बढ़ गया है- जिससे अंदाज़ा होता है कि चुनी हुई महिला प्रतिनिधियों (ईडब्ल्यूआर्स) ने पहली उत्तरदाता के तौर पर एक मुख्य भूमिका निभाई है. आधे से अधिक ईडब्ल्यूआर्स वापसी कर रहे प्रवासियों की शिनाख़्त और कोविड-19 बीमारी तथा उससे जुड़े एहतियात के बारे में जागरूकता फैलाने के काम में लगी हैं.
राशन का इंतज़ाम, कोविड-19 मरीज़ों के लिए आइसोलेशन या हॉस्पिटल बेड्स की व्यवस्था तथा गर्भवती महिलाओं के लिए तत्काल चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने जैसे कामों पर भी उनका ध्यान रहा. इस वास्तविकता को मानते और महिला नेताओं के काम को देखते हुए इस साल 8 मार्च को वैश्विक स्तर पर मनाए गए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम थी ‘नेतृत्व में महिलाएं: कोविड-19 की दुनिया में समान भविष्य हासिल करतीं ’.
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महिला नेताओं द्वारा विकास केंद्रित शासन
नेताओं के तौर पर महिलाओं के प्रभावशाली होने और विकास के साथ उनके सकारात्मक जुड़ाव का सबूत अब अच्छे से स्थापित हो गया है. आरक्षण के अंतर्गत चुनी गई महिलाएं, सार्वजनिक हित में ज़्यादा निवेश करती हैं, जो पेयजल जैसी सामुदायिक प्राथमिकताओं को प्रतिबिंबित करता है. अभी तक के अनुभव से पता चलता है कि महिला नेताओं की पसंद और विकास की प्राथमिकताएं वही हैं, जो उनके समाज में पुरुषों की हैं (चट्टोपाध्याय, राघबेंद्र, तथा एस्थर डफ्लो. 2004. ‘वीमन एज़ पॉलिसी मेकर्स: एविडेंस फ्रॉम ए रेंडमाइज़्ड पॉलिसी एक्सपेरिमेंट इन इंडिया’. इकॉनॉमेट्रिका 72(5):1409-43).
बिहार के बंजारी ग्राम पंचायत की रसूलन बाई का केस ही ले लीजिए. ये गांव पोषण की कमी से उत्पन्न खून की कमी और बचपन के बौनेपन जैसी समस्याओं से जूझ रहा है. अपनी अन्य साथी महिला वॉर्ड सदस्यों के साथ मिलकर उन्होंने अपनी पंचायत में पोषण के परिणामों तथा सेवाओं में सुधार की प्राथमिकताएं तय की हैं. इसके लिए किचन गार्डन को बढ़ावा देने, अन्नप्राषण में समुदायों को जुटाने तथा पोषण अभियान के तहत गोद भराई जैसे समारोहों का रास्ता अपनाया गया.
रिसर्च से ये भी पता चलता है कि महिला नेताओं के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं (पेयजल, स्कूलों, स्वास्थ्य केंद्रों, राशन दुकानों) का वितरण बेहतर रहा है और इन सुविधाओं की मापी गई गुणवत्ता कम से कम उतनी ऊंची ज़रूर है जितनी गैर-आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में है. (डफ्लो, एस्थर व पेटिया टोपावाला.2004. ‘अनएप्रीशिएटेड सर्विस: परफॉर्मेंस, परसेप्शंस, एंड वीमन लीडर्स इन इंडिया,’ मीमियो, एमआईटी)
ग्राम पंचायत संस्थाओं में महिला प्रतिनिधि नागरिक सुविधाओं का बेहतर वितरण कराती हैं. लेकिन, महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी अभी भी जेंडर पर आधारित है. स्वास्थ्य और शिक्षा को महिलाओं का कार्यक्षेत्र माना जाता है, जबकि ग्रामीण इनफ्रास्ट्रक्चर और बजट प्रबंधन पुरुषों के लिए सुरक्षित हैं.
वॉर्ड सदस्य बबिता देवी, जो बिहार की पांगरी पंचायत में दिहाड़ी मज़दूर का काम करती हैं, एक शिकायत दर्ज करके मिड-डे मील्स की गुणवत्ता सही करवाने में कामयाब हो गईं. बिहार से ही, राजनंदना पंचायत की वॉर्ड सदस्य सामना ख़ातून और धनमंति देवी ने कामयाबी के साथ स्थानीय उप-स्वास्थ्य केंद्र से अतिक्रमण को हटवा दिया.
सेंटर फॉर कैटलाइज़िंग चेंजेज़ (सी-3) के बिहार के पहेल में ईडब्ल्यूआर्स (चुनी हुई महिला प्रतिनिधियों) के लिए नेतृत्व और सलाह की पहल के मूल्यांकन से पता चलता है कि क्षमता बनाने के संरचित और पुनरावर्त्ती प्रयास, संस्थागत तथा पितृसत्तात्मक बाधाओं को पार करने में महिलाओं के लिए सहायक साबित होते हैं.
सी-3 प्रेग्राम में शिरकत करने के बाद उत्तरदाताओं ने कहा कि बतौर पीआरआई सदस्य, उन्हें अपनी भूमिकाओं तथा ज़िम्मेदारियों की बेहतर समझ हुई है. बैठकों के दौरान मुद्दे उठाने की क्षमता में सुधार बताने वाली, ईवीआर्स के अनुपात में 41 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. ईवीआर्स ने बताया कि बैठकों में पंचायत समितियों की जागरूकता और सहभागिता में काफी इज़ाफा देखा गया है. पंचायत स्तर पर स्थाई समितियों की जागरूकता, जो कार्यक्रम में शिरकत से पहले 16 प्रतिशत थी, बाद में बढ़कर 71 प्रतिशत हो गई. 88 प्रतिशत समितियां गांव स्वास्थ्य सफाई पोषण समितियों (वीएचएसएनसी) से वाकिफ थीं, 72 प्रतिशत शिक्षा समितियों तथा 54 प्रतिशत लोक निर्माण समितियों से वाकिफ थीं.
कार्यक्रम में शिरकत करने से पहले ये अनुपात क्रमश: 56 प्रतिशत, 69 प्रतिशत और 13 प्रतिशत था. लेकिन, ईडब्ल्यूआर्स की वित्तीय समितियों के बारे में जानकारी अभी भी कम है- केवल 15 प्रतिशत वित्तीय ऑडिट समिति और 23 प्रतिशत वित्तीय योजना तथा समन्वय समिति से वाकिफ थीं.
जेंडर, घरेलू ज़िम्मेदारियां तथा वित्तीय एवं डिजिटल साक्षरता, चुनी हुई महिलाओं को बाहर कर देती हैं. नव-निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के बीच पर्याप्त जानकारी और प्रबंधकीय अनुभव की कमी काफी चुनौती भरी होती है, चूंकि निर्वाचित सदस्यों के नाते उन्हें, उनसे की जा रही अपेक्षाओं को समझने में जूझना पड़ता है, जिससे ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है, जिसमें पुरुष प्रतिनिधि अकसर सत्ता कब्ज़ा लेते हैं. फिर भी ईडब्ल्यूआर्स अक्सर उनके आत्मविश्वास तथा चुनाव लड़ने की इच्छा का उल्लेख करती हैं. लेकिन बहुत कम महिलाएं ऐसा समझती हैं कि उनमें आसानी से बदलाव लाने की शक्ति है- 77 प्रतिशत को लगता है कि वो अपने चुनाव क्षेत्रों में चीज़ों को आसानी से नहीं बदल सकतीं, जबकि केवल 23 प्रतिशत को लगा कि वो ऐसा कर सकती हैं.
ये एक दिलचस्प विरोधाभास है, जिसमें महिला नेताओं को लगता है कि उनके मतदाता उनकी ज़्यादा कद्र करते हैं और वो खुद को ज़्यादा आत्मविश्वासी महसूस करती हैं. लेकिन साथ ही मौजूदा स्थानीय शासन प्रणालियों के बीच अपना रास्ता बनाने में उन्हें दुश्वारियां पेश आ रही हैं.
ईडब्ल्यूआर्स से अपेक्षा की जाती है कि स्मार्ट फोन्स के ज़रिए वो विकास की विभिन्न पहलकदमियों की देखरेख और निगरानी करेंगी. मसलन, कोविड-19 के दौरान उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो मास्क व सैनिटाइज़र आदि के वितरण के फोटोग्राफ्स, डिजिटल सबूत के रूप में संभालकर रखेंगी. लेकिन ईडब्ल्यूआर प्रतिभागियों में केवल 63 प्रतिशत के पास फोन थे और उनमें से भी केवल 24 प्रतिशत के पास स्मार्टफोन थे. इससे साफ झलकता है कि भारत में डिजिटल विभाजन कितना बड़ा है, जहां मोबाइल इंटरनेट की जागरूकता तेज़ी से बढ़ रही है लेकिन महिलाओं में खासकर देहात में इसका इस्तेमाल अभी भी कम है.
दुनियाभर में मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटर्स की नुमाइंदगी करने वाली एक व्यापारिक इकाई, जीएसएम एसोसिएशन की 2020 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महिलाओं के मोबाइल फोन रखने की संभावना पुरुषों से 28 प्रतिशत कम है और मोबाइल इंटरनेट इस्तेमाल करने की संभावना पुरुषों से 56 प्रतिशत कम है. इस तरह डिजिटल विभाजन ईडब्ल्यूआर्स के लिए एक चुनौती बनकर उभरा है और परिवार, खासकर बेटों और पतियों से मदद हासिल करने पर निर्भर करता है.
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आगे का रास्ता
हाल के सालों में हमने देखा है कि पंचायत स्तर पर कैसे ज़्यादा से ज़्यादा जिम्मेदारियां और शक्तियां सौंपी जा रही हैं- पोषण अभियान जैसी महत्वपूर्ण पहलकदमियों में उनकी अगुवाई अनिवार्य है. अगर उनके पास ऐसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां हैं, तो फिर आधी पीआरआई प्रतिनिधि पीछे कैसे छूट सकती हैं?
उनके विपरीत हालात के प्रति संवेदनशील हुए बिना महिलाओं को नीचा दिखाना बहुत आसान होता है. पहल मूल्यांकन की उत्तरदाता महिलाओं का ये प्रोफाइल था: ईडब्ल्यूआर्स की बहुसंख्यक सदस्य (87 प्रतिशत) पहली बार चुनी गईं प्रतिनिधि थीं, 34 प्रतिशत की शादी 18 की उम्र से पहले हो गई थी, 23 प्रतिशत ईडब्ल्यूआर्स स्कूल नहीं गईं थीं, जबकि 37 प्रतिशत ने केवल प्राइमरी शिक्षा पूरी की थी, 5 प्रतिशत ने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की थी और 2 प्रतिशत ने अंडरग्रेजुएट पढ़ाई पूरी की थी.
इस सब में एक प्रमुख बात ये रही है कि एक बार महिलाएं आगे बढ़ जाएं, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखतीं. उनकी उपलब्धियां उन्हें अपनी अहमियत का एहसास कराती हैं, उनमें और अधिक करने की महत्वाकांक्षा जगाती हैं. कम संसाधनों के परिवेश में जब हम इन संकेतकों में और सुधार का इंतज़ार कर रहे हैं, तो ऐसे में रसूलन बाई और बबिता देवी जैसी महिलाओं को सशक्त करने के लिए और अधिक ठोस प्रयास किए जाने की ज़रूरत है.
पंचायतों की निर्वाचित महिलाओं के लिए ग्रामीण स्वशासन में मौजूद यथास्थिति को सफलता से चुनौती देना और अपनी भागीदारी तथा एजेंडा निर्धारण के ज़रिए परंपरागत पुरुष प्रधान कार्यक्षेत्रों को संभालना तभी संभव हो सकता है जब हितधारक और सरकार उनकी सहभागिता को सुविधाजनक बनाने के लिए विशेष प्रयास करे और साथ ही जानकारी और सहूलियतों का नियमित प्रवाह सुनिश्चित करें. तब तक, प्रॉक्सी नेताओं की कहानियों को सामने लाने की बजाए, उपलब्धियों और तरक्की पर फोकस करने से एक प्रगतिशील नैरेटिव तैयार होगा और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को समर्थन मिलेगा.
(मधु जोशी जेंडर इक्विटी एंड गवर्नेंस, सेंटर फॉर कैटलाइज़िंग चेंज में सीनियर एडवाइज़र हैं. देवकी सिंह जेंडर इक्विटी एंड गवर्नेंस, सेंटर फॉर कैटलाइज़िंग चेंज में पॉलिसी स्पेशलिस्ट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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