नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. भाजपा को मिला भारी भरकम बहुमत इसकी ताजा नजीर है. हालांकि, देश के इस सबसे बड़े प्रदेश की विधानसभा में सत्ता की कमान मुख्य रूप से चार दलों के हाथ में रही है. कांग्रेस, भाजपा, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी.
राज्य में सरकार बनाने के लिए इन चारों पार्टियों को अकेले दम पर बहुमत भी मिले हैं और सत्ता के लिए इन चारों दलों में आपस में समय-समय पर अलग-अलग गठबंधन भी हुए हैं. हालांकि, अब तक सात प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश की सत्ता में कोई गठबंधन लंबे समय तक नहीं टिक सका.
प्रदेश में एक बार फिर चुनावी गठबंधन की खिचड़ी पकाने की तैयारी चल रही है. सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एकजुट हो गयी है. लेकिन इस गठबंधन में कांग्रेस की स्थिति साफ़ नहीं है. इस गठबंधन को लेकर समाजवादी पार्टी से ज़्यादा बहुजन समाज पार्टी को उम्मीदें हैं. बसपा का लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है और विधानसभा में मात्र 19 सीटें हैं. बसपा अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाना चाहती है.
हालांकि प्रदेश के पिछले 30 सालों के इतिहास पर नज़र डालें तो यह साफ हो जाता है कि यहां गठबंधन की खिचड़ी पक नहीं पायी है. गठबंधन चुनाव से पहले किया गया हो या फिर बाद में किया गया हो, दरार सामने आ ही जाती है. उत्तर प्रदेश की सभी पार्टियां अपना गठबंधन धर्म निभाने में कामयाब नहीं रहीं हैं.
राम मंदिर लहर से 1991 में कल्याण सिंह की अगुवाई में भाजपा उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज़ हुई थी. उस वक़्त भाजपा को कुल 415 में से 221 सीटें मिली थीं. साल 1992 में जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गई, उसके बाद 1993 में सपा-बसपा ने भाजपा को रोकने के लिए हाथ मिलाने का फ़ैसला किया था.
‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’
1993 के विधानसभा चुनावों में बसपा और समाजवादी पार्टी एक साथ चुनाव लड़े थे. इस दोनों दलों ने नारा दिया था- ’मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम.’ इन दोनों पार्टियों को चुनाव में जीत मिली और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने. हालांकि, 1995 में मायावती ने गठबंधन से अपना हाथ खींच लिया और मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई थी. तब से आज तक बसपा और समाजवादी पार्टी फिर कभी एक-दूसरे के नज़दीक नहीं आये. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इतिहास एक बार फिर दोहराने जा रहा है.
मायावती ने लखनऊ के एक गेस्ट हाउस में अपने विधायकों की बैठक बुलाई थी. सपा के लोगों को भनक लग गयी कि बसपा और भाजपा की सांठ-गांठ हो गई है और बसपा सपा का साथ छोड़ने वाली है. तभी गेस्ट हाउस के बाहर सपा के लोग जुट गए और बसपा के लोगों को मारना पीटना शुरू कर दिया था. इस मारपीट में भाजपा नेताओं ने बसपा प्रमुख मायावती के साथ अभद्र हरकतें कीं और उनपर हमला किया था. तभी मायावती एक कमरे के भीतर खुद को बंद कर लिया था. गेस्ट हाउस कांड के बाद सपा और बसपा ने कभी गठबंधन नहीं किया.
कांग्रेस-बसपा गठबंधन
1996 का विधानसभा चुनाव काफी दिलचस्प था. बसपा के साथ कांग्रेस पार्टी ने गठबंधन किया था. जनता का आशीर्वाद किसी एक दल को नहीं मिला था. इसके बावजूद मायावती मुख्यमंत्री बनीं. कुछ दिन तक राष्ट्रपति शासन भी लगा था.
तेरहवीं विधानसभा में भाजपा एक बार फिर सत्ता में आई और 2002 तक उसकी सरकार रही. इस कार्यकाल के दौरान भाजपा ने क्रमशः कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह के रूप में तीन मुख्यमंत्री दिए.
2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना दल के साथ गठबंधन किया लेकिन उसका कोई लाभ भाजपा को नहीं मिल पाया. चुनाव में भाजपा की सीटें 88 से घटकार 51 पर आ गईं. साल 2012 में भाजपा ने जनवादी सोशलिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन कर 398 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसकी सीटें 51 से गिरकर 47 पर पहुंच गईं और भाजपा की स्थिति उत्तर प्रदेश में बहुत कमज़ोर हो गयी थी. बसपा को पूर्ण बहुमत मिला और मायावती मुख्यमंत्री बनीं.
उत्तर प्रदेश का इतिहास रहा है कि गठबंधन किए बिना ही अकेले सत्ता पर काबिज़ होने वाली पार्टियां ही स्थिरता के साथ पांच साल सरकार चला पाई हैं. कल्याण सिंह की सरकार और 2007 में बनी मायावती की सरकार ने पांच साल अकेले सरकार चलाई. 2012 में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने पांच साल सरकार चलाई.
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत हुई और उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस की स्थिति ख़राब हो गयी. बसपा अपना खाता खोलने में असमर्थ रही. वहीं सपा 5 सीटें और कांग्रेस 2 सीटें जीतने में सफल रही. भाजपा ने अपार जनसमर्थन की बदौलत अपने सहयोगी पार्टी के साथ 73 सीटें जीतीं. हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा ने एक बार फिर गठबंधन किया लेकिन यह गठबंधन जीत दिलाने में कामयाब नहीं हो पाया.
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन (एनडीए) ने 41 प्रतिशत से ज़्यादा मत प्राप्त किये और 325 सीटें प्राप्त कीं. वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस और सपा के गठबंधन को 54 सीटें मिलीं. बसपा को मात्र 19 सीटें मिलीं. लेकिन हालिया उपचुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है. गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के नतीजों ने भाजपा की नींद उड़ा दी है.
11 दिसंबर को आये पांच राज्यों के विधानसभा नतीजों ने यह बता दिया है कि भाजपा की स्थिति 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह नहीं होने वाली है. अगर बसपा और सपा गठबंधन करके चुनाव में आते हैं तो भाजपा की राह कठिन हो जाएगी.