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Thursday, 25 April, 2024
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क्या शहरी रोजगार योजना संभव है? मोदी सरकार है असमंजस में लेकिन 6 विपक्षी राज्यों सहित हिमाचल ने दिखाई राह

केरल और पश्चिम बंगाल 2010 से ही अपनी इन योजनाओं का संचालन कर रहे हैं. राजस्थान इस मामले में सबसे नया खिलाड़ी है. हिमाचल तो अपनी शहरी रोजगार योजना को कानूनी गारंटी देने के लिए एक नया कानून लाने की योजना बना रहा है.

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नई दिल्ली/चेन्नई: विभिन्न वर्गों की तरफ से बढ़ती मांग के बावजूद नरेंद्र मोदी सरकार शहरी गरीबों के लिए गारंटीशुदा रोजगार योजना लाने को अनिच्छुक लग सकती है. मगर, भाजपा शासित हिमाचल प्रदेश सहित सात राज्यों ने दिखा दिया है कि यह कोई असंभव कार्य नहीं है.

अन्य छह राज्य – केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओडिशा, झारखंड और राजस्थान – विपक्षी दलों द्वारा शासित हैं.

केरल और पश्चिम बंगाल तो 2010 से ही अपनी इन योजनाओं का संचालन कर रहे हैं. राजस्थान इस मामले में सबसे नया खिलाड़ी है. इन सभी रोजगार योजनाओं को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की तर्ज पर तैयार किया गया है, जो फिलहाल गांवों में रोजगार प्रदान करने वाली प्रमुख योजना है.

जैसा कि राज्य के शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज ने एक टेलीफोनिक साक्षात्कार में दिप्रिंट को बताया कि हिमाचल प्रदेश तो अपनी शहरी रोज़गार योजना को कानूनी गारंटी देने के लिए एक नया कानून लाने की योजना बना रहा है.

भारद्वाज ने कहा, ‘हम एक शहरी रोजगार योजना (मुख्यमंत्री शहरी आजीविका गारंटी योजना) चला रहे हैं, लेकिन इसकी कोई कानूनी गारंटी नहीं है. अब हम इसे एक अधिनियम के साथ समर्थन प्रदान करेंगे. अगस्त में विधानसभा के मानसून सत्र में इस बारे एक विधेयक पेश किया जाएगा.’

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भारद्वाज ने कहा, ’16 मई 2020 को शुरू की गई इस योजना को हर साल फिर से अधिसूचित किया जाता है.’ भारद्वाज बताते हैं, ‘हमने प्रायोगिक आधार (पायलट बेसिस) पर यह योजना शुरू की थी, लेकिन शहरी गरीबों की तरफ से बढ़ती मांग को देखते हुए हमने इसे जारी रखने का फैसला किया है.’

एक बार इस कानून के पारित हो जाने के बाद हिमाचल प्रदेश पहला ऐसा भारतीय राज्य होगा, जिसके पास शहरी गरीबों को रोजगार का आश्वासन देने वाला अधिनियम होगा. भारद्वाज ने कहा, ‘एक बार किसी व्यक्ति के पंजीकृत होने के बाद सरकार द्वारा उसके लिए 120 दिन का रोजगार सुनिश्चित करना अनिवार्य होगा.’

आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि हिमाचल की 68.65 लाख (2011 की जनगणना) की आबादी – जिसमें से सिर्फ 10 प्रतिशत ही शहरी क्षेत्रों में रहते हैं – को देखते हुए ऐसी योजना को लागू करना आसान हो सकता है.

लेकिन दो बड़े राज्यों – तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल – ने भी अपने- अपने बेरोजगार शहरी कार्यबल के लिए ऐसी योजनाओं को लागू किया है.

इस राज्यों द्वारा प्रस्तावित कार्य की प्रकृति अलग-अलग होती है जैसे कि वृक्षारोपण, सार्वजनिक स्थानों का सौंदर्यीकरण, बागवानी और वन से संबंधित कार्य, विरासतों का संरक्षण, संपत्ति का स्वरूप बिगाड़ने की रोकथाम, सफाई एवम् स्वच्छता कार्य और वन संरक्षण.

राज्यों द्वारा दी जाने वाली मजदूरी मनरेगा के तहत दी जाने वाली मजदूरी के बराबर ही है. हालांकि, मनरेगा के तहत किया जाने वाला भुगतान भी हर जगह एक समान नहीं है.

उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश में दैनिक वेतन 204 रुपये है जबकि बिहार में यह 292 रुपये है. मनरेगा की सबसे अधिक मजदूरी – 441 रुपये – कर्नाटक मे दी जाती है, जबकि हरियाणा प्रतिदिन एक मजदूर को 377 रुपये देता है.

तमिलनाडु का अलग है परिदृश्य

पिछले साल के अंत में तमिलनाडु शहरी रोजगार योजना की घोषणा के बाद, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) सरकार ने आधिकारिक तौर पर इसे मार्च 2022 में लॉन्च किया.

100 करोड़ रुपये के बजट वाली इस योजना से राज्य के 15 नगर निगमों, 7 नगर पालिकाओं और 37 नगर पंचायतों में शहरी गरीबों के लिए रोजगार पैदा होने की उम्मीद है. इस योजना के तहत राज्य में प्रति दिन 363 रुपये का एक समान वेतन दिया जाता है.

ग्रेटर चेन्नई कॉरपोरेशन के थिरु वी का नगर की जीकेएम कॉलोनी की निवासी 36 वर्षीय के. वल्लियम्मा इस योजना के लाभार्थियों में से एक हैं. अपने आस-पड़ोस में लगभग 15-20 महिलाओं के साथ, वल्लियम्मा मार्च 2022 से ही तूफान के पानी की निकासी के नाले (स्टोर्म ड्रेन) की सफाई का काम कर रही हैं और वे 100-दिन की इस रोज़गार योजना के तहत लगभग 70 दिनों का काम पूरा कर चुकी हैं.

वल्लियम्मा, जो पहले घरेलू सहायिका के रूप में काम किया करतीं थी, ने इस योजना के लिए लोगों को पंजीकृत करने हेतु घर-घर जाने वाले सरकारी अधिकारियों के द्वारा संपर्क किए जाने के बाद इस योजना को चुना.

उन्होनें कहा, ‘हमें सरकारी कार्ड मिला और हमने काम शुरू का दिया शुरुआत के पहले दो दिन यह काम बहुत कठिन लग रहा था, लेकिन अब हम इसके अभ्यस्त हो गए हैं.’

हर दिन, दो-दो महिलाओं वाली टीमें स्टोर्म ड्रेन से रेत और गाद निकालती हैं और उन्हें बोरों में डाल देती हैं. वल्लियम्मा ने इस बारे में और समझाते हुए कहा, ‘एक महिला गाद निकलती है, दूसरी इसे बोरी में रखते है,’ साथ ही उन्होनें कहा कि वे एक दिन में 30-35 बोरियाँ भरते हैं.

वे कहती हैं, ‘हमें एक पखवाड़े के काम के लिए 4,000 रुपये मिलते हैं. हम सप्ताह में छह दिन सुबह 8.30 बजे से शाम 4.30 बजे तक काम करते हैं. पहले वे हमें चेक दे रहे थे, लेकिन हमें उसे बैंक में जमा करना मुश्किल लगा. अब, वे हमारा वेतन सीधे हमारे बैंक खातों में ट्रान्स्फर करते हैं.’

एक अन्य लाभार्थी, वल्लियम्मा की पड़ोसी 35 वर्षीय ए. अमुधा, ने कहा कि वह एक अलग तरह का काम करना पसंद करेगी. उन्होनें कहा. ‘शायद झाड़ू लगाने जैसा कुछ. क्या आपको लगता है कि यह काम पूरा होने के बाद भी वे हमें काम पर रखना जारी रखेंगे?’


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ओडिशा ने दिखाई राह

तमिलनाडु शहरी रोजगार योजना ओडिशा के मुख्यमंत्री कर्म तत्परा अभियान (मुक्ता) पर आधारित है, जिसे पहले शहरी वेतन रोजगार पहल (अर्बन वेज एंप्लाय्मेंट इनिशियेटिव) के रूप में जाना जाता था. उड़ीसा के 114 शहरों को कवर करने वाली इस योजना के लिए राज्य की बीजू जनता दल (बजद) सरकार ने पहली बार 18 अप्रैल 2020 को अधिसूचना जारी की थी.

100 करोड़ रुपये के अनुमानित खर्च के साथ 6 महीने के लिए शुरू की गयी ‘मुक्ता योजना’ को अब 1,000 करोड़ रुपये के वार्षिक बजट के साथ नियमित रूप दे दिया गया है. 70 लाख की शहरी आबादी वाले ओडिशा ने दैनिक मजदूरी दर 326 रुपये तय की गयी है.

ओडिशा आवास और शहरी विकास विभाग के प्रधान सचिव जी. मथी वथानन ने कहा कि ‘मुक्ता’ को शुरू में मार्च 2020 में लगे देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान घर लौटने वाले प्रवासियों की मदद के लिए शुरू किया गया था.

महामारी में कमी का कोई संकेत नहीं मिलने के साथ ही 100 करोड़ रुपये के अतिरिक्त आवंटन के साथ इस योजना को छह महीने का विस्तार दे दिया गया था. उन्होंने कहा, ‘लेकिन हमारे द्वारा एकत्र की गई प्रतिक्रिया (फीडबैक) में शहरी गरीबों के बीच काम की भारी मांग का पता लगने के बाद हमने 1,000 करोड़ रुपये के वार्षिक बजट के साथ इस योजना को नियमित करने का फैसला किया. हमने महसूस किया कि अनौपचारिक श्रमिकों के बीच एक सामाजिक सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी. इस योजना ने इसे प्रदान किया है.’

वथानन ने आगे कहा कि, यह योजना अनूठी है क्योंकि यह पूरी तरह से समुदाय के नेतृत्व वाली एक साझेदारी है, वह भी मुख्य रूप से महिलाओं के नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के माध्यम से. वे बताते हैं, ‘इसमें कोई ठेकेदार या बिचौलिया शामिल नहीं होता. समुदाय/एसएचजी को परियोजना लागत की 7.5 प्रतिशत राशि पर्यवेक्षी शुल्क (सूपरवाइज़री चार्जस) के रूप में काम को करवाने के लिए दिया जाता है.’

इस योजना के तहत शुरू की गई परियोजनाओं में बहुउद्देशीय सामुदायिक केंद्रों का निर्माण, पक्का पैदल रास्ता बनाना, वर्षा जल संचयन से जुड़ी संरचनाओं के निर्माण से लेकर जल निकायों के नवीनीकरण और खुले स्थान का विकास शामिल है.

वथानन ने कहा कि अब तक 28,500 परियोजनाएं पूरी की जा चुकी हैं और 28 लाख मानव दिवस के बराबर का काम सृजित हुआ है. इसके अलावा, 500 करोड़ रुपये की 6,500 से अधिक परियोजनाएं फिलहाल कार्यान्वित हो रहीं हैं. उन्होंने कहा कि अब तक 6 लाख लोग काम मांगने आते हैं और कुल 98 करोड़ रुपये की मजदूरी लाभार्थियों के बीच वितरित की जा चुकी है.

तमिलनाडु की डीएमके सरकार की ही तरह, झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाली झारखंड की गठबंधन सरकार ने भी ओडिशा की ‘मुक्ता योजना’ से सबक सीखते अपनी स्वयं की मुख्यमंत्री श्रमिक (कामगार के लिए शहरी रोजगार मंजुरी) योजना, या एमएसवाई, शुरू करने का फ़ैसला किया.

2020 में पहले कोविड लॉकडाउन के तुरंत बाद ही राज्य सरकार ने अनुमान लगाया था कि 10 से 15 लाख अतिरिक्त श्रमिक दूसरे राज्यों से लौटे थे. उसी वर्ष अगस्त में, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शहरी अकुशल श्रमिकों के लिए रोज़गार योजना की घोषणा की थी.

नगर निगम निदेशालय, झारखंड के शहरी विकास और आवास विभाग के राज्य मिशन प्रबंधक, बिनोद कुमार ठाकुर ने कहा,’मनरेगा के विपरीत, एमएसवाई सिर्फ़ एक योजना है. फिलहाल इस योजना को एक सरकार समर्थित अनुदान (एंटाइटलमेंट) के रूप में बदलने की कोई बात नहीं है.’

उन्होंने कहा कि श्रमिकों को मुख्य रूप से नगर पालिका या आवास विभाग के तहत काम दिया जाता है. इसमें ज्यादातर सफाई, शहर का सौंदर्यीकरण या शहर की संरचनाओं का रखरखाव जैसे काम शामिल है. एमएसवाई और मनरेगा के तहत न्यूनतम दैनिक वेतन क्रमशः 306 रुपये और 225 रुपये है.

एमएसवाई के लिए 5 करोड़ रुपये का सालाना बजट आवंटित किया गया है. लेकिन, ठाकुर ने बताया, कि 10 करोड़ रुपये एक क्रिटिकल गॅप फंड के रूप में इस योजना हेतु आवंटित किए गए हैं.

झारखंड की 100-दिवसीय नौकरी योजना के तहत, 18 वर्ष से अधिक आयु के कामगार और 1 अप्रैल 2015 से नागरिक इलाकों में रहने वाले कर्मचारी ऑनलाइन या अपने वार्ड प्रशासकों के माध्यम से जॉब कार्ड हेतु आवेदन कर सकते हैं.

आवेदन मिलने के बाद 15 दिन के अंदर तीन साल की वैधता (वैलिडिटी) वाला जॉब कार्ड बनाया जाना होता है. काम चाहने वालों को भी आवेदन प्राप्ति के 15 दिनों के भीतर काम देना होता है, यदि सरकार ऐसा करने में विफल रहती है, तो कामगार मुआवजे का हकदार हो जाता है.

इस सूची में सबसे नया राज्य है राजस्थान

मई 2022 में, राजस्थान की कांग्रेस सरकार शहरी गरीबों के लिए रोजगार योजना को मंजूरी देने वाली सबसे नयी सरकार बन गई. स्थानीय स्वशासन के सचिव जोगा राम ने दिप्रिंट को बताया कि सरकार ने इसके लिए एक पोर्टल शुरू किया है, जिसके माध्यम से नौकरी चाहने वाले लोग इंदिरा गांधी शहरी रोजगार गारंटी योजना (आईआरजीवाई-शहरी) के लिए अपना पंजीकरण शुरू कर सकते हैं.

राम ने कहा, ‘इस योजना के तहत शहरी क्षेत्रों में रहने वाले परिवार को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिन का रोजगार दिया जाएगा. राजस्थान सरकार ने जन आधार कार्ड के माध्यम से शहरी क्षेत्रों में रहने वाले हर परिवार की मैपिंग शुरू कर दी है.’

राजस्थान सरकार के एक बयान के अनुसार, इस योजना, जिसके तहत किसी पंजीकृत कामार द्वारा काम के लिए अनुरोध करने के 15 दिनों के भीतर उसे काम मिल जाता है , के कार्यान्वयन के लिए सरकार सालाना 800 करोड़ रुपये खर्च करेगी


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पश्चिम बंगाल और केरल है इस मामले में सबसे पुराने खिलाड़ी

पश्चिम बंगाल और केरल मनरेगा की तर्ज पर शहरी गरीबों के लिए एक गारंटीकृत रोज़गार योजना शुरू करने वाले सबसे पहले राज्यों में थे, जो कि बहुत पहले, 2010 में ही, शुरू की गई थी.

पश्चिम बंगाल की शहरी रोजगार योजना के तहत, शहरी स्थानीय निकायों (अर्बन लोकल बॉडीज – यूएलबी) के बेरोजगार व्यक्ति सीधे नगर पालिकाओं और नगर निगमों द्वारा शुरू की गई विभिन्न बुनियादी ढांचा संबंधी विकास परियोजनाओं में काम पर लगे हुए हैं. इस योजना के तहत शुरू की गई परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए यूएलबी राज्य के विभिन्न विभागों या विकास प्राधिकरणों को शामिल कर सकते हैं.

पिछले साल फरवरी में, बंगाल चुनावों से कुछ समय पहले, राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घोषणा की थी कि अकुशल श्रमिकों के लिए दैनिक वेतन 144 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये और अर्ध-कुशल श्रमिकों के लिए 172 रुपये से बढ़ाकर 303 रुपये कर दिया जाएगा.

404 रुपये के दैनिक वेतन वाले कुशल श्रमिकों की एक नई श्रेणी को भी इस योजना में जोड़ा गया था. तब ममता बनर्जी ने कहा था कि सरकार के इस फैसले से 40,500 अकुशल, 8,000 अर्धकुशल और 8,000 कुशल श्रमिकों को फायदा होगा.

केरल के मामले में अय्यंकाली शहरी रोजगार गारंटी योजना (एयूईजीएस) प्रत्येक परिवार, जिसके वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हों, को कम-से-कम 100 दिनों का रोजगार प्रदान करती है.

साल 2021 की केरल की आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 2020-21 में, इस योजना के लिए 75 करोड़ रुपये की राशि निर्धारित की गई थी, जिससे 32.53 लाख मानव-दिवस का काम सृजित हुआ है. इसमें कहा गया है कि सामान्य वर्ग के 1,91,722 व्यक्तियों, अनुसूचित जाति में 44,497 और अनुसूचित जनजाति में 4,357 लोगों को जॉब कार्ड जारी किए गए हैं.

क्यों हिचक रही है केंद्र सरकार?

हालांकि, केंद्र सरकार शहरी गरीबों के लिए रोजगार योजना शुरू करने के पक्ष में नहीं है.

अपना नाम जाहिर न किए जाने की शर्त पर वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि ऐसी योजनाओं को चलाने में उच्च राजकोषीय लागत शामिल होती है. इस अधिकारी ने कहा, ‘ऐसी योजनाओं के साथ समस्या यह है कि एक बार यह आपके खातों में शामिल हो जाती है, तो ये बंद नहीं हो पाती है. और ऐसी योजनाओं के लिए आवंटन रेकरिंग (बार-बार होने वाला) हो जाता है. सरकार फिलहाल इस तरह की योजना शुरू करने के पक्ष में नहीं है.’

डॉ बी.आर. अम्बेडकर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु के कुलपति डॉ एन.आर. भानुमूर्तिने दिप्रिंट को बताया कि किसी भी सरकार को इस तरह की योजना को लागू करने का निर्णय लेने से पहले तीन पहलुओं – वैचारिक, व्यावहारिक और वित्तीय – पर विचार करना होगा.

भानुमूर्ति ने कहा, ‘वैचारिक रूप से मुझे लगता है कि ग्रामीण क्षेत्रों की ज़रूरत को पूरा करने वाले मनरेगा को छोड़कर अर्थव्यवस्था में किसी भी स्वचालित स्टेबलाइजर (संतुलन बिठाए रखने वाले) की गैर-मौजूदगी की वजह से शहरी क्षेत्रों में भी इसी तरह की योजना की ज़रूरत है, ताकि जब भी अर्थव्यवस्था में मंदी हो शहरी गरीबों की मदद की जा सके.’

उन्होंने कहा कि मनरेगा जैसा कार्यक्रम संपत्ति निर्माण योजना के रूप में नहीं बल्कि एक आर्थिक स्थिरता के रूप में कार्य करता है.

उनके अनुसार, संकट के दौरान अपने ग्रामीण समकक्षों की तुलना में शहरी गरीबों के बीच लगा आघात अधिक बार पैदा होता है. उन्होंने कहा, ‘यहां नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता तो है, लेकिन इसके व्यावहारिक पहलुओं को भी देखना होगा. ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में रोज़गार योजना को लागू करना अधिक कठिन होने वाला है.’

भानुमूर्ति का कहना है कि वित्तीय दृष्टि से भी शहरी क्षेत्रों में मनरेगा जैसी योजना को लागू करना कहीं अधिक कठिन है. वे कहते हैं, ‘रोज़गार की मांग शहरी क्षेत्रों में बहुत अधिक होने जा रही है और इसे पूरा करने के लिए आवंटन मनरेगा से कहीं अधिक होना चाहिए.’

केंद्रीय बजट 2022-23 में, मनरेगा के लिए आवंटन को बिना किसी बदलाव के 73,000 करोड़ रुपये पर बनाए रखा गया था. भानुमूर्ति ने कहा, ‘सरकार को इस पर विचार करना होगा कि क्या इस तरह के आवंटन के लिए उसके पास वित्तीय संसाधन उपलब्ध है?’

उन्होंने कहा कि अब तक राज्यों द्वारा अपनी-अपनी शहरी रोजगार योजनाओं के लिए आवंटित बजट बहुत ही कम है. भानुमूर्ति का कहना है, ‘इसके अलावा, अब तक किसी ने भी यह आकलन नहीं किया है कि इस योजनाओं का प्रदर्शन कैसा रहा. मूल्यांकन के बिना, यह अनुमान लगाना मुश्किल होगा कि ऐसी योजनाएं कितनी प्रभावी रही हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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