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Saturday, 20 April, 2024
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मोल की बहुएं: ‘हरियाणवी मर्दों’ के एहसान तले दबी औरतें जिनकी अपनी पहचान खो गई

50 साल पहले बंबई से मेवात के नूह ज़िले में लाई गई 70 वर्षीय महबूबा एक बार भी अपने घर नहीं गई. मायके का रास्ता तक भूल चुकी महबूबा कहती हैं, 'हो सकता है कि अब मेरे मां बाप मर चुके हों.'

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इस फीचर स्टोरी के लिए रिपोर्टर ने जाट जोश और ज़मीन कहे जाने वाले हरियाणा की यात्रा की जहां महिलाओं का सेक्स रेश्यो इतना खराब है कि राज्य में बाहर से बहुएं खरीद कर लानी पड़ रही हैं. इन बहुओं को मोल की या पारो कहा जाता है, जिनका मूल्य कई बार एक मुर्रा भैंस से भी कम होता है.

रिपोर्टर ने खाप पंचायतों, नेताओं, एनजीओ, मिडिलमेन से बातचीत के ज़रिए मोल की बहुओं की कहानी की परतों को खोलने की कोशिश की है. अब ये ये सिर्फ सामाजिक मुद्दा ना रहकर एक राजनीतिकि मुद्दा बन गया है. अब चुनाव के वक्त बहू दिलाओ वोट पाओ का नारा अक्सर सुनाई देता है.

इस फीचर रिपोर्ट के लिए दिप्रिंट की ज्योति यादव को जेंडर सेंसिटिविटी कैटेगरी में लाडली मीडिया एंड एडवरटाइजिंग अवार्ड मिला है. हम शुक्रगुजार हैं कि पाठकों के मन तक ये कहानी उतरी.

 

मेवात/रोहतक/जींद: ‘हो सकता है कि मेरे माता-पिता अब मर गए हों. मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है.’

ये शब्द हैं देश की इंटरनेशनल सिटी गुरुग्राम से महज 50 किलोमीटर दूर नूह ज़िले के गुहाना गांव में रह रही महबूबा के. महबूबा को 60 साल पहले बंबई के पास के एक इलाक़े से लगभग 1400 किलोमीटर देश के सबसे पिछड़े ज़िले कहे जाने वाले मेवात में लाया गया था. 80 वर्षीय महबूबा के पास मायके के नाम पर इक्की दुक्की यादें ही हैं. बुढ़ापे में उनके दांत बाहर निकल आए हैं. कांपते हाथों को इधर उधर घुमाती वो कहती हैं, ‘बंबई से मेरे गांव तक पहुंचने के लिए कई बसें, ट्रेन और पैदल जाना पड़ता है. अब मुझे रास्ता याद नहीं है. मेवात का कोई ट्रक ड्राइवर वहां गया था. उम्र बीस बरस से भी कम थी मेरी. वो ड्राइवर ही मेरे शौहर के लिए मुझे पसंद कर आया था. मैं कभी मायके नहीं जा पाई.’

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महबूबा दिमाग पर जोर डालकर आगे कुछ याद करती हैं, ‘ उस वक़्त ना रेडियो था, ना टेलिफोन और ना ही इंटरनेट. मुझे लगता है कि मेरे परिवार के कई लोग अब तक मर चुके होगे. शादी के बाद शुरू के दो साल गिन गिन कर काटे थे मैंने. मुझे साड़ी पहनना खूब अच्छा लगता था. लेकिन मेवात के कल्चर में साड़ी नहीं है. मैं कभी साड़ी नहीं पहन पाई. मेरे शौहर की भी तीस साल पहले ही मौत हो गई.’

महबूबा, उन हजार मोल की बहुओं/पारो में से एक हैं जिनका जिक्र हाल ही में हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के एक कार्यक्रम में किया था. उन्होंने अपने मंत्री ओपी धनखड़ के बिहार से बहू लाने वाले एक बयान का जिक्र करते हुए कहा था, ‘अब जम्मू कश्मीर से धारा 370 हट गई है तो लोग कह रहे हैं कि कश्मीर से बहू लाएंगे. ये मज़ाक की बात है. हमें लिंगानुपात पर ध्यान देना है.’

महबूबा, अपने ससुराल मेवात में.

एक भैंस से भी सस्ती कीमत में मिल जाती है मोल की बहू

दिप्रिंट मोल की या पारो कही जाने वाली इन बहुओं के हालात जानने हरियाणा के मेवात, जींद, रोहतक, सोनीपत, महेंद्रगढ़ जिलों में पहुंचा. 15 से ज़्यादा ख़रीद कर लाई गई बहुओं, 5 बिचौलियों, खाप पंचायतों और नेताओं से बात करके हमने इस इंटर स्टेट मैरिज नेटवर्क और इन महिलाओं की स्थिति को समझने की कोशिश की.

महिला मुद्दों पर सालों से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता जगमति सांगवान का कहना है, ‘ये कोई नई बात नहीं है. ये पिछले 50 दशकों से चला आ रहा है. लेकिन तीस साल पहले जब सेक्स रेश्यो बिगड़ा तो बहुओं को ख़रीदकर लाने का चलन बढ़ गया.  अगर हम अभी भी सेक्स रेश्यो सुधार लें तो उसके परिणाम भी आगे आने वाले बीस सालों में ही दिखेंगे. मतलब साफ है कि अगले बीस साल तक राज्य के कुंवारे लड़कों के लिए बाहर से बहुएं लाई जाएंगी. ऐसे में हरियाणा सरकार और महिला आयोग चुटकुले सुनाने की बजाय आंगनवाड़ी स्तर पर जागरूकता फैलाए. ताकि घरेलू हिंसा या खेतों में जबरन मजदूरी के कामों में लगी इन बहुओं तक मदद पहुंच सके.’

वो आगे जोड़ती हैं, ‘हर गांव में कम से कम 100-150 ऐसे लड़के हैं जो ‘मैरिज मार्केट’ के हिसाब से फ़िट नहीं बैठते हैं. जैसे किसी के पास ज़मीन नहीं है तो किसी के पास सरकारी नौकरी, कोई शारीरिक रूप से दिव्यांग है या समाज के हिसाब से उतना ‘सुथरा’ नहीं. यहीं कुंवारे लड़के देश के दूसरे हिस्सों में अपने लिए बहू खोजने जाते हैं. इन बहुओं को कभी ‘पारो’ बोल देते हैं तो कभी ‘मोल’ की या कभी ‘बिहारन’. एक तरह से ‘लेसर मेन’ के लिए ‘लेसर ब्राइड’.  इन जोड़ों के बच्चे जब बड़े होकर स्कूल जाते हैं तो उन्हें वहां डिस्क्रिमिनेशन झेलना पड़ता है.’

ऐसी ‘शादियां’ ज़रूरत की देन हैं. एक तरफ़ हरियाणा के गांवों में कुंवारे बैठे युवकों को अपना वंश चलाने के बहू चाहिए, घर में काम करने के औरत और खेतों में मदद कराने के लिए मज़दूर. दूसरी तरफ़ अन्य राज्यों के गरीब परिवारों दहेज ना दे पाने के सामर्थ्य की वजह इस तरह की ‘शादियों’ के लिए तैयार हो जाते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक हरियाणा का लिंगानुपात 879 था. ये राष्ट्रीय अनुपात (940) से भी कम था. इसके बाद से ही हरियाणा राष्ट्रीय मीडिया में बेटियों को मारने वाले राज्य के तौर पर कुख्यात हो गया. ज्ञात हो कि मोदी सरकार ने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की शुरुआत पानीपत से ही की. पिछले 50 साल से देश के गरीब राज्यों जैसे बंगाल, बिहार, असम और झारखंड के अलावा केरल और तमिलनाडु से हरियाणा में बहुएं लाई जाती रही हैं. बहुत बार ये बहुएं मानव तस्करों के नेटवर्क के ज़रिए भी हरियाणा में पहुंचती हैं.

अब धीरे-धीरे पॉपुलर कल्चर जैसे गानों, रागनियों और चुटकुलों में मोल की बहुओं का जिक्र जुड़ गया है. लोग चुटकुले के तौर पर बोलने लगे हैं कि एक मुर्रा भैंस की कीमत डेढ़ लाख है लेकिन एक बहू सिर्फ 40 हजार में मिल जाती है. ये अब हरियाणा की संस्कृति का हिस्सा बन गया है.

‘अजनबी देश, अजनबी भाषा और अजनबी लोग’

बिहार के भागलपुर जिले की 18 वर्षीय सोमी दास की शादी जींद के अहीरकां गांव के 33 वर्षीय दिव्यांग संदीप सिंह से 1 साल पहले हुई थी. शादी का सारा इंतजाम संदीप ने ही करवाया था. सोमी यहां की भाषा समझने के लिए अपने पति पर ही निर्भर हैं. संदीप के इशारे के बाद ही वो एकआध जवाब दे पाती हैं.

लेकिन संदीप सोमी की तारीफ करते हुए कहते हैं, ‘ये बड़ी चतुर है. आते ही सब सीख गई.’ जहां एक तरफ सोमी अभी हरियाणवी भाषा समझने का ही संघर्ष कर रही हैं तो दूसरी तरफ मेवात के गुहाना गांव में चार बेटियों की मां सुशीला एक बेटा पैदा नहीं करने पर गालियां खा रही हैं. सात साल पहले झारखंड से मेवात में लाई गई सुशीला के घर की मारपीट की आवाज पड़ोसियों तक पहुंचती है. घर के बरामदे में सो रहे ससुर के डर से धीमी आवाज में वो आपबीती सुनाती हैं, ‘मुझे नहीं पता था कि मेरे पति की ये दूसरी शादी है. मुझे बताया गया था कि कोई काम ना करना पड़ेगा. लेकिन अब मुझे ईंट के भट्टे से लेकर खच्चर तक पालने पड़ रहे हैं. कई बार नींद आती है और ईंट गिरने से पैर टूट जाता है तो कई बार हाथ कट जाता है.’

सुशीला अपने घर बमुश्किल से तीन बार ही वापस झारखंड गई होंगी. सुशीला का कहना है कि जिस बिचौलिए जुबैर ने उसकी शादी करवाई थी, उसने उसके पति से दस हजार रुपए खाए थे.

जब मैं जुबैर के घर गई तो पता चला जुबैर के घर खुद एक पारो है. उनकी पत्नी रिजवाना भी झारखंड से ही हैं. वो सुशीला की शादी के लिए पैसे खाने के आरोप से इनकार करते हुए कहती हैं, ‘मैंने तो उसे कई बार कहा है कि भाग जा. वो जाती ही नहीं है. पिटती रहती है.’

सेल्फी विद डॉटर अभियान चलाने के लिए राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित सुनील जागलान बताते हैं, ‘हरियाणा के लगभग हर गांव में 10 से 12 ऐसी बहुएं हैं. बड़े गांवों में ये आंकड़ा 200 के पार है. ऐसी शादियां जाट, ब्राह्मण, यादव, मुस्लिम और रोड जातियों में ज्यादा हो रही हैं. ये रुकेगा नहीं.’

वो आगे जोड़ते हैं, ‘ऐसी स्थिति में सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि मैरिज रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य करे ताकि इन औरतों को एक इज़्ज़त की ज़िंदगी मिले. हमने लोकसभा चुनावों के वक़्त भी इस मुद्दे को उछाला था. कांग्रेस ने इसे अपने मेनिफेस्टो में जोड़ा भी था. ज्यादातर अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी लड़कियां कम उम्र में हरियाणा में लाई जाती हैं. किसी के पास भी मैरिज सर्टिफिकेट नहीं है, ना ही लोकल थानों और अधिकारों की जानकारी है.’

इस संदर्भ में हिसार ज़िले के एसपी अश्विन शानवी दिप्रिंट को बताते हैं, ‘राज्य सरकार ने 2015 में ‘स्वाधार गृह’ योजना चलाई थी. इस योजना से तहत मदद मांगने वाली महिलाओं की संख्या बेहद कम है. हां अगर ऐसा कोई केस आता है तो हम ज्यादा संवेदनशीलता बरतते हैं क्योंकि इन्हें अपने केस की खुद ही पैरवी करनी होती है. पारिवारिक साथ देने वाला कोई नहीं होता.’

अब ये सामाजिक मुद्दा हो गया है सियासी

जींद जिले के कुंवारे लड़कों ने 2014 लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ‘रांडा’ यूनियन ( कुंवारे लड़कों का यूनियन) भी बनाया था. क्योंकि अब ये एक चुनावी मुद्दा भी बन गया है. स्थानीय नेता भी गाहे बगाहे मोल की बहू दिलाने का वादा कर बैठते हैं. साल 2015 में आया गाना ‘बहू ले आओ मोल’ पूरी व्यवस्था की परत दर परत खोल देता है-

30-35 का जुगाड़ करो और बहू ले आओ मोल की, बैठ रेल में चाल पड़ो, कोई आसाम और कोई बिहार,
एक बार की बात सै या, वहां ना जाणा पडै बार बार, कम खर्चे में काम चलै और लोड़ ना डीजे ना ढोल की!

जो खाप पंचायतें जातीय दंभ भरती थीं, आज घुटने टेक कर बैठी हैं

ऑनर किलिंग के लिए कुख्यात रही खापों ने भी वंश बढ़ाने की जरूरत के सामने अपने दंभ को कम किया है. जींद की सर्वजातीय बरसौला खाप के प्रधान सतबीर पहलवान का कहना है, ‘खाप दूसरे राज्यों से लाई जा रही लड़कियों के खिलाफ नहीं है. जो हमारे घर आ गई वो हमारी हुई. अगर कोई जाट के घर में आई तो वो जाटनी हुई और किसी हरिजन के घर आई तो हरिजनों की हुई. हमें सिर्फ एक गोत्र की शादियों से दिक्कत है.’

जिस दिन हम कंडेला खाप से मिले उसी दिन हिसार से भाजपा सांसद बृजेंद्र सिंह गांवों को अमित शाह की रैली (16 अगस्त) का निमंत्रण देने आए थे. दिप्रिंट से बात करते हुए वो कहते हैं, ‘आप हरियाणा के बिगड़े सेक्स रेश्यो की तुलना क्षेत्र पार से हो रही शादियों से नहीं कर सकते. खट्टर सरकार ने इसे ठीक करने के लिए कई कदम उठाए हैं और उसके सकारात्मक नतीजे हमारे सामने हैं.’

विडंबना ये है कि जब सांसद ये बातें कह रहे थे तो पंचायत में सैंकड़ों पुरुषों के बीच सिर्फ 5 महिलाएं मौजूद थीं और वो भी घूंघट में. सांसद से सारे सवाल पुरुषों ने ही पूछे.

कौन दिलाता है पारो/ मोल की बहुएं?

बरसौला गांव के एक ब्रोकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘मेरी खुद की शादी नेपाली मूल की लड़की से हुई थी. अब उसके बाद मैंने गांव के ही 4-5 लड़कों की शादियां भी करा दी हैं. मेरी पत्नी के घरवाले हिमाचल के किसी गांव में आकर बस गए थे. बीवी के साथ जाकर वहां के गरीब परिवारों की लड़कियां देख आता हूं. यहां आकर कुंवारे लड़कों के परिवारों को बताता हूं. थोड़ा बहुत कमीशन भी मिल जाता है.’

अहीरकां गांव के एक अन्य बिचौलिए ने बताया, ‘आजकल ज्यादातर लोग बिहार, यूपी और हिमाचल से आए मजदूरों के मार्फत शादी का जुगाड़ कर लेते हैं. जितना रोजगार के लिए माइग्रेशन और इंटरनेट बढ़ा है, चीजें आसान हुई हैं.’

कंडेला खाप.

इन शादियों का एक नया पहलू है कि इनमें से ज्यादातर शादियां अंतर्जातीय हैं. दूसरे राज्यों की दलित लड़कियों की शादियां हरियाणा की अगड़ी जातियों में हो रही हैं. अनजाने में ये जातीय सिस्टम पर प्रहार भी है.

बेटे के लिए कोख की चाह में लाई जाती हैं पारो 

मुस्लिम बाहुल्य मेवात इलाके में एक बार पत्नी के भाग जाने या मर जाने पर दूसरी शादी खरीद फरोख्त या बिचौलियों के मार्फत ही संभव है. बिहार के सासाराम से लाई गई खुशबुन अपने दो साल के सबसे छोटे बेटे को दूध पिलाते हुए वो कहती हैं, ‘मेरे पति को पहली शादी से छोरा ना हुआ. तो फेर मेरे को मेवात लाया गया. ईब मैं खेतों में काम करूं हूं.’

पारो नाम कैसे पड़ा? इस सवाल के जवाब में मेवात के गुहाना गांव के प्रधान कहते हैं, ‘जो यूपी पार से लाई गईं उनका नाम पारो पड़ गया. बिगड़े सेक्स रेश्यों ने इस ट्रेंड को फैलाया. राज्य सरकार का दावा है कि 2018-19 में हरियाणा का लिंगानुपात 887 से बढ़कर 914 हो गया है.’

रंग, कद और बोली को लेकर बनता है उपहास

इंद्रप्रस्थ इंस्टिट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी में सामाजिक विज्ञान की अस्सिटेंट प्रोफेसर पारो मिश्रा बताती हैं, ‘पारो और उसके पति ही एजेंट की तरह काम करने लगते हैं. ज्यादातर ये ही बहुएं अपने इलाकों की गरीब लड़कियां ढूंढ कर यहां लाकर शादियां करा देती हैं. इन्हें क्षेत्र पार शादियां कहा जाना चाहिए. सही शब्दावली इस्तेमाल करके ही हम सही हल ढूंढ पाएंगे.’

वो आगे जोड़ती हैं, ‘घरेलू हिंसा के मामलों में ये महिलाएं बिलकुल अकेली पड़ जाती हैं. ना ही पुलिस के पास जाने का कोई तरीका होता है और ना ही अपने घर लौटने का.’

इतना ही नहीं, इनके बच्चों को भी घर और स्कूलों में दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है. दिप्रिंट से हुई बातचीत में कई महिलाओं ने इस बात को स्वीकार किया कि गांव की औरतें अक्सर उनके रंग, कद-काठी और बोली को लेकर उपहास ही उड़ाती हैं. कई बार दादियां अपने पोते को मोल की बहू के साथ पलने नहीं देती.

पारो/मोल की बहुओं के बाद अब ‘लुटेरी दुल्हन’ का गैंग हुआ सक्रिय

दिल्ली के कुछ गिरोह कुंवारे लड़कों को ‘मोल की बहू’ के नाम पर चूना भी लगा रहे हैं. पिछले दिनों हरियाणा सीएम विंडो पर एक युवक ने शिकायत की कि 80 हजार रुपए लेकर एक महिला से उसकी शादी करवाई गई, जो तीन दिन बाद पैसे और गहने लेकर फरार हो गई.

प्रशासन के मुताबिक साल 2017 में सोनीपत के खरखौदा में शादी के नाम पर 35 युवाओं को ठगा गया. इनमें से 14 लड़के जींद जिले के थे. सबको शादी कराने के नाम पर एक ही दिन बुलाया गया था. कंडेला खाप के लोगों का कहना है, ‘लूटने वाले गिरोह में पंजाब की लड़कियां ही शामिल हैं. इनका नाम पत्रकारों ने ‘लुटेरी दुल्हन’ रख दिया है.’

एक नया बदलाव भी हो रहा है, जो भारतीय संस्कृति का परिचायक है

पंचायतों का मानना है कि बाहर से बहुएं लाने के बाद हरियाणवी जीन बदल रहे हैं. अब इनके बच्चे सिर्फ हरियाणवी नहीं हैं, बल्कि क्षेत्रीय स्तर से उठकर भारतीय बन गये हैं. पर शायद ही इनमें से कोई बच्चा असम, तमिलनाडु या बिहार के अपने ननिहाल जाता हो. जींद के संजय को ‘हरियाणवी जीन’ के बदलने से डर है कि उनकी पहचान खत्म ना हो जाए लेकिन साथ ही वो जोड़ते हैं,’ इंसान की पहचान उसके कर्म से होती है’.

क्या कहते हैं मानव तस्करी को लेकर सरकारी आंकड़े

नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकॉर्ड्स के मुताबिक साल 2016 में देश में मानव तस्करी के 8,132 केस दर्ज हुए थे. 2015 में इन केसों की संख्या 6,877 थी. कुल 15,379 पीड़ितों में से 9,034 पीड़ित 18 वर्ष की उम्र से कम के थे. आधे के करीब बच्चों को शादी के नाम पर ही खरीदा-बेचा गया. पश्चिम बंगाल और असम में सबसे ज्यादा मानव तस्करी के केस रिपोर्ट हुए. 2016 के बाद के केंद्र सरकार ने आंकड़े जारी नहीं हुए हैं. लेकिन हरियाणा सरकार के मुताबिक राज्य में 2016 में मानव तस्करी के 30 ऐसे केस दर्ज हुए थे. साल 2017 में महज 48 केस सामने आए.

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