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Thursday, 25 April, 2024
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मनुष्य और प्रकृति के बीच बढ़ते टकराव और जंगलों में राजनीतिक हस्तक्षेप की कहानी है ‘शेरनी’ 

'शेरनी' फिल्म उन राजनीतिक-सामाजिक-प्राकृतिक विषयों को उभारती है जिसके बारे में हम जानते तो हैं लेकिन उसकी गहराई में जाने से अक्सर बचते हैं.

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जून के पहले सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण के लिहाज से एक फैसला सुनाते हुए कहा कि अरावली के फॉरेस्ट लैंड पर बने करीब 10 हजार से ज्यादा अनाधिकृत घरों को छह हफ्तों के भीतर ढहा दिया जाए. ये फैसला इस बात पर नज़र डालने को बाध्य करता है कि कैसे मनुष्य जंगली इलाकों और पहाड़ी क्षेत्रों में घुसपैठ करता आया है और इसका दुष्परिणाम कई तरह से हमें ही भुगतना पड़ता है.

भारत सरकार कई सालों से ‘सेव द टाइगर’ कैंपेन चला रही है जिससे टाइगर की संख्या में वृद्धि हो लेकिन कई ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि जंगली इलाकों में टाइगर को मारा जा रहा है या वे रिहाइशी इलाकों में घुस रहे हैं. इसके पीछे के कारणों पर जाएं तो ये मानव-प्रकृति के बीच पैदा हुए असंतुलन का नतीजा है.

इसी थीम पर निर्देशक अमित मासूरकर ने फिल्म बनाई है. विद्या बालन, विजय राज, शरत सक्सेना, नीरज कबि अभिनीत ‘शेरनी’ उन राजनीतिक-सामाजिक-प्राकृतिक विषयों को उभारती है जिसके बारे में हम जानते तो हैं लेकिन उसकी गहराई में जाने से अक्सर बचते हैं. शेरनी की पटकथा आस्था टीकू ने लिखी है और संवाद यशस्वी मिश्रा के हैं.

2010 के बाद भारतीय सिनेमा के पैटर्न (स्वरूप) में आमूलचूल बदलाव देखने को मिला है. विषय आधारित फिल्मों के बनने की ऋंखला शुरू हुई जिसमें राजनीति, खेल, सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरण जैसे मुद्दों ने सिनेमाई पर्दे पर जगह बनानी शुरू की. इससे पहले 1980 के दशक में बनने वाली समानांतर फिल्मों में सामाजिक मुद्दों को पर्दे पर जगह मिलती दिखती थी लेकिन उसके बाद कहीं न कहीं ये गौण होती चली गई.

बीते एक साल पर ही नज़र डालें तो पर्यावरण से जुड़े विषय पर दो हिन्दी फिल्में बनी हैं, जो कमोबेश एक ही विषय पर है. निर्देशक रवि बुले ने झारखंड के पलामू के खूबसूरत जंगलों में आखेट फिल्म बनाई जिसमें जंगल से बाघों के खत्म होने और जिंदगी चलाने की जद्दोजहद को विषय बनाया गया. वहीं बाघों पर मंडराते खतरों को राजनीतिक और भ्रष्टाचार जैसे मसलों से जोड़ते हुए विद्या बालन अभिनीत शेरनी  में इसे विस्तार दिया गया है.

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देशभर में हर साल करोड़ों पेड़ लगाए जाते हैं और उसी अनुपात में विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई भी होती है. उदाहरण के तौर पर बुंदेलखंड के बक्सवाहा के जंगलों में मिले हीरे के खदान के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने करीब 2.15 लाख पेड़ काटने की अनुमति दी है. ये इलाका गहन जंगल वाला क्षेत्र है. पर्यावरणविद लगातार कहते आए हैं कि जंगल बनने की प्रक्रिया कई दशकों में होती है. हम पेड़ तो लगा सकते हैं लेकिन जंगल नहीं बना सकते.

ये और भी विडंबनापूर्ण तब हो जाता है जब संयुक्त राष्ट्र 2021 से 2030 को इकोसिस्टम रीस्टोरेशन दशक के तौर पर मना रहा है. जिसमें पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली मूल लक्ष्य है. पर्यावरण के हर जीव-जंतु एक दूसरे से जुड़े हैं, यही विज्ञान भी कहता है. लेकिन इससे उलट लगातार जंगलों को काटे जाने से जो असंतुलन पैदा हो रहा है वो प्रकृति से लेकर मनुष्य तक के लिए खतरनाक साबित हो रहा है.


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‘शेरनी’ की खोज और चुनौतियां

शेरनी फिल्म में विद्या बालन एक फॉरेस्ट ऑफिसर होती हैं, जिसे ईमानदार और अपनी ड्यूटी के प्रति निष्ठा रखने वाले अधिकारी के तौर पर दिखाया गया है. उनके क्षेत्र में एक शेरनी लोगों को मारती है. वन विभाग शेरनी की खोज में लग जाता है.

इस बीच क्षेत्र के विधायक और पूर्व विधायक अपने राजनीतिक फायदे के लिए शेरनी को मुद्दा बनाते हैं और लोगों को लुभाने की कोशिश करते हैं. वो दावा करते हैं कि वो शेरनी से बदला लेंगे और ये जंगल लोगों का है न कि शेरनी का.

इसी सोच में वो असंतुलन नज़र आता है जो मनुष्यों को जंगलों को तबाह करने की ओर ले जाता है. मनुष्यों ने मान लिया है कि जंगल पर उनका अधिकार है लेकिन संतुलन बनाए रखने के लिए ये जरूरी है कि जीव-जंतुओं को उनका स्पेस दिया जाए नहीं तो वो रिहाइशी इलाकों और बसावट वाले क्षेत्रों की तरफ आएंगे ही.

मुद्दे के राजनीतिक रूप लेते ही कई तरह की समस्याएं आने लगती हैं जिनका मुकाबला विद्या करती हैं. लेकिन फिल्म की एक खूबसूरत बात ये है कि ये किसी किरदार को नायक की भूमिका में नहीं उतारती और ये दिखाने का प्रयास नहीं करती कि नायक पूरी स्थिति को बदल देगा और सबकुछ ठीक कर देगा. सबकुछ अपनी रफ्तार से चलता है और जो एक आम स्थिति में हो सकता है वो सब होता है.

फिल्म में एक संवाद है, ‘अगर आप जंगल में 100 बार जाएंगे, हो सकता है कि टाइगर आपको एक बार दिखे परंतु एक बात तो तय है कि टाइगर ने आपको 99 बार देख लिया है.‘ ये उस हकीकत को सामने लाता है जो बताता है कि मनुष्य की जंगलों में घुसपैठ कितनी बढ़ गई है.

फिल्म का एक और संवाद पूरे प्राकृतिक संतुलन की तरफ ध्यान दिलाता है. एक ग्रामीण युवक कहता है, ‘अगर टाइगर है तभी तो जंगल है और जंगल है तभी तो बारिश है और बारिश है तो पानी है और पानी है तो इंसान है.’

वन विभाग अपनी पूरी तैयार के साथ T12 शेरनी की खोज में लग जाता है. उनके साथ कुछ प्राइवेट शिकारी भी जुड़ते हैं जिन्हें सत्ता की शह पर शामिल किया जाता है. ये उस त्रासदी को दिखाता है कि जंगल के साम्राज्य में राजनीति कितनी हावी है. विद्या अपने साथियों के साथ इस कोशिश में लगी होती है कि शेरनी को कैसे भी नेशनल पार्क तक ले जाया जा सके. लेकिन तभी एक ऐसी स्थिति पैदा होती है जो सबको चौंका सकती है.

नेशनल पार्क और जंगल के बीच एक बड़ी सी कॉपर खदान होती है जिसे पार कर शेरनी का नेशनल पार्क तक जाना बहुत ही मुश्किल है. जंगल के बीच में खदान की उपस्थिति को मानव की प्रकृति में घुसपैठ के तौर पर देख सकते हैं.

शेरनी को पकड़ने की जद्दोजहद लंबे समय तक चलती है और साथ ही पूरे सिस्टम की खामियां भी उखड़ती चलती है. वन विभाग की टीम शेरनी को उसके सुरक्षित ठिकाने तक पहुंचा पाने में सफल रही या नहीं, इसे जानने के लिए तो दर्शकों को ये फिल्म देखनी चाहिए और उस पूरी त्रासदी से खुद गुजरना चाहिए जो मनुष्यों द्वारा ही लाई गई है.


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सही वक्त पर आई जरूरी फिल्म

फिल्म की ज्यादातर शूटिंग जंगल में हुई है. गहन जंगलों का चित्रण निर्देशक अमित मसूरकर ने बहुत ही अच्छी तरह किया है. जंगल के क्लोज अप शॉट और वाइड एंगल कैमरा शॉट अच्छे दृश्य बनातें हैं जो आकर्षक लगते हैं. रात के अंधेरे में हुई शूटिंग भी दर्शकों को बांधे रखती है.

कई जगहों पर ये फिल्म जरूर रोमांच पैदा करती है लेकिन इस सिनेमा से ये उम्मीद करना कि ये मनोरंजन के लिए होगी वो इसके थीम के साथ नाइंसाफी होगी. ये एक गंभीर विषय पर बनी फिल्म है जिसे संजीदगी भरे दर्शकों की जरूरत है. हालांकि फिल्म की कुछ कमियां जरूर है लेकिन ये सही वक्त पर आई एक जरूरी फिल्म है.

शहरों में रहने वाले लोग जो जंगलों से और वहां रहने वाले लोगों की समस्याओं से वास्ता नहीं रखते उनके लिए जरूर ये रोमांच भरा अनुभव होगा.

फिल्म के नाम के चयन में एक तकनीकी गलती नज़र आती है क्योंकि इसके संवाद में हर जगह टाइगर कहा गया है जिसका हिन्दी में मतलब बाघ से है. लेकिन फिल्म का नाम शेरनी रखा गया है. एक महिला ऑफिसर के इर्द-गिर्द चलती फिल्म के कारण हो सकता है कि प्रतीकात्मक तौर पर शेरनी ज्यादा उपयुक्त लगता हो लेकिन ये एक भारी गलती नज़र आती है.

ये बात दिलचस्प है कि इस फिल्म के निर्देशक अमित मसूरकर ने ही 2017 में न्यूटन फिल्म बनाई थी, जो छत्तीसगढ़ के एक दूर-दराज वाले इलाकों में चुनाव कराने की जद्दोजहद और उसके इर्द-गिर्द की चुनौतियों को सामने लेकर आई थी. उस फिल्म में भी जंगलों के बीच शूटिंग हुई थी और शेरनी फिल्म में भी. निर्देशक के काम में ये एकरूपता एक अच्छा संकेत है जो लीक से हटकर विषयों को चुनते हैं और उसे पर्दे पर उतारते हैं.


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