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Thursday, 25 April, 2024
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राजस्थान में दलितों को मजबूत कर रहा है सोशल मीडिया, अत्याचारों के खिलाफ नए हथियार बने हैं फोन

वर्तमान समय में जब दलितों के साथ हो रहे अपराध के वीडियो इंटरनेट पर वायरल होते हैं तो पुलिस और राज्य सरकारें उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पाती. आखिर क्या है इसकी वजह?

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बाड़मेर/जैसलमेर/जोधपुर/पाली: बारिश वाली एक ठंडी सुबह, राजस्थान के पाली में एक कमरे के अंदर एक लैपटॉप के चारों ओर पुलिसकर्मियों का जमघट है, जो एक वीडियो को जूम करके देख रहे हैं, जिसमें सिराना गांव में राजपूत लोगों का एक समूह, एक 27 वर्षीय गर्भवती दलित महिला और उसकी मां को पीट रहा है. उनका 27 वर्षीय बेटा अशोक मेघवाल असहाय होकर सिर्फ पिटाई देखते नहीं रहना चाहता था. उसने अपना चीनी रेडमी नोट फोन निकाला और उस घटना का एक वीडियो शूट कर लिया. लेकिन वो बस यहीं पर नहीं रुका. 2021 के शुरू में उसने इस वीडियो को ट्विटर पर वायरल कर दिया.

45 किलोमीटर का सफर तय करके अशोक ज़िला मुख्यालय पहुंचा ताकि वीडियो सबूत को पुलिस के हवाले कर सके, क्योंकि गांव में इंटरनेट सेवा अच्छी नहीं थी.

राजस्थान में सदियों से चली आ रही जातियों की लड़ाई में स्मार्टफोन ताज़ा हथियार बनकर उभरा है. इसका इस्तेमाल करके दलित लोग, दबंग जातियों द्वारा उनके ऊपर हो रहे अत्याचारों को दुनिया के सामने ला रहे हैं, जो सामाजिक व्यवस्था में निचले वर्गं का अभी भी दमन कर रहे हैं. तकनीक की अच्छी समझ रखने वाले दलित युवा, अपनी नई हासिल हुई और हाथ में आई ताकत का इस्तेमाल करके, दूर-दराज़ के गांवों से भी कानून व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली नौकरशाही को सूचित कर रहे हैं. लेकिन वायरल करना भी बहुत महत्वपूर्ण है. पुलिस जांच में तेज़ी तभी आई जब वीडियो के हज़ारों बार देखे जाने के बाद डीजीपी मोहन लाठर ने दखल दिया.

अपने गांव में हुई इस भयानक घटना के बाद अशोक मेघवाल और दो अन्य चश्मदीद कई घंटे तक पुलिस के साथ सर्किल ऑफिसर (सीओ) ग्रामीण के कक्ष में बैठे. अभियुक्तों की शिनाख़्त के लिए उन्होंने वीडियो को रोक-रोककर कई बार देखा. वीडियो में पुरुष महिलाओं को डंडों और ईंटो से मार रहे थे जबकि उसकी मां हाथ जोड़कर उनसे रहम की भीख मांग रही थी और उसके सर से खून बह रहा था.

पहली पीढ़ी का पढ़ा हुआ अशोक- जिसके पास बीए, बीएड और एमए की डिग्रियां हैं, घबराया हुआ नहीं था. उसके पास वो सारे सबूत थे जो उसे चाहिए थे- पूरे तीन मिनट के.

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Ashok Meghwal along with his mother and eye witnesses waiting at the SP's office at the police station, Pali, Rajasthan | Jyoti Yadav/ThePrint
आई-विटनेस के साथ अशोक मेघवाल | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

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कानून और नई सामाजिक व्यवस्था

पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी इस नए तथ्य को समझने की कोशिश कर रहे हैं. अब घटना की जांच कर रहे अतिरिक्त एसपी देवेंदर कुमार शर्मा ने कहा, ‘आजकल हर आदमी के पास फोन और मोटरसाइकल है. लेकिन हर वीडियो सही नहीं होता. इसका इस्तेमाल अक्सर दूसरे समुदाय को भड़काने के लिए किया जाता है’.

एक अन्य पुलिस अधिकारी ने आगे कहा कि समाज का हर तबका नौकरियां पा रहा है, उसे एक अच्छी जीवन शैली और सम्मानित जीवन मिल रहा है, इसलिए राजस्थान में सदियों से चली आ रही सामंती व्यवस्था बाधित हो रही है. तकनीक सबको बराबर कर देती है.

उन्होंने कहा, ‘वायरल हो रहे वीडियो इसी टकराव का नतीजा हैं’.

पाली ज़िला मजिस्ट्रेट अंश दीप का कहना है कि दलितों पर अत्याचार के मामले में अगर चश्मदीद गवाह मुकर जाते हैं, तो वीडियो एक ठोस सबूत बन जाता है.

Ashok Meghwal at the crime scene with police team investigating the content of the viral video | Jyoti Yadav/ThePrint
अपराध स्थल पर जांच करती पुलिस की टीम | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

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जातियों के हाथ में सेल फोन

मोबाइल फोन वीडियोज़ का इस्तेमाल न सिर्फ दलित, बल्कि ताकतवर राजपूत ग्रामीण भी कर रहे हैं. लेकिन इनका मकसद बिल्कुल अलग है.

अशोक मेघवाल की घटना के कुछ महीने बाद, एक और वीडियो वायरल हो गया. पाली से कोई 300 किलोमीटर दूर, एक सीमावर्ती गांव गिराब में, कुछ युवा राजपूत लड़के एक मेघवाल कब्रिस्तान गए. वो कूदकर मृतकों के ऊपर चढ़ गए, लाशों के कपड़े उतार दिए और कब्रों के अंदर जानवरों की हड्डियां रख दी. एक राजपूत लड़के को इस पूरे काम को रिकॉर्ड करने का ‘जिम्मा’ सौंपा गया. अगले दिन लड़कों ने इन वीडियोज़ को अपने व्हाट्सएप स्टेटस में लगा लिया और उन्हें मेघवाल समुदाय के कुछ लोगों को भी भेज दिया.

31 वर्षीय दामू राम जिसे वो वीडियो सबसे पहले मिला, बहुत नाराज़ हो गया चूंकि उसके अपने दादा और परदादा वहीं पर दफ्न थे.

राम ने कहा, ‘जब मैंने उन्हें मुर्दों को पीटते हुए देखा, तो उस वीडियो को अपने समुदाय के सदस्यों को भेज दिया’. कुछ दलितों ने उसे फेसबुक और ट्विटर पर अपलोड कर दिया और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, राज्य के डीजीपी, और एससी-एसटी आयोग को टैग कर दिया. पुलिस अधीक्षक ने फिर उसका संज्ञान लिया, एक एफआईआर दर्ज की और कुछ गिरफ्तारियां कीं.

पाली से 40 वर्षीय दलित कार्यकर्ता प्रहलाद राम ने कहा, ‘जातिवाद हमने पहले भी देखा था लेकिन ऐसा पहली बार है कि हमें अपमानित करने की कोशिश में उन्होंने मुर्दों तक को नहीं छोड़ा है’.

गिराव गांव में मेघवालों का कब्रिस्तान | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

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दलित और उनके हाथ में आई ताकत हो रहा वायरल

पाली के एसपी ऑफिस में बेचैन सा दिख रहा अशोक, प्रोफेसर और लेखक दिलिप मंडल तथा आंबेडकरवादी पत्रकार सुमित चौहान के ट्विटर प्रोफाइल्स खंगाल रहा है और बीच-बीच में दैनिक भास्कर एप और व्हाट्सएप ग्रुप्स देखने लगता है. राष्ट्रीय सुर्खियों में आने के बाद राज्य के डीजीपी ने उसका केस अतिरिक्त एसपी देवेंदर कुमार शर्मा के हवाले कर दिया. अशोक हिंदी अखबारों में जोधपुर तथा पाली में, दलितों पर हो रहे अत्याचार पर नज़र रखता है. उसका इंस्टाग्राम अकाउंट भी है लेकिन वो उसे बहुत कम इस्तेमाल करता है.

उसने दिप्रिंट से कहा, ‘उस दिन मुझे ट्विटर की ताकत का अहसास हुआ. पहले मैं व्हाट्सएप और फेसबुक पर समय बिताया करता था. उस दिन मैंने उसे फेसबुक या व्हाट्सएप पर अपलोड नहीं किया. मैंने ट्विटर इस्तेमाल किया. अगर ये ट्वीट न होता तो मेरा केस दर्ज भी न किया जाता.’

मेघवाल वीडियो को वायरल नहीं कर सकता था, अगर उसे दलित सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर्स की सहायता न मिलती.

Two policemen play a video for identification in a case, Pali police station | Jyoti Yadav/ThePrint
पाली पुलिस स्टेशन में वायरल वीडियो को देखते दो पुलिसकर्मी | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

ट्राइबल आर्मी के संस्थापक हंसराज मीणा एक ताकतवर आवाज़ बनकर उभरे हैं. करोली में जन्मे इस कार्यकर्ता को मालूम है कि किसी मुद्दे को ट्विटर पर ट्रेंड कैसे बनाया जाता है. उन्होंने कहा, ‘2019 में मैंने देखा कि राजनीतिक दल और सरकारें, सोशल मीडिया का इस्तेमाल प्रचार और शासन के लिए कर रही हैं. यही वो समय था जब मैंने ऐसे मुद्दों को ट्विटर इकोसिस्टम में लाना शुरू किया’. आज उनके 4,40,000 फॉलोअर्स हैं और 1,30,000 लोग ट्राइबल आर्मी से जुड़े हैं.

उन्होंने कहा, ‘कम से कम अब ये मामले पब्लिक डोमेन में हैं. पहले तो ये नज़र ही नहीं आते थे. 100 मामले जिनके बारे में मैं जानकारी डालता हूं, उनमें कम से कम 40 प्रतिशत का राज्यों द्वारा संज्ञान लिया जाता है. फिर मैं उन मामलों के पीछे लगता हूं और लोगों से कहता हूं कि आगे की कार्रवाई के लिए एसडीएम और डीएम से जाकर मिलें’.

किशन मेघवाल जो एक वकील हैं और जोधपुर हाई कोर्ट में वकालत करते रहे हैं, दलित शोषण मुक्ति मंच के सदस्य हैं, और उत्पीड़न के कई मामलों को उठाते हैं. वो कहते हैं, ‘पिछले एक साल में मैंने ऐसे कम से कम आधा दर्जन मामले अपने हाथ में लिए हैं- एक मामले में एक पेंचकस को पेट्रोल में डुबाकर एक दलित महिला के रेकटम में घुसा दिया गया, एक दलित महिला के साथ गैंगरेप हुआ और इस कृत्य को फिल्माया भी गया, मूछें उगाने पर एक दलित व्यक्ति को पेड़ से बांधकर बुरी तरह पीटा गया और एक अन्य दलित शख्स को बुलेट बाइक चलाने के लिए अपमानित किया गया. वायरल वीडियो से हमें मदद मिलती है, इससे पता चलता है कि ऐसा अत्याचार हुआ है. पहले तो पुलिस को समझाना ही नामुमकिन होता था’.

अपने कक्ष में बैठकर संविधान पढ़ते हुए और गर्व के साथ मूछों और एक टोपी के साथ, किशन कहते हैं कि जब उन्होंने गांवों में मूछें रखने पर नौजवानों को पिटते हुए देखा, तो उन्होंने अपना लुक भी बदलकर वैसा ही कर लिया.

‘वो मेरा मज़ाक़ उड़ा सकते हैं, लेकिन मेरी पिटाई नहीं कर सकते’.

जोधपुर के अपने दफ्तर में वकील किशन मेघवाल | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

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नई टेक्नोलॉजी, पुरानी रवायत

हालांकि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने एससी और एसटी लोगों को सशक्त किया है, कि वो अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को सबसे सामने ला सकें लेकिन भंवर मेघवंशी जैसे कुछ कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसने उन्हें अपमान का शिकार भी बनाया है.

दबंग जातियां फोन वीडियोज़ का इस्तेमाल निचली जातियों को धमकाने के लिए भी कर रही हैं. मसलन, 2019 में अलवर के थानागाज़ी गैंगरेप मामले में बलात्कारियों ने पीड़िता और उसके पति को लज्जित करने और खामोश करने के लिए रेप का वीडियो भी बना लिया. इसी तरह, भीलवाड़ा में जहां एक युवा दलित लड़के को बकरी चोरी के शक में एक पेड़ से बांधकर पीटा गया. अभियुक्तों ने वीडियो को इंटरनेट पर अपलोड कर दिया और पीड़ित गायब हो गया. जब ये वीडियो ट्विटर और फेसबुक पर वायरल हुआ, तो पुलिस ने एक एफआईआर दर्ज कर ली और पीड़ित को ढूंढ निकालने में सफल हो गई. कार्यकर्ता और पुलिस को घटना का पता तभी चलता है, जब वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाता है. उस समय तक पीड़ित का नाम सामने आ जाने के बाद, लज्जित हो चुका होता है.

कठिनाइयों के बावजूद, ये एक ऐसी लड़ाई है जिसे दलित जीत रहे हैं. इससे उनके रवैये में बदलाव आ रहा है और वो एक ऐसे परिदृश्य में उभरकर सामने आ रहे हैं, जो अन्यथा उन्हें नियमित रूप से नज़रअंदाज़ करता रहता है.

अशोक सोशल मीडिया और शिक्षा दोनों की ताकत से परिचित हैं. वो समझाता हुए कहता है, ‘अपने गांव में एससी समुदाय का हमारा पहला परिवार है, जिसने शिक्षा में निवेश किया है. बाकी सब अशिक्षित हैं और उनके पास कोई काम नहीं है’.

अशोक के पिता 57 वर्षीय मांगे लाल केवल नौवीं कक्षा तक पढ़ पाए थे. दबंग राजपूत समुदाय से लगातार धमकियां मिलने के बाद परिवार हाल ही में जोधपुर आ गया जहां उन्होंने एक कोचिंग सेंटर में एक सिक्योरिटी गार्ड के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. अशोक की बहन बीएससी करने के बाद अब बीएड कर रही है. उसका बड़ा भाई एक निजी बैंक में काम करता है.

बाड़मेर कलेक्टर ऑफिस पर, कुछ बुज़ुर्ग राजपूत कुर्सियों पर बैठे हैं, जहां एक दूसरे ब्लॉक के मेघवाल लोग भी बैठे हैं. दोनों ग्रुप यहां कलेक्टर से मिलने आए हैं. कुछ साल पहले तक इस बराबरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

आईआईटी रुड़की से ग्रेजुएट सुरेश जोगेश, जो अब एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, कहते हैं कि युवा दलित अब मुखर हो गए हैं. वो कहते हैं, ‘वो फेसबुक पर हैं और अगर कोई अधिकारी बदसलूकी करता है, तो वो बस अपने फेसबुक अकाउंट खोलते हैं और पूरे एपिसोड को स्ट्रीम कर देते हैं’.

लेकिन सारी हिंसा वायरल नहीं होती. अंतर बहुत स्पष्ट है.

गिराब की घटना से एक दिन पहले, बाड़मेर के छोटन ब्लॉक में, एक और दलित पिता-पुत्र पर दबंग जातियों ने हमला किया. गोहद-का-ताला गांव में 75 प्रतिशत निवासी दलित हैं. मेघवाल-राजपूत संघर्ष शराब के एक पुराने मुद्दे पर भड़क गया था.

रायचंद मेघवाल ने कहा, ‘वो मेरे बेटे रमेश को किसी अज्ञात जगह ले गए और वहां उसे अपना पेशाब पीने पर मजबूर किया’. छह महीने बीत जाने के बाद भी भीम सेना से जुड़ा होने के बावजूद वो लाचार महसूस करते हैं.

वो कहते हैं, ‘जो घटित हो रहा था उसे किसी ने रिकॉर्ड नहीं किया. यहां तक कि दलित भी मूक दर्शक बने देखते रहे. उनके पास मोबाइल्स थे लेकिन किसी में उसे रिकॉर्ड करने की हिम्मत नहीं थी. सभी अभियुक्त अब ज़मानत पर बाहर हैं. ये केस अब बरसों तक चलता रहेगा’.

रायचंद मेघवाल | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

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सार्वजनिक रूप से अदृश्य, निजी तौर पर सहनी पड़ती है पीड़ा

टेक्नोलॉजी अब राजस्थान में जातियों के प्रतिनिधित्व के गहरे असंतुलन को ठीक कर रही है. जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, और पाली ज़िलों में सार्वजनिक क्षेत्र में दलितों की गैर-मौजूदगी काफी स्पष्ट है. दुकानों, पोस्टरों और बिल बोर्ड्स पर कर्णी सेना और राजपूताना जैसे नाम खूब मिल जाएंगे. दबंग जातियों को आमतौर पर बन्ना या हुकुम कहकर संबोधित किया जाता है, जबकि दलितों को अपमानजनक उपनाम दिए जाते हैं- अशोक को अशोकिया कहा जाता है, जबकि मांगेलाल मांग्या बन जाता है. दबंग जातियां डॉ बीआर आंबेडकर को ‘भीमता’ बुलाती हैं लेकिन दलित लोग कर्णी सेना पर टिप्पणी नहीं कर सकते. कपड़ों से लेकर स्थानीय लोक कथाओं और घरों के निर्माण तक हर चीज़ से दबंग जातियों और दलितों के बीच का अंतर साफ उभर कर आता है.

इसलिए दलित अपनी फिज़िकल गैर-मौजूदगी को डिजिटल मौजूदगी में तब्दील कर रहे हैं. अपने व्हाट्सएप समूहों में वो बीआर आंबेडकर का, अपनी पहचान का और उन अधिकारों का जश्न मनाते हैं, जो संविधान ने उन्हें दिए हैं. उनके सभी वीडियोज़ उत्पीड़न के बारे में नहीं हैं. उनके इंस्टाग्राम अकाउंट्स में उन्हें मोटरसाइकिल चलाते, मज़े करते और अपने नायकों का जश्न मनाते दिखाया जाता है.

रामदेव मेघवाल जिन्होंने जेएनवी जोधपुर से एलएलबी पास किया है, ने कहा, ‘मैं इतने सारे ग्रुप्स के साथ जुड़ा हूं, जिनमें दूसरी जातियों के लोग भी शामिल हैं. उनके चुटकुलों तथा देध और चमार जैसे जातिसूचक अपमान के बीच, मैं जान बूझकर आंबेडकर के जन्म दिवस की बधाइयां भेजता हूं’.


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लॉकडाउन में जातिगत तनाव गहराया

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, 2020 में राजस्थान में अनुसूचित जातियों के खिलाफ उत्पीड़न के 7,017 मामले दर्ज किए गए. साल 2019 में, राज्य में ऐसे 6,794 मामले सामने आए जबकि 2018 में ये संख्या 4,607 थी. 2018 से 2020 के बीच इनमें लगभग 52 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई.

भंवर मेघवंशी जो एक सामाजिक कार्यकर्ता और सोशल मीडिया की ताकतवर आवाज़ हैं, कहते हैं कि आंकड़ों से संकेत मिलता है कि जहां एक ओर वैश्विक महामारी थी, वहीं उनका राज्य एक और महामारी का सामना कर रहा था और वो थी- जातिगत प्रताड़ना.

2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में अनुसूचित जातियां- जैसे मेघवाल, वाल्मीकि, जाटव, बैरवा, खटीक, कोली, और सरगारा आदि, कुल आबादी का करीब 17.83 प्रतिशत हैं, जबकि राजपूत और ब्राह्मण क्रमश: 9 और 7 प्रतिशत हैं. जातिगत टकराव की स्थितियां भी अलग-अलग होती है. पश्चिमी राजस्थान में मुख्य टकराव मेघवालों और राजपूतों तथा प्रमुख ओबीसीज़ के बीच है. पाली, बाड़मेर, जालौर, सिरोही और नागौर जाति उत्पीड़न के वायरल वीडियोज़ का मुख्य केंद्र बने हुए हैं. प्रवासी मज़दूरों के अपने गांवों को लौटने के साथ लॉकडाउन के दौरान जातियों के बीच तनाव और बढ़ गया.

लेकिन बढ़ते तनाव के साथ ही समुदाय बेहतर ढंग से संगठित हुआ है और जिला प्रशासन तक उसकी पहुंच भी बेहतर हुई है. भीम सेना जैसे समूहों की मौजूदगी से भी सहायता मिलती है.

Harish Meghwal, Bhim Army district president in Jaisalmer, poses with his Bullet | Jyoti Yadav/ThePrint
जैसलमेर में भीम आर्मी के जिला अध्यक्ष हरीश मेघवाल | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

जैसा कि जैसलमेर में भीम सेना के जिलाध्यक्ष हरीश मेघवाल कहते हैं, ‘हम वीडियोज़ को एसपी और डीएम को भेजते हैं. कम से कम उन्हें घटना का पता चल जाता है. मेरे पिता या दादा में तो अधिकारियों तक जाने का आत्मविश्वास भी नहीं होता था. एसपी तथा डीएम तक पहुंच से हमें बहुत हौसला मिलता है’.

लेकिन मामलों के बेहतर ढंग से दर्ज होने का मतलब बेहतर पुलिसिंग नहीं होता. दिप्रिंट ने राज्य पुलिस के पास जो डेटा देखा है, उससे पता चलता है कि करीब 50 प्रतिशत मामलों में प्राधिकारी चार्जशीट ही दाखिल नहीं कर पाए. 2021 में, राज्य में 3,087 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए, जबकि एमसी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, के तहत 7,524 मामले दर्ज किए गए थे. 2020 में, कुल 7,017 मामलों में से पुलिस ने 2,929 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए. 2019 में कुल 6,794 मामलों में राज्य पुलिस ने केवल 2,919 मामलों में चार्जशीट दाखिल की थी.

प्रदेश डीजीपी मोहन लाल लाठर इसे समझाते हुए कहते हैं कि पहले दलित लोग अपनी शिकायतें दर्ज भी नहीं कराते थे. ‘एफआईआर के बारे में राज्य की नई नीति के साथ ही अब हम उन्हें आगे आता हुआ देख रहे हैं’. लेकिन पुलिस अधिकारियों का कहना है कि वीडियोज़ हमेशा ही पर्याप्त साक्ष्य नहीं होते. एडीजी कानून व्यवस्था रवि प्रकाश कहते हैं, कि घटना स्थल, अभियुक्त और पीड़ितों की पहचान करना एक विस्तृत प्रक्रिया होती है.

वो कहते हैं, ‘2019 के बाद से हमने अपने सिपाहियों को एक अनिवार्य कोर्स और परीक्षा की ट्रेनिंग भी देनी शुरू कर दी है, ताकि पुलिस विभाग में हमारे पास जांच अधिकारियों की संख्या बढ़ जाए’. सबूत पेश करने के नए तरीकों के लिए मामले सुलझाने की नई तकनीक की भी जरूरत है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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