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Sunday, 13 October, 2024
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कभी कॉलेज का छात्र, अब एक सफल वकील- कैसे आक्रोश ने इस मुस्लिम युवक को बनाया ‘PFI का सदस्य’

पीएफआई सदस्य ने बताया कि ‘अड्डा’ चर्चाओं में अल्लाह के संदेश, सरकार की ‘मुस्लिम विरोधी नीतियों’ और ‘मुसलमानों की एकजुट आवाज’ बनने की जरूरत के नाम पर कैसे युवाओं को लुभाया जाता है.

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नई दिल्ली: राजस्थान के अपने गृह नगर स्थित एक रेस्टोरेंट में बैठा 18 वर्षीय एक छात्र भारत की सांप्रदायिक स्थिति पर एक तीखी चर्चा सुना रहा है, मुसलमानों की स्थिति के बारे में जानकर उसका आक्रोश और बढ़ने लगता है. और वह अपने समुदाय के लिए कुछ करने के लिए व्यग्र हो उठता है. उसने जो कुछ सुना, उसी ने उसे एक ऐसे संगठन का वालंटियर बनने को प्रेरित कर दिया जिसके बारे में वह तब तक कुछ जानता भी नहीं था—और वह संगठन था पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई). केंद्र सरकार ने बुधवार सुबह इसी सगंठन को कथित जिहादी आतंकवाद से लिंक के कारण प्रतिबंधित किया है.

अब सात साल बाद, राजस्थान का वह छात्र नई दिल्ली में एक सफल वकील बन चुका है, लेकिन पीएफआई में सक्रिय रहता है. उसने चाय की चुस्कियां लेते हुए कहा, ‘हमें पता था कि यह दिन आएगा. मैं तो यही सोच रहा हूं कि उन्होंने अभी तक मुझे क्यों नहीं उठाया. जितने लोगों को मैं जानता हूं उसमें से कोई नहीं बचा है.’

पीएफआई में शामिल होने की शर्तें ऐसी नहीं थीं जो किसी सामान्य किशोर को आकर्षित कर सकें. उस समय यानी 2015 में पीएफआई के जिला अध्यक्ष ने अब वकील बन चुके इस छात्र को बताया था कि सदस्यों को शराब, तंबाकू उत्पादों के सेवन, विवाह पूर्व यौन संबंध आदि की अनुमति नहीं होगी. इसके अलावा सदस्यों को पाक-साफ, पांच वक्त की नमाज पढ़ने वाला होना चाहिए और उनके लिए दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों से दूरी बनाना भी जरूरी होगा.

वकील ने बताया, ‘मैं पहले से ही एक अच्छा मुसलमान था, इसलिए उन्होंने मुझे तुरंत शामिल कर लिया, और अब सात साल हो चुके हैं. कोई सदस्यता कार्ड नहीं दिया गया था, केवल संगठन के नियम-कायदों से जुड़ी एक बुकलेट दी जाती है.’

वकील ने कहा कि महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग जगहों, संगठनों और सभाओं की ‘मुस्लिम परंपरा’ के मद्देनजर पीएफआई में केवल पुरुष सदस्य ही हैं. हालांकि, इसकी एक महिला विंग है जिसे राष्ट्रीय महिला मोर्चा कहा जाता है. साथ ही कई अन्य संबद्ध संगठन जैसे रिहैब इंडिया फाउंडेशन, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया, ऑल इंडिया इमाम काउंसिल, नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइजेशन, जूनियर फ्रंट और एम्पावर इंडिया फाउंडेशन आदि भी हैं. इन सभी को अगले पांच वर्षों के लिए ‘गैरकानूनी’ घोषित किया गया है.

सुरक्षा एजेंसियों का दावा है कि पीएफआई ने पिछले कुछ वर्षों में अपना आधार तेजी से बढ़ाया है. वकील इस बात से सहमत हैं लेकिन कहते हैं कि आरएसएस विरोधी और हिंदुत्व विरोधी रुख के कारण लोग संगठन में शामिल हुए हैं. उन्होंने कहा, ‘हम एकजुट करने वाली ताकत हैं. कोई भी पीएफआई के दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटता, धर्म कोई मायने नहीं रखता.’


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‘अड्डा’ के जरिए भर्ती, ‘जकात’ से फंडिंग

वकील के मुताबिक, पीएफआई किसी औपचारिक भर्ती अभियान के जरिये कैडर भर्ती नहीं करता है. इसके बजाये, अड्डा या परिचर्चा कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, जहां संगठन के कामकाज आदि पर चर्चा होती है और बताया जाता है कि भारत में ‘मुसलमानों की आवाज’ को एकजुट होकर मजबूत करने की कितनी जरूरत है.

उन्होंने बताया, ‘जब कोई पीएफआई के बारे में सुनता है तो वे सदस्यों, समर्थकों और वालंटियर से संपर्क साधते हैं जो उन्हें वरिष्ठ पदाधिकारियों के पास ले जाते हैं.’

वकील ने बताया कि नए सदस्यों का पहला काम समर्थन जुटाना होता है—पीएफआई के विचारों के बारे में बताना, अल्लाह का संदेश फैलाना और दूसरों को सरकार की कथित ‘मुस्लिम विरोधी नीतियों’ पर चर्चा में शामिल होने के लिए आमंत्रित करना. यह शुरू में पोस्टर लगाने और चैट ग्रुप पर मैसेज फॉरवर्ड करने के जरिये किया जाता है.

उन्होंने बताया कि पीएफआई मुख्यत: चार मोर्चे पर ज्यादा काम करता है—शिक्षा, आर्थिक राहत, कानूनी सहायता और मुस्लिम विरोधी नीतियों के खिलाफ विरोध जताना. हर माह एजेंडा तैयार होता है और अभियान की रूपरेखा तय की जाती है. पीएफआई सदस्यों के लिए महीने में कम से कम एक बार पार्टी कार्यालय में मिलने का नियम है.

संगठन का दावा है कि उसने असम और बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में राहत कार्य किया है, और कोविड के दौरान पीपीई किट और ऑक्सीजन सिलेंडर भी वितरित किए हैं.

वकील ने यह दावा भी किया कि लाखों भारतीय इस संगठन का हिस्सा हैं, जिनमें से अधिकांश दक्षिण भारत से हैं. लेकिन कई अन्य लोग भी हैं जो संगठन के साथ ‘सहानुभूति रखते हैं.’

उन्होंने कहा कि पीएफआई फंडिंग के लिए मुख्यत: चंदे पर निर्भर है. साथ ही जोड़ा, ‘इसका एक बड़ा हिस्सा रमज़ान के महीने में मिलने वाली जकात (धार्मिक चंदे) के माध्यम से आता है.’

आतंकी  होने का आरोप लगाए जाने पर

पीएफआई को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत पांच साल के लिए प्रतिबंधित करने संबंधी अपनी अधिसूचना में गृह मंत्रालय (एमएचए) ने कहा है कि संगठन ‘आतंकवाद से जुड़े कई मामलों’ में शामिल रहा है और इसने ‘देश की सुरक्षा और कानून-व्यवस्था’ को खतरे में डाल दिया है.’

पीएफआई पर प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) की ही एक शाखा होने का भी आरोप है. इसके खिलाफ प्रमुख आरोपों में 2020 के दिल्ली दंगों के लिए फंडिंग करना, 2020 हाथरस बलात्कार और हत्या मामले के मद्देनजर हिंसा भड़काना और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के विरोध के लिए वित्तीय और साजो-सामान के स्तर पर सहायता प्रदान करना आदि शामिल हैं.

इसके अलावा, जांच एजेंसियों ने यह आरोप भी लगाया है कि इसने ‘आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने’ के लिए फंडिंग, भर्ती और ट्रेनिंग कैंप का आयोजन किया.

हालांकि, वकील ने ऐसे सभी आरोपों से इनकार किया है. पीएफआई के कुछ सह-संस्थापक सिमी से जुड़े थे लेकिन उन्होंने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि यह उसी संगठन की शाखा है.

उन्होंने कहा, ‘पीएफआई की नींव बाबरी मस्जिद को ध्वस्त होने (1992 में) के दो साल बाद पड़ी. सिमी को 2001 में प्रतिबंधित किया गया था. हमारे संगठन में राजनीतिक दलों के पूर्व सदस्य भी हैं. लेकिन केवल सिमी की बात करना और कुछ नहीं बल्कि पीएफआई को एक कुख्यात संगठन के तौर पर चित्रित करने की कोशिश भर है.’

पीएफआई का आधिकारिक तौर पर यही कहना है कि यह संगठन 2006 में दक्षिण भारत के तीन संगठनों के विलय के साथ अस्तित्व में आया था—केरल का नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट (एनडीएफ, 1994 में स्थापित), कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी (केएफडी), और तमिलनाडु का संगठन मनीथा नीति परसाई (एमएनपी).

सशस्त्र प्रशिक्षण और आतंकी फंडिंग पर वकील का कहना था, ‘सुरक्षा एजेंसियों से हमें फोटो और वीडियो दिखाने के लिए कहिए. यह सब सोची समझी चाल है—पहले उन्होंने पीएफआई को बदनाम किया, हमारे लोगों को गिरफ्तार किया और अब जनभावना अपने साथ करने के लिए इस तरह की बातें कर रहे हैं, और अगला कदम प्रतिबंध लगाना ही है.’

उनके मुताबिक, पीएफआई को ‘बदनाम’ करने के हरसंभव प्रयास किए गए. उन्होंने कहा, ‘जब भी उन्हें किसी को निशाना बनाना होता तो उसका नाम पीएफआई के साथ जोड़ देते हैं. सिद्दीकी कप्पन को देखो, उमर खालिद को देखो. शाहीन बाग के आंदोलन से पीएफआई का कोई लेना-देना नहीं था. यह सब प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाने के लिए किया गया.’

केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को अक्टूबर 2020 में हाथरस जाते समय रास्ते में गिरफ्तार किया गया था, जहां एक दलित युवती बलात्कार की शिकार बनी थी. कप्पन पर आरोप लगाया गया कि वह शांति भंग करना चाहते थे और उनके पीएफआई के साथ ‘गहरे रिश्ते’ हैं. वहीं, उमर खालिद फरवरी 2020 के दिल्ली दंगे के मामले में आरोपियों में से एक है, जिसका पुलिस ने पीएफआई से लिंक बताया है.

तनावपूर्ण माहौल

पिछले कुछ दिनों में पुलिस की ‘कार्रवाई’ के बाद, जिसमें 106 लोग गिरफ्तार किए गए और 250 को हिरासत में लिया गया, अब पीएफआई की आधिकारिक वेबसाइट को हटा दिया गया है और शाहीन बाग में इसका कार्यालय सील हो गया है.

पीएफआई सदस्यों के परिजन और परिचित भी परेशान हैं. दिप्रिंट ने जब कुछ गिरफ्तार सदस्यों के परिजनों से बात की तो उन्होंने बताया कि उन्होंने पीएफआई से जुड़े किसी भी व्यक्ति के फोन नंबर हटा दिए हैं.

वकील ने बताया, ‘जब भी स्थानीय पुलिस को पता चलता है कि किसी छात्र को पीएफआई सदस्यों से बात करते देखा गया है तो उन्हें चेतावनी दी जाती है कि ‘क्रांति करोगे तो जेल जाओगे.’

बहरहाल, उन्होंने जैसे ही चाय खत्म की और अपनी स्कूटी उठाकर चलने लगे, सीआरपीएफ के कुछ जवान शाहीन बाग की गलियों से गुजरते नजर आए.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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