नई दिल्ली: सेना की 34 महिला अधिकारियों ने केंद्र सरकार के खिलाफ उनकी पदोन्नति टालने और जूनियर पुरुष अधिकारियों को उनकी जगह लेने की अनुमति देने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
अपनी याचिका में महिला अधिकारियों, जिनमें से अधिकांश 1992 और 2007 के बीच सेना में शामिल हुईं थीं, ने शीर्ष अदालत को बताया कि उन्हें पदोन्नति और अन्य लाभों से वंचित रखा गया और उनकी जगह कम अनुभवी जूनियर पुरुष अधिकारियों को चुना गया है.
अधिकारियों ने तर्क दिया कि पदोन्नति के लिए उनकी अनदेखी करने का निर्णय महिलाओं को स्थायी कमीशन देने पर सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसले के खिलाफ है.
यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले के लगभग तीन साल बाद आई है, जिसमें केंद्र सरकार को महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का आदेश दिया गया था.
फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सेना में सेवा कर रही सभी महिला अधिकारियों को सेना का स्थायी कमीशन देने का आदेश दिया था. उस आदेश में कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले की अवहेलना करने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई थी, जो इसी तर्ज पर सुनाया गया था.
यह फैसला 32 महिलाओं की और से स्थायी कमीशन में शामिल किए जाने की मांग वाली एक याचिका की सुनवाई पर आया था.
मार्च 2021 में पहले फैसले के ठीक एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने माना कि स्थायी सेना अधिकारियों के रूप में सेवा कर रही वे महिला अधिकारी मिलने वाले सभी लाभों की हकदार होंगी. इस मामले में, पहले की तरह, शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को अपने निर्देश का पालन करने के लिए तीन महीने का समय दिया था.
इन दो फैसलों ने सेना में लैंगिक समानता की जरूरत पर जोर दिया और सेना में महिला अधिकारियों के संबंध में प्रचलित रूढ़िवादिता को तोड़ने के रूप में सम्मानित किया गया.
नई याचिका में याचिकाकर्ताओं, जिनमें से सभी लेफ्टिनेंट कर्नल-रैंक की अधिकारी हैं, ने तर्क दिया कि अदालत के 2021 के फैसले के 18 महीने बीत जाने के बावजूद रक्षा मंत्रालय ने अभी तक उन्हें कर्नल का पद पर पदोन्नत करने के लिए एक चयन बोर्ड का गठन तक नहीं किया है.
दिप्रिंट से बात करते हुए याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों में से एक राकेश कुमार ने बताया कि उनके मुवक्किल दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के तुरंत बाद पदोन्नति के हकदार थे.
कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘भले ही केंद्र ने हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील की थी, लेकिन फैसले पर कोई रोक नहीं लगाई गई थी. विशेष रूप से 2011 में शीर्ष अदालत के अपने एक आदेश में इसे इंगित किया गया था.’ उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए केंद्र को आगे बढ़कर उन महिला अधिकारियों को पदोन्नत करना चाहिए था, जो स्थायी कमीशन के लिए फिट थीं. हालांकि, केंद्र अपनी अपील पर आने वाले फैसले का इंतजार करता रहा.’
सैन्य सेवाओं में स्थायी कमीशन का अर्थ है सेवानिवृत्ति तक करियर बनाना. यह शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) के विपरीत है, जिसके तहत अधिकारियों को चार साल के एक्सटेंशन के विकल्प के साथ 10 साल के लिए भर्ती किया जाता है.
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महिलाओं के लिए कोई सलेक्शन बोर्ड नहीं, जबकि पुरुषों के लिए दो
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सोमवार को अपनी सुनवाई में केंद्र सरकार और रक्षा मंत्रालय को नोटिस जारी किया.
याचिकाकर्ताओं के लिए मामले की पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता वी. मोहना ने अदालत को सूचित किया कि सितंबर में जारी एक आदेश में पुरुष अधिकारियों को प्रमोट करने के लिए एक चयन बोर्ड के गठन की घोषणा की गई थी.
मोहना ने अदालत को बताया कि जिन पुरुष अधिकारियों के प्रमोशन पर विचार किया जा रहा है, वे सभी याचिकाकर्ताओं से जूनियर हैं.
यह जानने पर, सीजेआई ने केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता आर. बालासुब्रमण्यम से कहा कि जब तक अदालत मामले की सुनवाई नहीं करता और उन्हें याचिका का जवाब देने के लिए दो सप्ताह का समय दिया, तब तक पदोन्नति रोक दी जाए.
अपने तर्क में याचिकाकर्ताओं ने कहा कि उन सभी ने कर्नल का पद पाने के लिए मिडिल लेवल टेक्टीकल ओरियंटेशन कोर्स कर लिया है. स्थायी कमीशन पाने वाली महिला अधिकारियों को इस दो महीने के कोर्स को करना होता है.
सुप्रीम कोर्ट के 2020 और 2021 के फैसलों के बाद इस कोर्स को खासतौर पर महिलाओं के लिए डिज़ाइन किया गया था. एमएलटीओसी तीन महीने के जूनियर कमांड कोर्स की जगह लेता है जिससे पुरुष अधिकारियों को गुजरना पड़ता है.
उनके कोर्स करने के बावजूद, अभी तक पदोन्नति के लिए कोई चयन बोर्ड नहीं बनाया गया है. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि नतीजतन, उन्हें प्रमोशन, आर्थिक लाभ, स्टडी लीव और प्रतिनियुक्ति जैसे मिलने वाले लाभों से वंचित कर दिया गया .
याचिकाकर्ताओं ने अदालत को बताया कि जबकि अधिकारी ‘जेंटलमैन ऑफिसर्स’ को प्रमोट करने के लिए दो विशेष चयन बोर्ड का गठन कर चुका है.
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि पहला चयन बोर्ड मार्च में 2004-05 बैच के पुरुष अधिकारियों के प्रमोशन के लिए बनाया गया था. जबकि सितंबर में जारी एक अन्य 2006-07 के बैच के अधिकारियों की प्रमोशन के लिए कहता है.
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि चूंकि सरकार ने सीनियर महिला अधिकारियों के लिए कोई चयन बोर्ड का गठन नहीं किया है, इसलिए उन्हें अपने पुरुष समकक्षों के अधीन भी काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जो कि उनसे काफी जूनियर हैं.
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‘कमतर भूमिका सौंपी जाती हैं’
याचिका में कहा गया कि जिन महिला अधिकारियों की पदोन्नति में अनदेखी की गई उन्हें ‘अतिरिक्त अधिकारी’ की जिम्मेदारी दी जाती है और उन्हें सुपरसेडिड या रिएम्पलोयेड अधिकारियों के रूप में माना जाता है. जिनके पास ‘कर्तव्यों का कोई परिभाषित चार्टर नहीं है और उन्हें उन पदों पर तैनात किया जा रहा है जो आमतौर पर कैप्टन या मेजर रैंक के जूनियर अधिकारियों द्वारा अस्थाई तौर पर लिए जाते हैं.
याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया, ‘यह साफ है कि स्थायी कमीशन दिए जाने के बाद भी महिला अधिकारियों को सिस्टेमेटिक, अप्रत्यक्ष और लैंगिक भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है.’ याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि दिल्ली एचसी के फैसले को लागू न करने का मतलब है कि कई योग्य महिला अधिकारियों ने समय पर पदोन्नति के अवसर खो दिए.
याचिका में कहा गया है, ‘अगर उन्हें अपने पुरुष समकक्षों के साथ 2010 या 2011 में पदोन्नत किया गया होता, तो उनमें से कई अब तक ब्रिगेडियर बन गईं होतीं.’
उनका तर्क है कि स्थायी कमीशन देने में देरी ने महिला अधिकारियों के स्टडी लीव या प्रतिनियुक्ति पर जाने की संभावनाओं को भी प्रभावित किया है.
भारतीय सेना की पॉलिसी के अनुसार, स्टडी लीव या प्रतिनियुक्ति का विकल्प चुनने वाले अधिकारी के पास सेवा के लिए उतने ही साल बचे होने चाहिए. उदाहरण के लिए दो साल की स्टडी लीव का विकल्प चुनने वाले अधिकारी के पास कम से कम दो साल की सेवा बची होनी चाहिए.
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया, ‘लेकिन अपने रिटायरमेंट के नजदीक पहुंच चुकी महिला अधिकारियों के पास यह विकल्प नहीं है’ उन्होंने इस नियम में ढील देने की भी मांग की.’
(अनुवाद: संघप्रिया मौर्य | संपादन: कृष्ण मुरारी)
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