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Sunday, 5 May, 2024
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UCC शायद जल्द आने वाला है, लेकिन भारत में तलाक अभी भी कई प्रकार से होते हैं

यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर गरमागरम बहस के बीच, अभी भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों में तलाक और भरण-पोषण को नियंत्रित करने वाले विविध कानूनों पर एक नजर.

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नई दिल्ली: भारत में शादी का उत्सव कई तरीको से मनाया जाता है. शादी की तरह एक जोड़े के तलाक के लिए कानूनी ढांचे भी अलग-अलग हैं. लेकिन, अब फिर से एक बहस शुरू हो गई है जब से विधि आयोग ने विवाह, तलाक और रखरखाव जैसी व्यक्तिगत प्रथाओं को नियंत्रित करने के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) पर लोगों और सामाजिक संगठनों से विचार मांगे हैं.

यह बड़ा ही कठिन विषय है. जब से 22वें विधि आयोग ने जून में अपना सार्वजनिक नोटिस जारी किया, जिसमें नागरिकों और धार्मिक निकायों से 30 दिनों के भीतर इस मामले पर अपनी राय भेजने को कहा गया, तब से कुछ हलकों से इसका बड़ा विरोध हो रहा है.

कुछ आलोचकों ने जहां दावा किया है कि इस मामले को उठाना सत्तारूढ़ बीजेपी द्वारा 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने का एक प्रयास है, वहीं कुछ ने कहा है कि यह धार्मिक स्वतंत्रता का एक तरह से उल्लंघन है.

दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूसीसी के कट्टर समर्थक हैं, यहां तक ​​कि उन्होंने चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में इस महीने की शुरुआत में एक रैली में इसकी वकालत भी की. दरअसल, यूसीसी लंबे समय से बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे का मुख्य आधार रहा है, हालांकि इसे अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है. यूसीसी के विपरीत, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक पर प्रतिबंध और जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने जैसे विषयों को बीजेपी सरकार ने पूरा कर दिया है.

हालांकि, यूसीसी को लेकर अब कुछ हलचल होती दिख रही है. उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में बीजेपी शासित सरकार द्वारा गठित एक पैनल ने कथित तौर पर राज्य में यूसीसी के लिए अपना ड्राफ्ट पूरा कर लिया है.

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यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) का उल्लेख भारतीय संविधान के अध्याय IV में किया गया है, जिसमें राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (डीपीएसपी) शामिल हैं. नए कानून बनाते समय ये सिद्धांत सरकार के लिए दिशानिर्देश के रूप में काम करते हैं. हालांकि, मौलिक अधिकार के प्रावधानों के विपरीत, नागरिकों के पास राज्य को DPSP का पालन करने के लिए बाध्य करने का कानूनी अधिकार नहीं है.

वर्तमान समय में भारत की विविध व्यक्तिगत प्रथाएं धार्मिक संबद्धता और सामुदायिक पृष्ठभूमि के आधार पर भिन्न होती हैं. जैसा कि यूसीसी लगातार चर्चाओं को बढ़ावा दे रहा है, दिप्रिंट व्यक्तिगत कानूनों के विभिन्न पहलुओं की जांच कर रहा है, जिनमें से कुछ को यूसीसी लागू होने पर इसमें शामिल किया जा सकता है.

दो पार्ट वाली इस सीरीज के पार्ट में यहां हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के लिए तलाक और भरण-पोषण को नियंत्रित करने वाले कुछ कानूनी ढांचे दिए गए हैं.

मैं तुम्हें तलाक कैसे दूं? मुझे इसके तरीकों को गिनने दें…

सात फेरों से लेकर निकाह तक, भारत में विवाह और अनुष्ठानों को पूरा करने में धर्म का महत्वपूर्ण प्रभाव है. जबकि कानूनी मान्यता के लिए विवाह का पंजीकरण आवश्यक है. हालांकि, विवाह का पंजीकरण नहीं करवाने पर इसे अमान्य नहीं घोषित किया जाता है.

नतीजतन, अलग होने के मामलों में, जोड़ों को कानूनी उपाय अपनाने चाहिए. हालांकि, यहां भी विविधताएं है. तलाक की प्रक्रियाएं कई समुदाय के कानूनों के हिसाब से चलती है. यह उन परिस्थितियों के हिसाब से कार्य करती हैं जिनके तहत एक अदालत किसी जोड़े को तलाक दे सकती है.

हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (एचएमए) के तहत समुदाय के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह करने वाला जोड़ा व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धार्मिक रूपांतरण, मानसिक विकार के आधार पर तलाक के लिए अदालत में जा सकता है. इसके अलावा जोड़ा कुष्ठ रोग, यौन रोग, सांसारिक मोह-माया का “त्याग”, सात साल की अवधि तक अगर नहीं मिलते हैं, या अलग-अलग रहते हैं, के आधार पर तलाक के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है.

अधिनियम में “हिंदू” शब्द की परिभाषा के तहत सिख, बौद्ध और जैन भी शामिल हैं.

यदि पत्नी तलाक चाहती है तो कानून कई अन्य आधारों पर भी तलाक दे सकता है. ये आधार हैं यदि पति बलात्कार का आरोपी हो, किसी गलत काम में लिप्त हो, यदि पति किसी अन्य महिला से शादी करना चाहता हो, यदि पत्नी की शादी 15 वर्ष की आयु से पहले हुई हो और वह 18 वर्ष की आयु के बाद पति से अलग होना चाहती हो, यदि एक वर्ष तक शारीरिक संबंध न बना हो और यदि पति अपनी पत्नी का भरण-पोषण नहीं करता हो.

मुस्लिम: मुसलमानों में कोई पति बिना कोई कारण बताए अपनी पत्नी को एकतरफा तलाक दे सकता है. तलाक लेने के लिए सिर्फ “तलाक” शब्द का उच्चारण करना ही पर्याप्त माना जाता है.

हालांकि, दो मुस्लिम संप्रदाय – सुन्नी और शिया – तलाक के लिए अलग-अलग प्रक्रियाओं का पालन करते हैं. जबकि सुन्नी कानून के हिसाब से “तलाक” मौखिक या लिखित हो सकता है, शियाओं में इसे दो गवाहों की उपस्थिति में मौखिक रूप से कहा जाना अनिवार्य होता है. अगर पति बोलने में असमर्थ हो तो इसमें छूट मिल सकती है.

इसके विपरीत, कोई पत्नी अपनी मर्जी से अपने पति को तलाक नहीं दे सकती. एक मुस्लिम पत्नी मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939 के माध्यम से यह अधिकार प्राप्त करती है. मुस्लिम महिलाओं को तलाक प्राप्त करने का जो अधिकार देता है वह यह है कि यदि पति चार साल से लापता है, यदि पति ने दो वर्षों तक उसका भरण-पोषण नहीं किया हो, यदि पति को सात वर्ष या उससे अधिक कारावास की सजा सुनाई गई हो, यदि पति तीन साल या उससे अधिक समय से अपने वैवाहिक दायित्वों को पूरा करने में विफल रहा हो, यदि विवाह के समय पति नपुंसक था या यदि वह कुष्ठ रोग या किसी यौन रोग से पीड़ित हो.

एक मुस्लिम महिला भी तलाक की मांग कर सकती है यदि उसकी शादी 15 वर्ष की उम्र या उससे पहले “उसके पिता या अभिभावक” द्वारा तय कर दी गई लेकिन 18 साल की होने के बाद वह पहली शादी से इनकार कर देती हो. यह आधार तब काम करता है जब विवाह संपन्न नहीं हुआ हो.

क्रूरता के आधार पर तलाक चाहने वाली पत्नी को कई शर्तों में से एक या एक से अधिक साबित करना होता है. इसमें शर्त हैं- उसका पति आदतन उस पर हमला करता है, दूसरी महिलाओं के साथ संबंध रखता हो, बदनाम जीवन जीता हो, उसे किसी भी गलत काम के लिए मजबूर करने का प्रयास करता हो, अनैतिक जीवन जीता हो, उसकी संपत्ति हड़पने की कोशिश करता हो, उसे कानूनी अधिकारों का प्रयोग करने से रोकता हो, उसके धार्मिक पेशे के पालन में बाधा डालता हो, या यदि वह कुरान के अनुसार, अपनी अन्य पत्नियों के साथ उसके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता हो.

यदि कोई पति अपनी पत्नी के खिलाफ व्यभिचार का झूठा आरोप लगाता है, तो पत्नी को इस आधार पर भी तलाक मांगने का अधिकार है.

मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939 किसी पत्नी को इस आधार पर तलाक मांगने की भी अनुमति नहीं देता है कि पति उसकी उपेक्षा करता है या यदि वह बिना किसी उचित बहाने के अलग रहती है.

ईसाई: औपनिवेशिक युग का एक और कानून- भारतीय तलाक अधिनियम, 1869- भारत में ईसाइयों के लिए तलाक संबंधित नियमों को नियंत्रित करता है. विभिन्न अदालतों के आग्रह के बाद 2001 में इसे संशोधित किया गया. यह अधिनियम व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग और धार्मिक रूपांतरण के आधार पर तलाक देने की अनुमति देता है. हालांकि, तलाक की ऐसी याचिका को साक्ष्य के साथ साबित करना पड़ता है, जिसमें गवाहों के हलफनामे, पत्र या अन्य दस्तावेज शामिल हो सकते हैं, जो साबित करते हैं कि पति या पत्नी एक दूसरे के प्रति बेवफा हैं या उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ है.

यह अधिनियम खराब आचरण पर बहुत अधिक जोर देता है और याचिकाकर्ता को तलाक की याचिका में व्यभिचारी या व्यभिचारिणी को सह-प्रतिवादी बनाने का आदेश देता है, जब तक कि अदालत उसे माफ न कर दे. इसमें यह भी कहा गया है कि अगर अदालत को पता चलता है कि याचिकाकर्ता व्यभिचार का दोषी है या उसने स्वेच्छा से पति या पत्नी को छोड़ दिया है तो वह तलाक की डिक्री सुनाने के लिए बाध्य नहीं होगी.

हालांकि, यदि एक पति या पत्नी द्वारा व्यभिचार करने के बाद शारिरिक संबंध दोबारा शुरू किया गया है या जारी रखा गया है, तो यह अब तलाक का आधार नहीं है. भारतीय तलाक अधिनियम तलाक के लिए दायर की गई “मिलीभगत याचिकाओं” पर नाराजगी व्यक्त करता है और अदालतों को ऐसे मुकदमों को खारिज करने का अधिकार देता है. मोटे तौर पर, यह तलाक की याचिका को संदर्भित करता है जहां दोनों पक्ष किसी तरह से अदालत को गुमराह करने या धोखा देने के लिए मिलकर काम करते हैं.

पारसी: पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के तहत तलाक के लिए पंजीकरण की आवश्यकता होती है.

कानून में तलाक के केवल तीन आधार निर्धारित हैं. वे विवाह के समय और याचिका दायर करने की तारीख पर पति या पत्नी की जानबूझकर विफलता, मानसिक बीमारी या मानसिक रूप से अस्वस्थ होने और विवाह के समय पत्नी के किसी के द्वारा गर्भवती होने के कारण एक वर्ष तक विवाह नहीं कर पाते हैं.

तीसरे आधार को शादी की तारीख के दो साल के भीतर लागू किया जा सकता है, और केवल तभी जब पति को पत्नी की गर्भावस्था के बारे में पता चलने के बाद जोड़े के बीच कोई संभोग नहीं हुआ हो.

पारसी कानून का एक उल्लेखनीय पहलू वैवाहिक अदालतों की स्थापना है जो विशेष रूप से समुदाय के भीतर तलाक की कार्यवाही को संभालने के लिए समर्पित हैं. इसके अतिरिक्त, राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि, जो स्वयं पारसी समुदाय के सदस्य हैं, तलाक के मामलों किसी विवाद को सुलझाने की कानूनी प्रक्रिया में योगदान देते हैं.


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आपसी सहमति से तलाक के बारे में क्या?

आपसी सहमति से तलाक का विकल्प सभी व्यक्तिगत कानूनों के तहत स्वीकार्य है. हालांकि, ऐसी याचिका दायर करने से पहले आवश्यक प्रक्रिया और अनिवार्य पृथक्करण अवधि समुदाय से समुदाय में भिन्न होती है.

हिंदू और पारसी जोड़े अलग-अलग रहने के एक साल बाद आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर कर सकते हैं, जबकि ईसाइयों के लिए यह अवधि दो साल है. जहां एक पारसी जोड़ा शादी के एक साल के भीतर ऐसी याचिका दायर नहीं कर सकता, वहीं हिंदुओं के लिए ऐसी कोई रोक नहीं है.

हिंदू कानून के विपरीत, जिसमें तलाक के मामले में पहला और दूसरा प्रस्ताव दाखिल करने के बीच छह महीने की कूलिंग-ऑफ अवधि की आवश्यकता होती है, पारसियों के लिए ऐसा कोई प्रतीक्षा समय अनिवार्य नहीं है.

मुसलमानों के बीच आपसी सहमति से तलाक के मामले में, दो प्रक्रियाएं हैं: खुला और मुबारत. खुला में, पत्नी एक प्रस्ताव देकर तलाक की शुरुआत करती है, जिसे पति स्वीकार कर लेता है. मुबारत में, दोनों पक्ष पारस्परिक रूप से एक-दूसरे से अलग रहने के लिए सहमत होते हैं.

खुला और मुबारत दोनों मामलों में, पत्नी अपना पूरा या अपने मेहर का एक हिस्सा (शादी के समय पति द्वारा दिया गया धन या संपत्ति) छोड़ देती है.

तलाक के बाद, एक मुस्लिम महिला को पुनर्विवाह करने से पहले तीन महीने तक इद्दत नामक शुद्धिकरण की अवधि का पालन करना होता है.

रखरखाव के लिए रास्ते

भरण-पोषण से संबंधित प्रावधान अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों में अलग-अलग हैं. हालांकि, सीआरपीसी की धारा 125 में एक धर्मनिरपेक्ष कानून भी है, जिसके तहत पत्नी, बच्चे और माता-पिता द्वारा भरण-पोषण का दावा किया जा सकता है.

जहां तक ​​व्यक्तिगत कानूनों की बात है, एक हिंदू महिला हिंदू दत्तक ग्रहण और हिंदू भरण-पोषण अधिनियम (एचएमए), 1956 के साथ-साथ हिंदू विवाह अधिनियम (एचएमए) के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकती है.

जबकि हिंदू विवाह अधिनियम पत्नियों के लिए खास है यह एक पति को अपनी पत्नी से गुजारा भत्ता मांगने की अनुमति देता है यदि वह खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है.

एचएएमए के तहत, एक पति अपनी विवाहित पत्नी को जीवन भर भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य है, भले ही वह अलग रह रही हो लेकिन तलाकशुदा न हो.

हालांकि, तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण के दौरान उसे “पत्नी” की परिभाषा से बाहर रखा गया है. HAMA विधवा बेटियों या बहुओं, सौतेली माताओं और नाबालिग “वैध” या “नाजायज” बच्चों जैसे आश्रितों को भरण-पोषण का अधिकार भी देता है.

एचएमए के तहत रखरखाव प्रावधान अलग-अलग हैं. इस कानून के तहत, पति या पत्नी में से कोई भी भरण-पोषण का दावा कर सकता है, हालांकि इसे तय करने के मानदंड लिंग-विशिष्ट हैं.

यह ध्यान देने योग्य है कि अदालतों के विभिन्न प्रगतिशील निर्णयों ने दूसरी पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार दिया है, भले ही असाधारण परिस्थितियों में जैसे कि पति द्वारा अपनी पहली शादी के बारे में गलत बयानबाजी करना.

ईसाई और पारसी महिलाएं अपने संबंधित व्यक्तिगत कानूनों के तहत हिंदू महिलाओं के समान रखरखाव अधिकारों की हकदार हैं. भारतीय तलाक अधिनियम और पारसी विवाह और तलाक अधिनियम दोनों में ऐसे प्रावधान हैं जो लंबित मुकदमे के दौरान भरण-पोषण, गुजारा भत्ता और स्थायी भरण-पोषण राशि प्रदान करते हैं.

दूसरी ओर, मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, जो पति अपनी पत्नी को तलाक देता है, वह केवल इद्दत की अवधि के दौरान भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य है. लेकिन सामान्यतः: रखरखाव की राशि आम तौर पर पत्नी के भोजन के खर्च को कवर ही करता है. आमतौर पर तलाकशुदा पत्नी के भरण-पोषण के लिए मेहर का भुगतान पर्याप्त माना गया है.

हालांकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ विभिन्न अदालती मामलों के माध्यम से विकसित हुआ है, जिससे यह मान्यता मिली है कि महिलाओं को इद्दत अवधि के भीतर उचित भरण-पोषण का भुगतान किया जाना चाहिए. अदालतों ने इस बात पर जोर दिया है कि मेहर पत्नी के प्रति सम्मान का एक प्रतीकात्मक संकेत है और इसे गुजारा भत्ता नहीं माना जा सकता. उन्होंने आगे स्पष्ट किया है कि भरण-पोषण राशि पत्नी को उसके पूरे जीवन भर समर्थन देने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए.

(यूसीसी विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को कैसे प्रभावित कर सकता है, इस पर दो पार्ट की सीरीज में यह पहला पार्ट है.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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