विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था, ‘जो राष्ट्र अपने अतीत को भूल जाता है उसका कोई भविष्य नहीं होता.’ लेकिन उन्होंने यह अनकहा छोड़ दिया कि अतीत के प्रामाणिक एवं निष्पक्ष रिकॉर्ड रखे जाने चाहिए और यह कि सरकारों तथा लोगों को अतीत में की गई कार्रवाइयों के लिए खुद को जवाबदेह नहीं मानना चाहिए या उनके लिए अपराधबोध से ग्रस्त नहीं होना चाहिए. लेकिन इतिहास से अनभिज्ञ रहने और पिछली गलतियों को दोहराने के लिए कोई बहाना नहीं कबूल होगा. यही वजह है कि सामान्य इतिहास और खास तौर से सैन्य इतिहास को इतना महत्वपूर्ण माना जाता है. सैन्य इतिहास संकट के दौर में किसी राष्ट्र के राजनीतिक, सामाजिक और सैन्य व्यवहारों से मिलकर बनता है.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने हल्दीघाटी की लड़ाई की याद में राजस्थान के राजसमंद में जो शिलालेख लगाए उन्हें राजपूत संगठनों और भाजपा के दबाव में हटा दिया गया क्योंकि उनमें यह लिखा था कि महाराणा प्रताप ‘रणक्षेत्र से पीछे हट गए थे’. इतिहास में दर्ज ब्योरे बताते हैं कि शुरू में मिली कुछ सफलताओं के बाद मेवाड़ की सेना ने संख्याबल में कम पड़ने के बाद सामरिक दृष्टि से पीछे हटने का फैसला किया था.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रक्षा मंत्रालय के लिए जून में एक नयी नीति तय कर दी कि सारे रिकॉर्ड, युद्ध डायरियां, कार्रवाइयों से जुड़े पत्र और ऑपरेशनों से जुड़े रिकॉर्ड बुक उपयुक्त रखरखाव, अभिलेख और इतिहास लेखन के वास्ते इसके इतिहास डिवीजन को सौंपे जाएं. लेकिन रक्षा मंत्रालय का पिछला रिकॉर्ड भरोसा नहीं जगाता. 1962, 1965, 1971 की लड़ाइयों का कोई अधिकृत इतिहास अब तक प्रकाशित नहीं किया गया है. 1962 के युद्ध से सबक लेने के मकसद से तैयार की गई हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट को अब तक आम लोगों के लिए तो क्या सेना के लिए भी अवर्गीकृत नहीं किया गया है. यही बात अलगाववाद के खिलाफ श्रीलंका में भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) के अभियान समेत दूसरे अभियानों के लिए भी सच है.
हाल में सरकार ने आरटीआई की धारा 24 के दायरे से बाहर 26 सुरक्षा संगठनों से सेवानिवृत्त अधिकारियों को खामोश रहने का आदेश जारी किया और यह चेतवानी भी दी की इस आदेश का उल्लंघन करने पर उनकी पेंशन रोकी भी जा सकती है. इससे संकेत ग्रहण करते हुए सैन्य मामलों के विभाग ने प्रस्ताव रखा है कि सेनाओं को भी आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जाए.
आश्चर्य नहीं कि आज़ादी के बाद भारत ने सैन्य इतिहास से सबक नहीं सीखा और गलतियां दोहराता रहा है. मैं यहां प्रामाणिक सैन्य इतिहास लिखने के खराब रिकॉर्ड का विश्लेषण करूंगा और उसे हाल के सैन्य अभियानों और संकटों से जोड़ने की कोशिश करूंगा.
यह भी पढ़ें: कम कीमत वाले ड्रोन्स से उभरते खतरे लेकिन भारत अभी इस चुनौती से निपटने के लिए तैयार नहीं दिखता
खराब रिकॉर्ड की वजहें
सरकारें और सेनाएं इस दहशत में रहती हैं कि उनकी सैन्य विफलताएं दुनिया को पता न लग जाएं और उन्हें उनके लिए जवाबदेह न बनाया जाए. इसलिए किसी भी संकट के मामले में लीपापोती, झांसा और बड़बोलेपन की सामूहिक कोशिश की जाती है.
सेना को दिए गए राजनीतिक निर्देशों को औपचारिक रूप से रिकॉर्ड नहीं किया जाता और ऑपरेशनों से संबंधित आदेशों को कभी अवर्गीकृत नहीं किया जाता. पूरा ज़ोर इस बात पर रहता है कि घरेलू राजनीति में अपनी बढ़त कैसे बनाई जाए.
विडंबना यह है कि सभी सरकारें यही कोशिश करती हैं कि पुरानी विफलताओं का खुलासा न हो ताकि उन्हें भविष्य में जवाबदेह न बनाया जाए. यही मुख्य वजह है कि 1962, 1965, 1971 की लड़ाइयों से जुड़े दस्तावेजों को अवर्गीकृत नहीं किया गया है.
सेना ने जो लड़ाइयां लड़ीं और अभियान चलाए उनका ईमानदारी से रिकॉर्ड न रखने के लिए वह खुद भी दोषी है. यूनिट युद्ध डायरियां अतिशयोक्तियों और तथ्यों के तोड़मरोड़ से भरी हैं ताकि रेजीमेंटों की साख बढ़े, विफलताओं पर पर्दा डाला जा सके और ज्यादा से ज्यादा पुरस्कार हासिल किए जा सकें. यही हाल ऊंचे मुख्यालयों की युद्ध डायरियों का है. यहां तक कि ‘सीखे गए सबक’ के साथ भी तोड़मरोड़ किया जाता है ताकि विफलताओं की लीपापोती की जा सके.
लड़ाई की गंभीरता को बढ़ा-चढ़ाकर लिखने की सनक-सी है, भले ही मिशन कम नुकसान के बावजूद हासिल किया गया हो, जो कि सैन्य दक्षता की पराकाष्ठा होती है. आधुनिक तकनीक के कारण युद्ध में व्यक्तिगत/सामूहिक शौर्य दुर्लभ हो गया है लेकिन शौर्य पुरस्कारों की कसौटी वही है. इसलिए यूनिटें काल्पनिक कहानी गढ़ती हैं, जिनकी गहरी जांच करने की जगह ऊंचे मुख्यालय कमांडरों की प्रतिष्ठा की खातिर उन्हें खुशी से मान्यता दे देते हैं.
हमारे विश्वविद्यालयों में या असैनिक विद्वानों द्वारा सैन्य इतिहास पर शायद ही कोई शोध किया जाता है. सैन्य लेखकों के विवरण अपनी साख बचाने या संगठन के प्रति वफादारी दिखाने के रंग से रंगे होते हैं. यहां तक कि कामयाब कमांडरों की जीवनी भी निष्पक्षता से नहीं लिखी होती. भविष्य के लिए प्रामाणिक रिकॉर्ड दर्ज करने के अभाव में अधिकतर विद्वान अंतिम नतीजे के निष्पक्ष आकलन पर ही भरोसा करते हैं.
यह भी पढ़ें: वायुसेना महज ‘सहायक’ नहीं है, CDS और सेना प्रमुखों को बिना पूर्वाग्रह के फिर से विचार करना चाहिए
धूमिल भविष्य
रक्षा मंत्री के नीतिगत वक्तव्य के बाद मुझे कोई उम्मीद नहीं नज़र आती.
नरेंद्र मोदी सरकार और सेना ने 2016 के सर्जिकल हमले, 2019 के बालाकोट हवाई हमले और पूर्वी लद्दाख में जारी संकट के ब्योरे जिस तरह दिए हैं और उनका रिकॉर्ड जिस तरह रखा है उससे साफ है कि भविष्य के लिए कोई प्रामाणिक विवरण कभी नहीं लिखा जा सकेगा.
भारत की स्पेशल फोर्सेज़ ने नियंत्रण रेखा के डेढ़-दो किमी पार सामरिक हमला किया और इसे रणनीतिक ऑपरेशन नाम दे दिया गया. इसमें कोई शक नहीं है कि इसका घोषित मकसद सरकार द्वारा राजनीतिक रूप से रणनीतिक कार्रवाई करना था. वह सर्जिकल स्ट्राइक दरअसल दुश्मन के क्षेत्र में सतही घुसपैठ करके बिना आमने-सामने की टक्कर के किया गया हमला था. फिर भी अनुकूल मीडिया ने इसका महिमामंडन किया और इस पर फिल्में बनाई गईं.
रणनीति से ताल्लुक रखने वाली जमात बालकोट हवाई हमले के सरकारी आख्यान पर भी हैरत में हैं. हमले की सटीकता, बालकोट में मारे गए दुश्मनों की संख्या और पूरे हवाई हमले की उपलब्धि को लेकर काल्पनिक दावे किए गए. एक्शन को रिकार्ड करने के सारे साधन उपलब्ध थे फिर भी ठोस सबूत का एक टुकड़ा तक नहीं पेश किया गया, जो कि ऐसे ऑपरेशनों की विश्वसनीयता के लिए जरूरी है. सरकार या वायुसेना इस ऑपरेशन की निष्पक्ष रिपोर्टिंग को कैसे मंजूर करेगी?
मई 2020 से पूर्वी लद्दाख में जो चल रहा है वह धुंध की चादर में लिपटा है और सरकार और सेना के भ्रामक आख्यान आपसी सहयोग से राजनीतिक, रणनीतिक और सामरिक विफलताओं की लीपापोती कर रहे हैं. सार्वजनिक तौर पर जो सूचनाएं उपलब्ध हैं वे अनाम सरकारी/सैन्य सूत्रों द्वारा थोपी गई हैं. उनका कहना है कि रणनीति या खुफिया तंत्र के स्तरों पर कोई विफलता नहीं हुई है, हमारे नियंत्रण वाले क्षेत्र में कोई अतिक्रमण नहीं हुआ है. फिर भी, सीमा पर भारी सैनिक जमावड़ा है और सरकार अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल किए जाने की मांग कर रही है. चीन अपनी उपलब्धियों पर संतुष्ट होकर खामोश बैठा है और भारतीय आख्यान पर रोशनी डालता रहता है.
1962 के युद्ध का निष्पक्ष अध्ययन साबित कर देता कि 1959 वाली चीनी दावा रेखा का रणनीतिक महत्व क्या है. जब तक सैन्य रूप से जमीन पर हालात को बदल नहीं देते तब तक दौलत बेग ओल्डी सेक्टर पैंगोंग त्सो झील के उत्तर-पूर्व के क्षेत्र को युद्ध की स्थिति में बचाए रख पाना मुश्किल होगा.
इसमें कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि हम अपनी पिछली गलतियों और विफलताओं से सबक लेना तो दूर, अपनी काल्पनिक सैन्य सफलताओं पर इठलाते रहते हैं. 34 साल में पहली बार 29 जुलाई को सरकार आईपीकेएफ के अभियान को याद करेगी. साहस और बलिदान की प्रशंसा की जाएगी और राजनीतिक लाभ उठाया जाएगा. लेकिन उस अभियान का कोई अधिकृत इतिहास नहीं प्रकाशित किया जाएगा. अगर हम सैन्य इतिहास दर्ज करने के अपने तौर-तरीके में मूलभूत सुधार नहीं करते तो हम गलतियां दोहराते रहेंगे.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: इटली में हिमालय से भी दुर्गम इलाकों में भारतीय सैनिकों ने युद्ध में कैसे शानदार जौहर दिखाए थे