नई दिल्ली: ऐसे में जब मोदी सरकार 2021-22 के लिए, केंद्रीय बजट तैयार करने में लगी है- जिसे अर्थव्यवस्था पर महामारी के असर को देखते हुए, इसका सबसे मुश्किल बजट समझा रहा है- एक आवंटन जिस पर सबसे क़रीबी नज़र रहेगी, वो है फ्लैगशिप ग्रामीण रोज़गार गारंटी स्कीम, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा).
मनरेगा, जिसमें काम के ज़रूरतमंद हर ग्रामीण घर को साल में 100 दिन के काम का वादा किया गया है, के बजट आवंटन में तब से लगातार इज़ाफा हो रहा है, जब फरवरी 2006 में यूपीए 1 सरकार ने इसे शुरू किया था.
पिछले केंद्रीय बजट में, स्कीम के लिए 61,500 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे. लेकिन जब सरकार को महामारी के कठोर असर से जूझना पड़ा, जिसमें लोगों के काम छूट गए और प्रवासी मज़दूर अपने वतन लौटने को मजबूर हो गए, तो इस ग्रामीण योजना को, अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, और इसकी कुल राशि बढ़कर, एक लाख करोड़ रुपए हो गई.
स्कीम की निगरानी करने वाले, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार, 2021-22 के वार्षिक बजटीय आवंटन के लिए, चालू वित्त वर्ष के 61,500 करोड़ में, 18 प्रतिशत वृद्धि की मांग की गई है.
लेकिन, चूंकि महामारी के चलते स्कीम को पहले ही काफी बढ़ावा मिल चुका है, इसलिए मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा, कि उन्हें अपेक्षा है कि आवंटन में वृद्धि, 10 प्रतिशत के आसपास हो सकती है.
दिप्रिंट ने ग्रामीण विकास मंत्रालय में, संयुक्त सचिव और मनरेगा प्रभारी रोहित कुमार से टिप्पणी के लिए संपर्क करना चाहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
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स्टेटस
महामारी और उससे बाद लॉकडाउन के बीच, जो लगभग तीन महीना चला, प्रवासी मज़दूरों की घर वापसी पर, अपेक्षा की गई कि इस झटके से उबरने में, मनरेगा एक कुशन का काम करेगा.
इस प्रकार, विपरीत प्रवास के असर के चलते, 2020 वित्त वर्ष के आधे में ही, स्कीम पर 64,000 करोड़ रुपए ख़र्च किए जा चुके थे.
यही रुझान अभी जारी है. ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2020-21 में अभी तक, मनरेगा पर 86,933 करोड़ रुपए, पहले ही ख़र्च किए जा चुके हैं, जो पिछले साल के 68,261 करोड़, और 2018-19 के 69,681 करोड़ से अधिक हैं.
आंकड़ों से ये भी पता चला कि अभी तक स्कीम के तहत, 313 करोड़ दिन की मज़दूरी पहले ही पैदा की जा चुकी है, जो पिछले वित्त वर्ष के 265 करोड़ से क़रीब 18 प्रतिशत अधिक है. ये तब है जब पूरे वित्त वर्ष के आंकड़े आने बाक़ी हैं, जिसके बाद ये अंतर और बढ़ जाएगा.
इस वित्त वर्ष में अभी तक कुल 6.96 करोड़ घरों को, पहले ही रोज़गार मुहैया कराया जा चुका है, जो वित्त वर्ष 2019-20 के 5.48 करोड़, 2018-19 के 5.27 करोड़, और 2017-18 के 5.12 करोड़ से ज़्यादा है.
कई सूबे मंत्रालय पर दबाव डाल रहे हैं कि अगले वित्त वर्ष के लिए मनरेगा आवंटन में बड़ी वृद्धि की जाए, चूंकि महामारी के दौरान अधिक मांग की वजह से, ज़्यादातर राज्यों के फंड्स, 2020 की दूसरी तिमाही में ही ख़त्म हो गए हैं.
मनरेगा के लिए राशि, राज्यों के श्रम बजट के हिसाब से जारी की जाती है, जो आमतौर से पिछले वर्ष के दिसंबर में मंज़ूर हो जाता है. मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि इसकी वजह से बजट में, कोविड-19 संकट और मज़दूरी की मांग में, बढ़ोतरी की प्रत्याशा नहीं की गई, जिससे बहुत से राज्यों में मनरेगा राशि का बैलेंस, दूसरी तिमाही में ही निगेटिव हो गया.
मसलन, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और बिहार जैसे राज्यों में, सरकारों को मजबूरन क्रमश: 1,083 करोड़, 616 करोड़, और 749 करोड़ तक, अधिक रक़म निकालनी पड़ी है.
लेकिन, अधिनियम में कहा गया है कि सरकार, काम की मांग करने वाले हर घर को, 100 दिन का काम मुहैया कराएगी, और इसलिए क़ानूनन इसी हिसाब से, धनराशि उपलब्ध करानी पड़ेगी. इसलिए इसका आवंटन काफी हद तक एक संकेत होता है.
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राजनीतिक अहमियत
मनरेगा राजनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण स्कीम रही है. ये बात, 2014 के बाद बीजेपी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार आने के बाद भी स्कीम के लगातार बढ़ते बजटीय आवंटन से, ज़ाहिर होती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में संसद के अंदर, इसे ‘यूपीए की असफलताओं का एक जीवित स्मारक’ क़रार दिया था, लेकिन उनकी सरकार स्कीम पर विशेष बल दे रही है, फंडिंग के मामले में भी, और इसके कार्यान्वयन की राह में आने वाली ख़ामियों को दूर करने में भी.
कांग्रेस ने स्कीम की आलोचना करने के लिए, मोदी पर हमला बोलते हुए कहा है कि बढ़ा हुआ बजटीय आवंटन, उनके दावे की पोल खोलता है.
मनरेगा के लिए धनराशि 2006-07 में करीब 11,000 करोड़ से बढ़कर, 2009-10 में 40,000 करोड़, 2017-18 में 48,000 करोड़, 2019-20 में 60,000 करोड़, और अब 1 लाख करोड़ हो गई है.
मनरेगा न केवल विरोधी पार्टियों, बल्कि सरकारों के बीच भी राजनीतिक रूप से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है.
उदाहरण के तौर पर, 2013 में जब तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने, मनरेगा की धनराशि में कटौती की, तो तब के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने, उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर, इस ‘भीषण कटौती’ पर विरोध प्रकट किया.
मोदी सरकार ने भी मनरेगा के एक शहरी रूप पर विचार किया है- जिस पर यूपीए शासनकाल के दौरान भी अनौपचारिक रूप से बात की गई थी, जब पीसी जोशी और विलासराव देशमुख ग्रामीण विकास मंत्री थे.
लॉकडाउन के दौरान, आवास और शहरी मामलों के केंद्रीय मंत्रालय ने, राज्यों के साथ बैठकें करके, एक लाख से कम आबादी वाले शहरी केंद्रों में, मनरेगा की तर्ज़ पर सुनिश्चित रोज़गार सृजन के लिए, एक स्कीम पर विचार विमर्श किया, लेकिन फिर धन की कमी के चलते, इस विचार को रोक दिया गया.
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