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Wednesday, 6 November, 2024
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क्या है सतलुज-यमुना लिंक विवाद जिसकी वजह से पंजाब और हरियाणा में दशकों से चल रहा टकराव

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने यमुना-सतलुज लिंक विवाद को हल करने के लिए पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई. हरियाणा ने परियोजना का अपना हिस्सा जून 1980 तक पूरा कर लिया था.

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चंडीगढ़: विवादास्पद सतलुज-यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की 19 जनवरी को सुनवाई होनी है. इसके पहले केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ बुधवार को इस मुद्दे को सुलझाने के लिए एक बैठक की है.

इस मुद्दे पर दोनों पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की यह दूसरी बैठक होगी. इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 6 सितंबर को खट्टर और मान को केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के तत्वावधान में मिलने के लिए दशकों से चली आ रही इस समस्या के एक सौहार्दपूर्ण समझौते पर बातचीत करने के लिए कहा था.

दोनों मुख्यमंत्रियों ने 14 अक्टूबर को चंडीगढ़ में मुलाकात की, लेकिन बैठक बेनतीजा रही और मान ने कहा कि उनके राज्य के पास ‘हरियाणा के साथ साझा करने के लिए पानी की एक बूंद भी नहीं है’ और खट्टर ने बाद में कहा कि इस मुद्दे पर यह उनकी ‘अंतिम बैठक’ थी.

चूंकि दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने-अपने रुख पर अड़े हुए हैं, ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या केंद्रीय मंत्री दोनों मुख्यमंत्रियों को किसी सहमति पर पहुंचने में मददगार हो पाते हैं.

तो, दिप्रिंट बता रहा है कि क्या है एसवाईएल नहर का मुद्दा जो चार दशकों से दोनों राज्यों के बीच विवाद का विषय बना रहा है?


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वॉटर वॉर

1966 में पुनर्गठन से पहले जब पंजाब के संसाधनों को दो राज्यों के बीच विभाजित किया जाना था, तो अन्य दो नदियों, रावी और ब्यास के पानी के बंटवारे की शर्तों को लेकर कोई फैसला नहीं हो पाया.

हालांकि, राइपेरियन (नदी किनारों के क्षेत्रों) सिद्धांतों का हवाला देते हुए, पंजाब ने हरियाणा के साथ दो नदियों के पानी के बंटवारे का विरोध किया. राइपेरियन वाटर राइट्स का सिद्धांत एक ऐसी प्रणाली है जिसके तहत किसी जल निकाय से सटे भूमि के मालिक को पानी का उपयोग करने का अधिकार है. पंजाब का यह भी कहना है कि उसके पास हरियाणा के साथ साझा करने के लिए अतिरिक्त पानी नहीं है.

पंजाब के पुनर्गठन के एक दशक बाद, केंद्र ने 1976 में एक अधिसूचना जारी की कि दोनों राज्यों में से प्रत्येक को 3.5 मिलियन एकड़-फीट (एमएएफ) पानी प्राप्त होगा.

फिर, 31 दिसंबर, 1981 को, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान ने ‘समग्र राष्ट्रीय हित और पानी के बेहतर उपयोग के लिए’ रावी और ब्यास के पानी को फिर से आवंटित करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. समझौता उपलब्ध पानी को फिर से आवंटित करने पर आधारित था. ब्यास और रावी में बहने वाले पानी का अनुमान 17.17 एमएएफ था. तीनों राज्यों के समझौते के तहत इसमें से 4.22 एमएएफ पंजाब को, 3.5 एमएएफ हरियाणा को और 8.6 एमएएफ राजस्थान को आवंटित किया गया था.

सतलुज और यमुना को जोड़ने वाली 211 किलोमीटर लंबी प्रस्तावित सतलुज-यमुना लिंक नहर की योजना 1966 में हरियाणा को पंजाब से अलग करने के बाद बनाई गई थी. जबकि नहर का 121 किमी हिस्सा पंजाब में बनाया जाना था, और 90 किमी हरियाणा में बनाया जाना था.

जबकि हरियाणा ने जून 1980 तक अपने क्षेत्र में परियोजना पूरी कर ली थी, पर पंजाब में काम 1982 में शुरू हुआ था. लेकिन विपक्षी दल शिरोमणि अकाली दल (SAD) के विरोध के कारण इसे रोक दिया गया.

नहर, रुका हुआ काम और उग्रवाद

एसवाईएल नहर के निर्माण कार्य की शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 अप्रैल, 1982 को पंजाब के पटियाला जिले के कपूरी गांव के पास की थी. इसके चलते अकाली दल ने एसवाईएल नहर के विरोध में कपूरी मोर्चा शुरू किया.

जुलाई 1985 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एसएडी प्रमुख हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें पानी के बंटवारे का आकलन करने के लिए एक नया न्यायाधिकरण स्थापित करने पर सहमति हुई.

अगले साल, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी. बालकृष्ण इरादी की अध्यक्षता में रावी और ब्यास जल न्यायाधिकरण की स्थापना की गई, जो पंजाब, हरियाणा और राजस्थान द्वारा शेष जल में उनके हिस्से के दावे के पानी के उपयोग की मात्रा के सत्यापन के लिए किया गया था.

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी बालकृष्ण एराडी की अध्यक्षता में रावी और ब्यास जल न्यायाधिकरण या एराडी न्यायाधिकरण की स्थापना की गई थी. 1987 में, इसने सिफारिश की कि पंजाब और हरियाणा की हिस्सेदारी को बढ़ाकर क्रमशः 5 एमएएप और 3.83 एमएएफ तक बढ़ाया जाए.

जल्द ही, पंजाब में उग्रवाद में वृद्धि देखी गई और नहर निर्माण दोनों राज्यों के बीच एक प्रमुख मुद्दा बन गया. राजीव गांधी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के एक महीने बाद उग्रवादियों ने लोंगोवाल की हत्या कर दी.

1988 में मजत गांव के पास परियोजना पर काम कर रहे कई मजदूरों की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिससे निर्माण कार्य ठप हो गया. 1990 में, आतंकवादियों ने मुख्य अभियंता एमएल सेखरी और अधीक्षण अभियंता अवतार सिंह औलख की हत्या कर दी.


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शीर्ष अदालत में

1996 में, हरियाणा सरकार ने इस मुद्दे को लेकर उच्चतम न्यायालय का रुख किया.

2002 में, शीर्ष अदालत ने पंजाब को एसवाईएल पर काम जारी रखने और इसे एक साल के भीतर पूरा करने का निर्देश दिया. हालांकि, राज्य ने SC के आदेश के खिलाफ एक समीक्षा दायर की, लेकिन याचिका खारिज कर दी गई.

2004 में, शीर्ष अदालत के आदेशों के बाद, केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) को पंजाब सरकार से नहर का काम लेने के लिए नियुक्त किया गया था. हालांकि, पंजाब विधानसभा ने पंजाब टर्मिनेशन ऑफ़ एग्रीमेंट्स एक्ट (पीटीएए) पारित किया, जिसने पड़ोसी राज्यों के साथ अपने सभी नदी जल समझौतों को रद्द कर दिया. तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने उसी वर्ष इसकी वैधता पर निर्णय लेने के लिए इस विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय में भेज दिया.

यह मामला 2016 में शीर्ष अदालत में सुनवाई के लिए आया था. राष्ट्रपति के अनुरोध के जवाब में, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने 10 नवंबर, 2016 को पीटीएए को अलग कर दिया था, एक ऐसा कानून जिसने हरियाणा के साथ पंजाब के जल बंटवारा समझौते को एकतरफा रूप से समाप्त कर दिया था…

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘पंजाब अधिनियम को संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं कहा जा सकता है और उक्त अधिनियम के आधार पर, पंजाब यहां दिए गए निर्णय और डिक्री को रद्द नहीं कर सकता है और दिसंबर 1981 के समझौते को समाप्त नहीं कर सकता है.’

हालांकि, कुछ दिनों बाद, पंजाब ने नहर के लिए अधिगृहीत की गई 5,376 एकड़ भूमि को गैर-अधिसूचित कर दिया और इसे उसके मूल मालिकों को मुफ्त में लौटाने की घोषणा की.

फरवरी 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसले पर कायम रहते हुए एक और आदेश जारी किया कि एसवाईएल के निर्माण को क्रियान्वित किया जाना चाहिए और हरियाणा और पंजाब को ‘किसी भी कीमत पर’ कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए कहा.

कोर्ट ने कहा, ‘हम निर्देश देते हैं कि पंजाब और हरियाणा में शांति बनाए रखना चाहिए. इस देश के प्रत्येक नागरिक को यह समझना चाहिए कि जब अदालत में कार्यवाही चल रही है, तो लंबित मुद्दे पर किसी भी तरह का आंदोलन नहीं होना चाहिए.’

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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