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Sunday, 24 November, 2024
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किशोर उम्र में गैंगरेप, दादी-नानी बन जाना पड़ रहा कोर्ट: 1992 का अजमेर कांड आज भी एक खुला घाव है

अजमेर गैंगरेप और ब्लैकमेल का मामला राजनीतिक संरक्षण, धार्मिक पहुंच, दण्डभाव से मुक्ति और छोटे शहर के ग्लैमर का एक जहरीला मिश्रण था. तीस साल बाद भी इस मामले का किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी भी दूर ही लगता है.

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अजमेर: राजस्थान के अजमेर में पिछले दिसंबर में एक गैंगरेप (सामूहिक बलात्कार) पीड़िता का गुस्सा पॉक्सो कोर्ट के एक पुराने पड़ चुके पीले अदालती कक्ष में फूट पड़ा. वह जज, वकीलों और अदालत में मौजूद आरोपियों पर चिल्लाते हुए बोल उठी, ‘आप लोग मुझे अब भी बार-बार कोर्ट क्यों बुला रहे हो? 30 साल हो गए… मैं अब एक दादी हूं, मुझे अकेला छोड़ दो.’

सारी अदालत सन्न रह गयी.

उसने पूरे गुस्से से साथ कहा, ‘हमारे पास अब परिवार हैं. हम उन्हें क्या कहेंगे?’

उसके शब्दों ने दैनिक भास्कर के स्थानीय संस्करण में काफी सुर्खियां बटोरीं. 1992 से चल रहा राजस्थान का कुख्यात सामूहिक बलात्कार वाला यह मामला, जिसे ‘अजमेर ब्लैकमेल कांड’ कहा जाता है, आज भी एक खुला घाव है, जो उसके पीड़ितों के दर्द के किसी भी तरह के इलाज या फिर इस मामले के खत्म होने के प्रयासों का विरोध करता रहता है.

2004 में सामने आये दिल्ली पब्लिक स्कूल (डीपीएस) के ‘एमएमएस कांड‘ से बहुत पहले हुआ यह कांड कई सारी युवतियों के साथ सामूहिक बलात्कार और वीडियो रिकॉर्डिंग तथा तस्वीरों के माध्यम उन्हें अपने आप को उनके हवाले करने और चुप्पी साधे रखने के लिए ब्लैकमेल करने का मामला था. अजमेर गैंगरेप और ब्लैकमेल का मामला राजनीतिक संरक्षण, धार्मिक पहुंच, दण्डभाव से मुक्ति और छोटे शहर के ग्लैमर के जहरीले मिश्रण से उपजा एक मामला था और अगर इस शहर का एक निडर क्राइम रिपोर्टर (आपराधिक मामलों का संवाददाता) सामने नहीं आया होता, तो यह कभी भी अदालतों तक नहीं पहुंचता.

अजमेर में हर कोई जानता था कि आरोपी कौन हैं. वे थे मशहूर चिश्ती जोड़ी फारूक और नफीस – जो अजमेर शरीफ दरगाह से जुड़े बड़े परिवार से संबंधित थे – और उनके दोस्तों का गिरोह. इन लोगों ने स्कूल जाने वाली कई सारी युवतियों को महीनों तक धमकियों और ब्लैकमेल के जाल में फंसाया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया. एक फोटो कलर लैब ने इन महिलाओं की नग्न तस्वीरें छापी और उन्हें वितरित करने में मदद की.

बाएं से फारूक चिश्ती और नफीस चिश्ती. फोटो- विशेष व्यवस्था से.

जब यह सारी खबर सामने आई, तो अजमेर में धार्मिक तनाव बढ़ गया और पूरा शहर बंद भी हो गया. लेकिन, बहुत से लोग नहीं जानते थे कि ये महिलाएं कौन थीं और उनके मामले के सार्वजनिक बहस में के बाद वे कहां गायब हो गईं?

स्थानीय मीडिया ने इन युवतियों को ‘आईएएस-आईपीएस की बेटियां‘ कहा, लेकिन वे सिर्फ कुलीन घरों से ही नहीं थीं. उनमें से कई सरकारी कर्मचारियों के मामूली, मध्यमवर्गीय परिवारों से आती थीं, जिनमें से कई इस सारे हो-हंगामे के मद्देनजर अजमेर छोड़ के चले गए.

‘हर बार जब वे किसी पुलिसकर्मी को देखती हैं, तो वे घबरा जातीं हैं’

पुलिस के रिकॉर्ड (अभिलेख) में इन बलात्कार पीड़िताओं के प्रथम नाम और सरकारी कॉलोनी के उन अस्पष्ट पतों का उल्लेख है, जहां से वे बहुत पहले चलीं गयीं थीं. उस समय की स्कूली छात्राएं रहीं ये सामूहिक बलात्कार पीड़िताएं अपने-अपने पतियों, बच्चों और पोते-पोतियों के साथ अलग-अलग शहरों में चली गईं, जिससे पुलिस के लिए उनका पता-ठिकाना रखना लगभग असंभव हो गया.

पिछले कई दशकों से, किसी आरोपी के आत्मसमर्पण करने या उसके गिरफ्तार होने पर अदालतों ने हर बार इन पीड़िताओं को तलब किया. जब भी सुनवाई शुरू हुई, पुलिस वाले समन देने के लिए राज्य के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के घरों पर जा धमके.


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अजमेर में जिला एवं सत्र न्यायालय, जहां से शुरू हुई मामले की लंबी कानूनी यात्रा | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

वकीलों का कहना है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) की धारा 273 के तहत, अदालत को आरोपी की उपस्थिति में पीड़िता की गवाही दर्ज करनी होती है – यह एक ऐसी प्रक्रिया जो इन महिलाओं को फिर से आघात पहुंचाती है.

इसे लेकर पुलिस भी हताश-परेशान होती. दरगाह थाने के थाना प्रभारी दलबीर सिंह ने इस बारे में बताया, ‘कितनी बार हम उन्हें अदालत में घसीटेंगे? फोन करने पर वे हमें गालियां देती हैं. जब भी वे अपने दरवाजे पर किसी पुलिसकर्मी को देखती हैं, तो वे आतंकित हो जाती हैं.’

करीब एक साल से सिंह को समन देने और पीड़ितों को अदालत में लाने का काम सौंपा गया है. उन्होंने इसे ‘एक बहुत ही मुश्किल काम’ के रूप में वर्णित किया.

सिंह ने कहा, ‘एक परिवार ने कहा कि उनकी बेटी की मौत हो चुकी है. एक और परिवार ने मुझे धमकी देने के लिए वकील भेजा. कम-से-कम तीन पीड़िताओं ने अदालत में अपना बयान दर्ज कराने के बाद आत्महत्या की कोशिश की.’

सितंबर 1992 में मुकदमा शुरू होने के बाद से, पुलिस ने छह आरोपपत्र दायर किए हैं, जिनमें 18 आरोपियों (शुरुआत में आठ से बढ़ाकर) और 145 से अधिक गवाहों का नाम है. यह मामला राजस्थान में 12 सरकारी अभियोजकों, 30 से अधिक एसएचओ, दर्जनों एसपी, डीआईजी, डीजीपी और पांच बार सरकार में बदलाव तक फैला हुआ है. अजमेर पुलिस को हमेशा से संदेह था कि इस मांमले में 100 से अधिक किशोरियों का शोषण किया गया था, लेकिन प्राथमिक जांच के दौरान केवल 17 पीड़िताओं ने ही अपने बयान दर्ज किए. उनमें से भी अधिकांश अंततः अपनी बात से पलट गईं.

यह मामला जिला अदालत से राजस्थान उच्च न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट, फास्ट ट्रैक कोर्ट, महिला अत्याचार न्यायालय में घूमते हुए और फ़िलहाल अजमेर की पॉक्सो अदालत में है.

वे मर्द जिनका समूचे अजमेर पर दबदबा था

आज के दिन में अजमेर झील के नज़ारों वाले रेस्तरां, सस्ते होटल और बाज़ारों से भरा हुआ है. लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत में, सोफिया स्कूल और सावित्री स्कूल के युवा छात्रों के लिए इस पवित्र माने जाने शहर में केवल दो रेस्तरां थे, एलीट और हनी ड्यू.

उस समय, ये हैंगआउट स्पॉट (युवाओं के मिलने-जुलने के स्थान) अभी भी काफी नए-नवेले थे. ये दोनों अजमेर रेलवे स्टेशन के पास स्थित थे, जो नई ट्रेनों के नेटवर्क की बदौलत देश के बाकी हिस्सों से पहले से बेहतर तरीके से जुड़ा हुआ था, और वह समय भारत में आर्थिक उछाल और नई आशा की मादकता वाले मनमोहन सिंह युग की शुरुआत वाला था.

नव धनिक वे लोग थे जो अपनी कारों, डिश टीवी कनेक्शन के साथ-साथ अपने पास पहले से पैसे होने के निशानों, जैसे रॉयल एनफील्ड, येज़दी और जावा बाइक, को प्रदर्शित कर सकते थे. और प्रभावशाली खादिमों – उस समय के अजमेर शरीफ दरगाह के केयरटेकर्स (देखरेख करने वाले) का विस्तारित परिवार – के पास यह सब था.

इस परिवार के युवा सदस्य स्थानीय हस्तियों की तरह थे. वे अपनी खुली जीप, एम्बेसडर और फिएट कारों में खुलेआम घूमते रहते थे. वे शहर के एकमात्र जिम में जाते थे और खुद के स्टाइल को संजय दत्त – जिनके प्रति भारत के छोटे शहरों में लंबे बालों और गले में लटकी जंजीरों के साथ काफी सारा क्रेज था- के हिसाब से संवार कर रखते थे.

एलीट रेस्तरां 90 के दशक की शुरुआत में अपने नाम पर कायम रहा | फोटो: ज्योति यादव: दिप्रिंट

इस इठलाहट (स्वैगर) के साथ ही इन लोगों के पास पैसा, सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक शक्ति सब कुछ थी. फारूक और नफीस दोनों अजमेर में युवा कांग्रेस के शीर्ष नेता थे और माना जाता था कि उनके मित्र उच्च पदों पर आसीन हैं.

उस समय दैनिक नवज्योति के साथ क्राइम रिपोर्टर रहे संतोष गुप्ता ने याद करते हुए बताया, ‘इस सारे दबदबे ने उनकी खूब मदद की. मुझे एक घटना याद है जहां वे दोनों अपनी जीप पर बैठ एलीट रेस्त्रां गए थे जहां कुछ स्कूली छात्राएं भी बैठी थीं. उनमें से एक ने (रेस्तरां) के मैनेजर प्रबंधक को बुलाया और उसे सभी को आइसक्रीम बांटने के लिए कहा क्योंकि उस दिन उनके एक दोस्त का जन्मदिन था. यह फिल्मी लग सकता है, लेकिन उन दिनों यह किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकता था.’

उन्होंने आगे कहा: ‘हर क्राइम रिपोर्टर इस गिरोह का बारीकी से पीछा करता था क्योंकि बड़ी अपराध कहानियां भी ज्यादा शक्ति के साथ जुड़ी होती हैं.’


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ग्रूमिंग, गैंगरेप, ब्लैकमेल

चाहे यह कोई ‘अपराध की बड़ी सी कहानी’ हो या न हो, परन्तु अदालत के दस्तावेज और इस मामले से जुड़े लोगों के बयान अजमेर के एक बंगले, एक फार्महाउस और एक पोल्ट्री फार्म के बंद दरवाजों के पीछे 90 के दशक की शुरुआत में घटित हुई प्रलोभन, यौन शोषण और ब्लैकमेल की एक घिनौनी तस्वीर पेश करते हैं.

कई महिलाओं ने अपनी गवाहियां वापस ले लीं और इस बात की पूरी संभावना है कि कुछ बातें कभी सामने नहीं आईं, लेकिन घटनाओं की ज्ञात समयरेखा 1990 में शुरू होती है.

उस वर्ष किसी समय, सावित्री स्कूल की कक्षा 12 की छात्रा ‘गीता’* नामक एक महत्वाकांक्षी युवा लड़की ने फैसला किया कि वह कांग्रेस पार्टी में शामिल होना चाहती है. उसे लगा कि किस्मत उसके साथ थी क्योंकि अजय* नामक एक परिचित ने उसे बताया कि वह उन ‘लोगों’ को जानता है जिनसे उसे बात करनी चाहिए: वे लोग थे नफीस और फारूक चिश्ती.

वर्तमान में अभियोजन पक्ष के वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ ने कहा, ‘उन दिनों गैस का कनेक्शन बहुत बड़ी बात हुआ करती थी. गीता अजय को गैस कनेक्शन पाने और कांग्रेस में शामिल होने की इच्छा के बारे में बताती रहती थी, और उसने इसका फायदा उठाया. उसने उसे नफीस और फारूक चिश्ती से यह कहते हुए मिलवाया कि वे भले लोग हैं.’

जिस फार्महाउस में कई रेप हुए थे | फोटो: विशेष व्यवस्था से.

इस मामले में 2003 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में गीता की गवाही का विवरण दिया गया था कि कैसे उसे ‘ग्रूम’ (अच्छी तरह से संवारा) किया गया, फिर उसका यौन उत्पीड़न किया गया, और फिर चिश्ती जोड़ी और उनके दोस्तों के लिए और अधिक युवा महिलाओं को लाने के लिए उसे ब्लैकमेल किया गया. गीता के अनुसार, जब वह अजय के साथ थी तब भी नफीस और फारूक उससे कई बार मिले थे. एक बार जब वह बस स्टैंड पर थी तो वे अपनी मारुति वैन में सवार हो उसके पास आये थे. उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि वे उसे कांग्रेस में एक ‘असाइनमेंट’ के साथ जगह दिला देंगे.

बाद में, उनके ही एक सहयोगी सैयद अनवर चिश्ती ने उसे एक फॉर्म भरने के लिए दिया और कहा कि इसके साथ उसे एक पासपोर्ट आकार की फोटो जमा करने की जरूरत होगी.

सब कुछ एकदम से वैधानिक लग रहा था, इसलिए एक दिन गीता के स्कूल जाने की राह में जब नफीस और फारूक ने उसका रास्ता रोक अपनी वैन में उसे लिफ्ट देने की पेशकश की, तो उसे कोई खास चिंता नहीं हुई. उसने उनकी पेशकश स्वीकार कर ली, लेकिन उसे स्कूल ले जाने के बजाय, वे दोनों उसे एक फार्महाउस में ले आए.

अपनी गवाही में, गीता ने कहा कि उसका सोचना था कि रास्ते में इस बदलाव का उद्देश्य कांग्रेस में उसके शामिल किये जाने पर चर्चा करना था, लेकिन जिस क्षण वह नफीस के साथ अकेली हुई उसी पल उसने उस पर झपट्टा मारा और जैसा वह कह रहा था वैसा न करने पर उसे जान से मारने की धमकी देते हुए उसका यौन उत्पीड़न किया.

गीता ने अपनी गवाही में बताया कि कुछ दिनों बाद उसने उसे फिर से प्रताड़ित किया और यह बात दोहराई कि अगर उसने किसी को इस यौन हमले के बारे में बताया तो उसे इसके लिए पछताना होगा.

यह तो केवल शुरुआत थी. इस मर्दों ने गीता को अन्य लड़कियों से उन्हें मिलवाने के लिए मजबूर किया. कभी-कभी वह उन्हें अपने ‘भाइयों’ के रूप में मिलवाती थी ताकि उनका विश्वास बन सके और वे फ़ॉय सागर रोड पर स्थित उनके फार्महाउस या फारूक के बंगले में होने वाली ‘पार्टियों’ में स्वेच्छा से शामिल हों. इनमें से कई महिलाओं का एक या कई पुरुषों द्वारा यौन उत्पीड़न किया गया था. बलात्कारी आमतौर पर बलात्कार की तस्वीरें भी लेते थे क्योंकि शर्म और ब्लैकमेल इन पीड़िताओं की चुप्पी बरक़रार रखने की सबसे विश्वसनीय गारंटी थी.

दलबीर सिंह बताते हैं, ‘मीडिया ने यह कहकर इस मामले को सनसनीखेज बना दिया कि ये सब आईएएस-आईपीएस अधिकारियों की बेटियां हैं. उनमें से एक राजस्थान सिविल सेवा अधिकारी की बेटी थी और दूसरी एक कृषि अधिकारी की.’

यहां परेशान होने वाली बात यह है कि, गीता की गवाही के अनुसार सामूहिक बलात्कार के इस दौर के शुरुआती दिनों में, उसने और एक अन्य पीड़िता कृष्णाबाला* ने एक पुलिस कांस्टेबल से संपर्क किया था, जिसने उन्हें अजमेर पुलिस की विशेष शाखा में काम करने वाले एक अधिकारी से भी मिलवाया. उन्होंने पीड़िताओं को उनकी ब्लैकमेल वाली तस्वीरों को वापस प्राप्त करने में मदद करने का वादा किया, लेकिन जल्द ही इन महिलाओं को इस बात के लिए धमकी भरे फोन आए और उनसे पूछा गया कि उन्होंने पुलिस से संपर्क क्यों किया?

गीता ने दावा किया कि इस कांस्टेबल ने एक बार उसे और कृष्णाबाला को दरगाह क्षेत्र से तस्वीरें बरामद करने के लिए अपने साथ जाने के लिए कहा था. जब पुलिसकर्मी कुछ दूरी पर खड़ा था, तभी इस गिरोह के सदस्यों में से एक, मोइजुल्लाह उर्फ पुत्तन इलाहाबादी, चहलकदमी करते हुए उनके पास आया और उसने गुप्त रूप से कहा, कि ‘जो खेल वे खेल रहीं हैं वह एक ऐसा खेल था जिसे उन्होंने बहुत पहले ही खेल रखा है. वे तस्वीरें कभी वापस नहीं की गईं.

पत्रकार संतोष गुप्ता याद करते हए कहते हैं, ‘दरगाह पर आने वाले लोग उनके हाथ चूमते थे उन्होंने इस मजहबी ताकत का इस्तेमाल राजनीतिक प्रभाव पाने के लिए किया. एसएचओ से लेकर एसपी तक सब उन्हें एफआईआर पर बातचीत करने या अपील जारी करने के लिए फोन करते थे. कोई उन्हें न नहीं कह सकता था.’

मारुती वैन पीड़ितों को उनके हमले वाली जगहों तक ले जाती थी | फोटो: विशेष व्यवस्था से.

इस बीच, इन महिलाओं की सबसे बड़ी आशंका सच हो गई. उस फोटो लैब जहां यौन उत्पीड़न की ये तस्वीरें छापी जाती थीं के कुछ कर्मचारियों ने उन तस्वीरों को प्रसारित कर दिया, जिससे उनके प्रति हुआ दुर्व्यवहार और भी बढ़ गया. अगर इसका कोई अच्छा नतीजा हुआ तो वह यह था कि सारा मामला लोगों के सामने आ गया.

संतोष गुप्ता के अनुसार, पुरुषोत्तम नामक एक रील डेवलपर (तस्वीरें साफ़ करने वाला) ने जब अपने पड़ोसी देवेंद्र जैन को एक अश्लील पत्रिका में छपीं तस्वीरों को देखते हुए पाया तो उसने यौन शोषण की इन तस्वीरों के बारे में डींग मारी. पुरुषोत्तम ने स्पष्ट रूप से उपहास करते हुए कहा था : ‘यह तो कुछ भी नहीं है. मैं तुम्हें असली चीजें दिखाऊंगा. ‘

इस ‘असली चीज’ ने देवेंद्र के कान खड़े कर दिए. उसने इन तस्वीरों की प्रतियां बनाईं और फिर उन्हें ‘दैनिक नवज्योति’ तथा विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के स्थानीय समूह को भेज दिया. इसके बाद विहिप कार्यकर्ताओं ने ये तस्वीरें पुलिस को दीं, जिसने उनकी जांच शुरू की.

इस बीच, 21 अप्रैल 1992 को गुप्ता ने इस यौन शोषण के बारे में ‘दैनिक नवज्योति’ के लिए अपनी पहली खबर लिखी. हालांकि, इस खबर ने तब तक कोई ज्यादा हलचल नहीं मचाई, जब तक कि इस अखबार ने इस बारे में अपनी दूसरी रिपोर्ट – इस बार पीड़िताओं की बिना कपड़ों वाली धुंधली की गईं तस्वीरों के साथ – प्रकाशित नहीं की. यह खबर 15 मई 1992 को सामने आई और इसने लगभग तुरंत ही हंगामा खड़ा कर दिया. इस मामले को लेकर जनता में फैले व्यापक आक्रोश के कारण 18 मई को पूरा अजमेर बंद रहा.


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पूर्व दैनिक नवज्योति पत्रकार संतोष गुप्ता ने 2000 के दशक के मध्य तक मामले को गहनता से कवर किया और कई बार अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में पेश हुए | फोटो: विशेष व्यवस्था से.

27 मई को, पुलिस ने कुछ आरोपियों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत वारंट जारी किया, और तीन दिन बाद, तत्कालीन उत्तरी अजमेर के पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) हरि प्रसाद शर्मा ने गंज पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज की. तत्कालीन-एसपी सीआईडी-क्राइम ब्रांच, एन.के. पाटनी को इस मामले की जांच के लिए जयपुर से अजमेर भेजा गया था.

दिप्रिंट से बात करते हुए, पाटनी, जो अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं, ने कहा कि यह हाई-प्रोफाइल मामला ऐसे समय में आया था जब पूरे भारत में सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा था. लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा कुछ साल पहले ही हुई थी और यह मामला बाबरी मस्जिद के विध्वंस से कुछ महीने पहले आया था.

पाटनी ने कहा, ‘यह तब एक बड़ी चिंता की बात थी कि कैसे इस मामले को सांप्रदायिक होने से रोका जाए क्योंकि मुख्य आरोपी मुस्लिम थे और अधिकांश पीड़िताएं हिंदू थीं. लैब तकनीशियन और कुछ अन्य आरोपी हिंदू थे.’

उन्होंने जांच के दौरान सात गवाहों के बयान दर्ज करने की बात याद की, जिसमें से एक वह चश्मदीद गवाह भी शामिल थी जो बाद में अदालत में गवाही देने गयी थी.

पाटनी ने कहा, ‘मैं सादे कपड़ों में उसके घर गया था. मुझे उसे यकीन दिलाना पड़ा कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है. काफी काउंसलिंग (समझाने-बुझाने) के बाद उसने अपना बयान दर्ज कराया.’

सितंबर 1992 में, पाटनी ने पहली चार्जशीट दायर की, जो 250 पृष्ठों में थी और जिसमें 128 प्रत्यक्षदर्शी गवाहों के नाम और 63 सबूत थे. जिला सत्र अदालत ने 28 सितंबर को सुनवाई शुरू की थी.

मुकदमे, और फिर उसके बाद के और मुकदमे..

1992 के बाद से, अजमेर बलात्कार मामले ने कई अलग-अलग मुकदमों, अपीलों और कुछ लोगों के बरी होने के साथ एक जटिल और लम्बा कानूनी रास्ता तय किया है.

कुल मिलाकर अठारह लोगों को आरोपी के रूप में नामित

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट.

किया गया था, जिनमें से एक, पुरुषोत्तम, 1994 में आत्महत्या कर ली थी. मुकदमे चलाये जाने वाले पहले आठ संदिग्धों को 1998 में जिला सत्र अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन साल 2001 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने उनमें से चार को बरी कर दिया था और फिर सुप्रीम कोर्ट ने साल 2003 में बाकी आरोपियों की सजा को घटाकर 10 साल

कर दिया.

बाकी संदिग्धों को अगले कुछ दशकों में गिरफ्तार किया गया और उनके मामलों को अलग-अलग समय पर मुकदमे के लिए भेजा गया.

फारूक चिश्ती ने दावा किया कि वह मुकदमे का सामना करने के लिए मानसिक रूप से अक्षम है, लेकिन 2007 में, एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई. 2013 में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि उसने पर्याप्त समय कैद में बिता दिया है और इस वजह से उसे रिहा कर दिया गया.

नफीस चिश्ती, जो एक हिस्ट्री-शीटर (आपराधिक इतिहास वाला व्यक्ति) था और जो नशीली दवाओं की तस्करी के मामलों में भी वांछित था, 2003 में उस वक्त तक फरार रहा था जब दिल्ली पुलिस ने उसे पहचाने जाने से बचने के लिए बुर्का पहने हुए पकड़ा था. एक अन्य संदिग्ध इकबाल भट 2005 तक गिरफ्तारी से बचता रहा, जबकि सुहैल गनी चिश्ती ने 2018 में आत्मसमर्पण कर दिया.

इस तरह के हर घटनाक्रम के बाद वैसी पीड़िताओं को जो अभी भी गवाही देने की इच्छुक या सक्षम थीं, वापस अदालत में घसीटा गया.

फिलहाल छह आरोपियों- नफीस चिश्ती, इकबाल भट, सलीम चिश्ती, सैयद जमीर हुसैन, नसीम उर्फ टार्जन और सुहैल गनी पर पॉक्सो कोर्ट में मुकदमा चल रहा है, लेकिन वे सभी जमानत पर बाहर हैं. एक और संदिग्ध, अलमास महाराज, कभी पकड़ा ही नहीं गया और उसके बारे में माना जाता है कि वह अमेरिका में रह रहा है. उसके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट और रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया गया है.

पहली चार्जशीट दाखिल करने वाले एन.के. पाटनी ने कहा, ‘कुछ आरोपियों को उम्रकैद की सजा दी गई, लेकिन कुछ पुलिस अधिकारियों और विशेष अभियोजकों ने कई सालों में इस सारे मामले को कमजोर कर दिया.’

‘लोग आज भी उन दोनों का हाथ चूमते हैं’

गुप्ता बताते हैं की आज के दिन में नफीस और फारूक चिश्ती अजमेर में एक ऐशो-आराम का जीवन जी रहे हैं और दरगाह शरीफ में अक्सर आते रहते हैं, जहां कुछ वफादार अभी भी उनके हाथों को चूमते हैं.

दलबीर सिंह के अनुसार, नफीस एक ‘आदतन अपराधी’ है, लेकिन इससे उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा कभी प्रभावित नहीं हुई. इस थाना प्रभारी ने कहा, ‘साल 2003 में, उसे 24 करोड़ रुपये की स्मैक के साथ पकड़ा गया था. उसके खिलाफ अपहरण, यौन उत्पीड़न, अवैध हथियार और जुआ खेलने के भी मामले दर्ज हैं.

उसकी रिहाई के बाद से, शहर के लोग इस बात की लेकर नाराजगी जताते रहते हैं कि फारूक के साथ प्रतिष्ठित खादिम परिवार के एक सम्मानित बुजुर्ग की तरह व्यवहार कैसे किया जाता है. जब दिप्रिंट ने फारूक चिश्ती से संपर्क करने की कोशिश की, तो उसके एक करीबी ने कहा कि यह मामला खत्म हो चुका है और इस बारे में पीछे मुड़कर देखने की कोई जरूरत नहीं है.

दिप्रिंट ने नफीस चिश्ती से भी संपर्क किया जिसने कहा कि उसका इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है. उसने फोन की लाइन काटने से पहले कहा, ‘मेरा नाम गलत इस्तेमाल किया गया था. शहर में सात या आठ लोग नफीस के नाम से जाने जाते हैं.’

दरगाह वाले इलाके, जहां चिश्ती खानदान के सदस्य बड़े और सुव्यवस्थित घरों में रहते हैं, से दूर अतीत को पीछे छोड़ पाना अधिक कठिन रहा है.

सावित्री स्कूल, जिसकी बाहरी दीवारों पर माधुरी दीक्षित, कल्पना चावला और इंदिरा गांधी जैसी महिला प्रतीकों की थोड़ी पुरानी पड़ चुकी पेंटिंग बनी हैं, अभी भी चल रहा है, लेकिन इसका छात्रावास 1992 के बाद से बंद है. सोफिया स्कूल भी अब लड़कियों के लिए अपनी छात्रावास वाली सुविधा नहीं चलाता है. दोनों में से कोई भी स्कूल अपनी प्रतिष्ठा को पूरी तरह से वापस नहीं पा सके हैं.


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सावित्री स्कूल, जहां की कई पीड़ित छात्र थीं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

सालों तक, इस ‘कांड’ का कलंक, कम-से-कम अजमेर के अधिक रूढ़िवादी वर्गों की नज़र में, शहर की सभी युवतियों को कलंकित करता रहा था, चाहे वे उस गिरोह के सम्पर्क में आईं हो या नहीं.

गुप्ता याद करते हुए बताते हैं, ‘कोई भी अजमेर की लड़कियों से शादी नहीं करना चाहता था. 90 के दशक में मुझे बहुत सारे अवांछित आगंतुक मिलते थे. लोग मुझे आगे होने वाली शादियों के बारे में बताते थे और मुझे दुल्हन की तस्वीर दिखाते थे. फिर वे मुझसे यह बताने के लिए कहते थे कि क्या वह ‘उनमें से एक’ तो नहीं हैं.‘ उन्होंने यह भी कहा कि इस खबर के सामने आने बाद के कई महीनों तक अगर किसी लड़की की आत्महत्या जान जाती थी, तो उसे उस गिरोह का शिकार माना लिया जाता था.

पीड़िताओं के लिए, इसके बाद सामने आने वाल नतीजा बड़ा कष्टदायक था, खासकर उन कुछ लोगों के लिए जिन्होंने अदालत में गवाही देने का फैसला किया था.

ऐसी ही एक पीड़िता हैं कृष्णाबाला, जिसके बयानों ने कई लोगों की सजाओं में योगदान दिया. राजस्थान उच्च न्यायालय के 2001 के फैसले में कहा गया है कि उसने अदालत में फारूक, इशरत अली, शम्सुद्दीन उर्फ माराडोना और पुत्तन की पहचान की. यह उसकी इस गवाही का भी विवरण देता है कि कैसे इन लोगों के साथ-साथ सुहैल गनी और नफीस द्वारा उसका सामूहिक बलात्कार और ब्लैकमेल किया गया था. फिर, 2005 में, कृष्णबाला अचानक गायब हो गईं.

दलबीर ने कहा, ‘मैं इस बात से परेशान हूं कि कृष्णबाला का पता लगाया जाना अभी बाकी है. वह सभी चश्मदीद गवाहों में सबसे मजबूत है और कई लोगों को सजा दिलवा सकती है.’

लेकिन, अभी भी उम्मीद बाकी है. तीन मुकदमों में अपने बयान से मुकरने वाली पीड़िता सुषमा* ने 2020 में फैसला किया कि वह आखिरकार अदालत में अपनी बात रखेगी. वह अभी भी अजमेर में ही एक संकरी गली के सामने बने एक छोटे से घर में रहती है, जहां दिप्रिंट ने उससे मुलाकात की.

सुषमा अजमेर के अपने घर पर | फोटो- ज्योति यादव | दिप्रिंट

लिपस्टिक और पाउडर के लिए 200 रुपये

सुषमा का घर छोटा है लेकिन रंग-बिरंगी तस्वीरों और दिखावटी साज सज्जा के सामानों से सजाया गया है. हरे रंग की फ्लोरल प्रिंटेड (फूलदार छापे) वाली सलवार-कमीज पहने और अपने बालों को एक कामकाजी महिला की तरह जूड़े में बांधे हुए, इस 50 वर्षीय महिला ने कहा कि वह अपने सदमे को दबाने की कोशिश करने में बिताये गए कई सालों के बाद इस बारे में बात करने के लिए तैयार है.

सुषमा ने तस्वीरों का एक पुलिंदा, जिनमें चमकदार आंखों वाली एक लंबी, गोरी-चमड़ी वाली लड़की दिखाई दे रही है, सामने लाते हुए कहा, ‘मीडिया में से कोई भी मेरे पास तक कभी पहुंचा हीं नहीं. इस घटना को मैंने अपनी यादों में दफ़न कर देने की कोशिश की.’ उसने कहा, ‘मेरे बालों को देखो, यह कितने मोटे हुआ करते थे.’

लेकिन, इस गिरोह के शिकंजे में आने से पहले भी सुषमा एकदम से असुरक्षित थी. एक गरीब परिवार की छह में से सबसे छोटी संतान होने के साथ वह बचपन में भी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित थी और जब वह कक्षा 8 में थी तभी उसने स्कूल जाना छोड़ दिया था.

सुषमा के मुताबिक, इस गैंग से उसका संपर्क सूत्र (लिंक) कैलाश सोनी नाम का एक परिचित था. वह उसे फुसलाकर एक सुनसान इमारत में ले गया, उसके साथ बलात्कार किया और फिर सात या आठ अन्य मर्दों को भी उसका यौन शोषण करने के लिए बुलाया. सुषमा उस वक्त महज 18 साल की थीं.

उसने कहा, ‘मैं यह समझने के लिए बहुत भोली थी कि उन्होंने मेरे साथ क्या किया है. उन्होंने बारी-बारी से मेरा रेप किया. उनमें से एक मेरे साथ रेप करता, जबकि दूसरा अपनी बारी का इंतजार करते हुए तस्वीरें खींचता.’

सुषमा की नग्न तस्वीरें और साथ ही उस जीर्ण-शीर्ण इमारत की तस्वीरें उस मुक़दमे में पेश किए गए सबूतों का हिस्सा थीं.

सुषमा ने कहा, ‘मेरे साथ यह सब करने के बाद, नफीस ने मुझे 200 रुपये दिए और मुझे कुछ लिपस्टिक और पाउडर खरीदने के लिए कहा.’ यह सब कहते हुए सुषमा का क्रोध अन्ततः उसके रक्तिम चेहरे से फूट पड़ा था.

उसने कहा कि ब्लैकमेल वाली तस्वीरों के बारे में सोचकर वह चिंतित हो जाती है और उसने हमें बार-बार यह आश्वस्त करने के लिए कहा कि उसके चेहरे की तस्वीर प्रकाशित नहीं की जाएगी. सुषमा ने बताया ‘मेरी दो भतीजियां हैं. वे अभी भी नहीं जानते कि मेरे साथ क्या हुआ था.’

सुषमा उन कुछ एक पीड़िताओं में एक थीं, जिनकी 1992 में चिकित्सकीय जांच की गई थी, और उससे गवाही की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन इस बीच उसका खुद के जीवन में जबर्दस्त उलट-पुलट मची थी.

उसने कहा, ‘मैं गर्भवती हो गई था. मेरी मां [गर्भपात करवाने के लिए] सब कुछ करने की कोशिश की, लेकिन वो कहते हैं ना की हराम का बच्चा कभी गिरता नहीं तो ये भी नहीं गिरा. हालांकि, वह मृत ही पैदा हुआ.’

सुषमा ने आगे कहा, एक साल बाद एक रिक्शा वाले ने उसके साथ फिर बलात्कार किया और उसे 25 दिनों तक अपने घर में बंदी बनाकर रखा. वह फिर से गर्भवती हुई और इस बार उसने एक बच्चे को जन्म दिया जिसे एक दूर के रिश्तेदार ने गोद ले लिया था. सुषमा ने बताया, ‘उन्होंने उसे दो या तीन महीने तक रखा और फिर वह भी मर गया.’

वर्षों से मिले अदालती सम्मन के साथ सुषमा | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

अब तक सुषमा का मानसिक स्वास्थ्य टूट की कगार पर था और वह घंटों इधर-उधर घूमती हुई मस्जिदों और मंदिरों में बैठी रहती थी. उसका परिवार उसे ओझा-गुनी के पास, और यहां तक कि इलेक्ट्रोकोनवल्सी थेरेपी (बिजली के झटके) के लिए भी, ले गया, लेकिन इन सब ने उसकी ज्यादा कुछ मदद नहीं की. उसने सरलता से कहा, ‘मेरा जीवन नरक हो गया है,’

जब वह 22 साल की थी, तब उसके परिवार वालों ने उसकी शादी किसी दूसरे शहर के एक फल विक्रेता से कर दी. अपनी शादी की रात में, उसने उसे अपनी व्यथा के बारे में सब बता दिया. उसके पति ने तब कोई प्रतिक्रिया नहीं की, लेकिन चार दिन बाद उसने सुषमा को उसके माता-पिता के घर छोड़ दिया और फिर कभी नहीं लौटा. सुषमा ने कहा, ‘जब मेरे हाथों में मेंहदी लगी ही हुई थी, तभी मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया.’

छह साल बाद, जब वह 28 साल की थी तो वह एक और आदमी से मिली और बाद में उसके साथ उसे एक बेटा भी हुआ. उसके दूसरे पति ने उसे 2010 में तलाक दे दिया, मगर सुषमा का कहना है कि उसने उससे प्यार करना कभी नहीं छोड़ा. तीन महीने पहले सुषमा को दूसरे की पत्नी हो गया थी, लेकिन सुषमा ने उसके सम्मान में उनके नामों के पहले अक्षरों से अंकित दो अंगूठियां बनवाई. उसने कहा, ‘वह अनिल कपूर की तरह दिखता था और वह मेरे इतिहास के बारे में सब जानता था.’ सुषमा ने बताया कि उनका बेटा कभी उनके बहुत करीब नहीं रहा क्योंकि उसकी दादी ही हमेशा से उसकी देखभाल करती थीं.

जब सुषमा छोटी थीं, उसके अब-मर चुके चाचा उसे कई बार अदालत में ले गए, लेकिन वह अपने बयान से मुकर गई. इसका कारण पूछे जाने पर उसने कहा, ‘नफीस और गिरोह के कई लोग उसी इलाके में रहते हैं जहां मेरी बहनें रहती हैं.’ मैं उन्हीं गलियों से गुजरता थी. उन्होंने मुझे धमकी दी थी.’

हालांकि, जब दरगाह पुलिस स्टेशन के एक पुलिसकर्मी ने 2020 में सुषमा को खोज निकला और उसे अदालत का समन सौंपा, तो वह गवाही देने के लिए तैयार हो गईं. वह घबराई हुई थीं, लेकिन जब वह पुलिसकर्मी उसके साथ अदालत में गया तो वह आश्वस्त महसूस करने लगी. वह कहती हैं, ‘सौभाग्य से, 2020 में, नफीस और बाकी लोगों को मेरी सुनवाई के बारे में पता नहीं था.’


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एक पुलिसकर्मी की भागदौड़

जब दलबीर सिंह ने पहली बार अजमेर बलात्कार कांड के बारे में सुना था, तो वह भरतपुर के एक छोटे से गांव में बड़े होते हुए एक छोटे से लड़के थे. उन्होंने कहा, ‘हर कोई इसके बारे में बात करता था,’ और इसलिए यह उनकी स्मृति में अटक सा गया. वह 2005 में राजस्थान पुलिस में शामिल हुए, लेकिन जब तक कि 2020 में उन्हें और अधिक पीड़िताओं तथा गवाहों को लाने में मदद करने के लिए एक फोन कॉल नहीं आया था तब तक उन्हें इस बात का इल्म हीं नहीं था कि यह मामला अभी खत्म नहीं हुआ है.

उन्होंने कहा, ‘मैं इस बात से स्तब्ध था कि इस मामले में अभी भी सुनवाई चल रही थी… मुझे इसके बारे में बहुत गुस्सा आता है, हालांकि मुझे अपना काम करने का सौभाग्य मिला है.’

हाल ही में इस मामले में अपनी जिम्मेदारी को एक अन्य पुलिसकर्मी को सौंपने वाले दलबीर ने कहा कि उन्होंने जो कुछ हासिल किया उस पर उन्हें गर्व है.

दरगाह पुलिस स्टेशन में दलबीर सिंह | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

उन्होंने कहा, ‘पिछले 14 साल से पुलिस सिर्फ 58 चश्मदीदों को ही ला सकी है. लेकिन इस कोविड काल में, मैं कई पीड़ितों सहित 40 और चश्मदीदों को सामने लाया.’

हालांकि, ऐसे भी कुछ क्षण थे जब यह कार्य उनके अनुमान से अधिक कठिन लगा था.

वे बताते हैं, ‘एक मामले में, पीड़िता की मां ने मुझे उससे बात करने से भी मना कर दिया था. मुझे मां के कॉल रिकॉर्ड तक पहुंचने के लिए अदालत का आदेश लेना पड़ा और तब मैं बेटी तक पहुंचने में कामयाब रहा. जब मैंने फोन किया तो वह बहुत गुस्से में थी. उसने पूछा, ‘इतने सालों बाद क्यों?’ (गवाही देने के लिए) उसकी सहमति लेने के लिए दर्जनों कॉल और फिर काउंसलिंग का सहारा लिया गया.’

एक बार जब उन्होंने एक पीड़िता के पिता को फोन किया, तो उन बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा: ‘हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है. वह अब नहीं रही.’

अभियोजन पक्ष के वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ इन पीड़िताओं की हताशा को अच्छी तरह समझते हैं और मानते हैं कि न्यायपालिका, मीडिया और प्रशासन ने उन्हें निराश किया है.

उन्होंने सवाल किया, ‘वे दादी और नानी बन गई हैं. क्या हम उन्हें फोन करते रहेंगे और पूछते रहेंगे कि क्या हुआ था?’

फिर भी, ऐसे भी समय आता हैं जब गवाहों को पकड़ने का प्रयास इतना निरर्थक भी नहीं लगता.

नफीस, जमीर, टार्जन…

साल 2020 में जब सुषमा ने पॉक्सो कोर्ट रूम में कदम रखा था तो उसके बयान से मुकरने के इतिहास और उसके मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धी संघर्षों को देखते हुए किसी को उससे कोई खास उम्मीद नहीं थी. अपनी पहले की अदालती पेशियों में, उसने यौन उत्पीड़न की तस्वीरें और अन्य सबूत दिखाए जाने के बावजूद अपने बलात्कारियों को पहचानने से इनकार कर दिया था. 2001 में, जब राजस्थान उच्च न्यायालय ने कैलाश सोनी और परवेज अंसारी को बरी कर दिया था, तो पीठ ने कहा कि ‘[वह] अकेले ही अपीलकर्ताओं के खिलाफ अपराध को साबित कर सकती थी …’.

परन्तु, इस बार, सुषमा आत्मविश्वास से भरी और आश्वस्त लग रही थी और उसने सीधे अपने सामने खड़े मर्दों की आंखों में देखा.

जब उससे अपने बलात्कारियों की पहचान करने के लिए कहा गया, तो उसने एक-एक करके स्पष्ट और पुरे ज़ोर के साथ उनके नाम बताए: ‘नफ़ीस, जमीर, टार्ज़न…’

वह थोड़ी देर के लिए बस तभी झिझकी जब उसकी नज़र अगले चेहरे पर चली गई क्योंकि वह उसका नाम याद रखने में असमर्थ थी.

फिर, उसने उसकी ओर इशारा किया और कहा: ‘ये भैया भी था जिन्होन रेप करा.’ उसके सामने वाला वह शख्स था सुहैल गनी, जिसने 2018 में आत्म-समर्पण कर दिया था.

राठौड़ ने कहा कि अदालत के इस पल ने उनके रोंगटे खड़े कर दिए. वे कहते हैं, ‘उस दिन, उसने धमाका किया … 50 की आयु में भी, उसने अपने बलात्कारी को भैया के रूप में संबोधित किया. वह एक लाइन मेरे दिमाग में अटक गई है.’

(* गोपनीयता की रक्षा के लिए नाम बदल दिए गए हैं.)

इस स्टोरी को नए स्रोत लिंक और एट्रिब्यूशन के साथ अपडेट किया गया है.

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