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Friday, 19 April, 2024
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कर्नाटक में तेजी से गिरा सेक्स रेश्यो, विशेषज्ञ बोले- आंकड़ों में छिपे हैं कई मायने

विशेषज्ञों के मुताबिक, 2011 की जनगणना के बाद से शहरी क्षेत्र तेजी से बढ़े हैं और लिंगानुपात में आया ये बदलाव शहरी वर्ग के बढ़ने और उनके बीच लडकों को तरजीह दिये जाने से जुड़ा है.

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नई दिल्ली: कर्नाटक ने पिछले 10 सालों में बड़े राज्यों की तुलना में जन्म के समय लिंगानुपात (एसआरबी) में सबसे ज्यादा गिरावट देखी है, जबकि पंजाब ने इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा सुधार किया है. दिप्रिंट ने हाल में जारी किए गए सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के आंकड़ों का विश्लेषण किया.

दक्षिणी राज्य का एसआरबी 2008-10 (तीन साल का औसत) में 944 था जो 2018-20 में घटकर 916 हो गया. यानी एक दशक पहले राज्य के एसआरबी की तुलना में 1,000 लड़कों पर 28 और लड़कियां कम पैदा हुईं है. एसआरबी जीवित पैदा होने वाली प्रति 1,000 लड़कों पर जीवित पैदा हुई लड़कियों की संख्या होती है.

अन्य राज्यों में भी एसआरबी में महत्वपूर्ण गिरावट दर्ज की गई है. गुजरात में पिछले दशक की तुलना में 27 कम लड़कियां पैदा हुई हैं. इसके बाद बिहार (22), छत्तीसगढ़ (22), दिल्ली (22) और महाराष्ट्र (20) का नंबर आता है.

उत्तरी राज्यों को आमतौर पर पितृसत्तात्मक समाज का पहरेदार माना जाता है. लेकिन उसके बावजूद इन राज्यों ने अपनी स्थिति में उल्लेखनीय सुधार दिखाया है. 2008-10 में पंजाब का एसआरबी 836 था और 2018-20 में यह बढ़कर 897 पर पहुंच गया. पिछले एक दशक की तुलना में पंजाब 61 अधिक लड़कियों के जन्म के साथ इस सूची में सबसे आगे रहा. जम्मू कश्मीर (51), राजस्थान (36), उत्तर प्रदेश (31) और हरियाणा (21) जैसे अन्य राज्यों ने भी इस संकेतक में सुधार किया है.

कुल मिलाकर जन्म के समय लिंगानुपात मामलों में भारत ने पिछले एक दशक में मामूली सुधार देखा है. 2008-10 में यह 905 था जो 2018-20 में बढ़कर 907 पर पहुंच गया.

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विशेषज्ञों ने कहा, आंकड़ों को हल्के में नहीं लें

देखा जाए तो दक्षिणी राज्य के लिए यह संख्या काफी चिंताजनक है. विशेषज्ञों का भी कहना है कि कर्नाटक या फिर किसी अन्य राज्य के लिंगानुपात में भारी बदलाव को लेकर जुटाए गए आंकड़ों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए.

दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स से जुड़ी देबोलीना कुंडू ने दिप्रिंट को बताया, ‘एसआरएस ने जनसंख्या मैट्रिक्स का इस्तेमाल किया है और इसके लिए 2013 तक 2001 के फ्रेम और उसके बाद 2011 की जनगणना को आधार बनाया गया. यह क्यों मायने रखता है क्योंकि यह शहरी बनाम ग्रामीण क्षेत्रों की सीमाओं को परिभाषित करता है.

हमारी रिसर्च से पता चला है कि यह जन्म के समय का यह लिंगानुपात शहरी वर्ग बढ़ने और इनके बीच बेटों की बढ़ती चाहत से जुड़ा है. इसका मतलब है कि बड़े शहरों में एक विषम एसआरबी है और इसलिए एसआरबी में गिरावट आई है. अब तक हम यही जानते आए हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में आमतौर पर शहरी क्षेत्रों की तुलना में बेहतर लिंगानुपात होता है. शहरी क्षेत्रों में कम से कम एक बेटे के साथ वाले छोटे परिवार को प्राथमिकता दी जाती है और जन्म के समय लिंगानुपात में गिरावट के कारकों में यह एक बड़ी वजह हो सकती है.’

उन्होंने कहा कि एसआरबी पर ज्यादा प्रभाव डालने वाली वजह क्या है? इसके पीछे के मूल कारण को जानने के लिए अधिक विस्तृत गुणात्मक और मात्रात्मक रिसर्च की जानी चाहिए.

कुंडू ने कहा, ‘पिछले दो दशकों में कर्नाटक ने देश के उत्तरी हिस्सों से आने वाले युवाओं का बड़े पैमाने पर पलायन देखा है. जैसे-जैसे वे बेहतर अवसरों की तलाश में आगे बढ़ते हैं, बेटों को वरीयता देने की उनकी सोच की संस्कृति भी उनके साथ यात्रा करती है.’ उन्होंने कहा कि कर्नाटक के गिरते लिंगानुपात में प्रवासन की भूमिका पर और अधिक शोध की जरूरत है.

भारत के रजिस्ट्रार जनरल की ओर से संचालित 2020 एसआरएस डेटा में 84 लाख से ज्यादा लोग शामिल थे. जनगणना या राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जहां इनकम ग्रुप, प्रवास की स्थिति या सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण करता है. वहीं इसके उलट एसआरएस सर्वे का मुख्य उद्देश्य प्रजनन दर, जन्म और मृत्यु दर जैसे जनसांख्यिकीय संकेतकों की गणना करना है.

अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, प्रजनन अध्ययन विभाग में प्रो. चंदर शेखर ने कहा, ‘डेटा संग्रह के लिए जिस आबादी को बतौर सैंपल लिया गया है उसमें सांख्यिकी झटके या परिवर्तन हो सकते हैं. इस सवाल का जवाब एसआरएस की ओर से दिया जाना चाहिए. समय के दो अलग-अलग बिंदुओं के बीच का अंतर, रुझानों के कॉन्फिडेंशियल इंटरवल के बिना पूरी तस्वीर नहीं दिखा सकता है.’

शेखर ने समझाया, ‘एसआरएस डेटा देता है, लेकिन हमें यह समझने के लिए और अधिक विशेष कारणों को जानने की जरूरत है कि कोई राज्य किस दिशा में आगे बढ़ रहा है. चाहे वह प्रवासी हों जो जन्म के समय कर्नाटक के लिंगानुपात को कम कर रहे हों, या मूल निवासियों के भीतर सामाजिक व्यवस्था में कोई बदलाव आया हो, सिर्फ संकेतक ही नहीं बल्कि इससे और ज्यादा की भी जरूरत है. जमीन पर दोनों दिखाई देते हैं, लेकिन सिर्फ परिष्कृत शोध ही बता सकता है कि ट्रैजेक्टरी में कौन कितना योगदान दे रहा है.’

बदलाव की अगुवाई करता शहरी भारत

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए अलग-अलग एसआरएस डेटा उपलब्ध है. यह बताता है कि शहरी क्षेत्रों का रुझान भारत के समग्र कर्व को परिभाषित कर रहा है.

2008-10 में, जन्म के समय शहरी भारत का लिंगानुपात 898 था, जो 2011-13 तक बढ़कर 906 हो गया. बाद के वर्षों में यानी 2014-16 तक यह अनुपात गिरकर 888 पर आ गया. फिर यह 2017-19 में ग्रामीण भारत से आगे निकल गया.

भीतरी इलाकों में भी एक समान ट्रैजेक्टरी थी, लेकिन यह संख्या उसके शहरी समकक्षों की तरह व्यापक नहीं थी.

2008-10 में जन्म के समय कर्नाटक का शहरी लिंगानुपात 934 था, जो 2018-20 में गिरकर 871 हो गया. इसका मतलब है कि एक दशक पहले की तुलना में औसतन प्रति 1,000 लड़कों पर 63 लड़कियां कम पैदा हुईं.

यहां तक कि बिहार (897), राजस्थान (901), ओडिशा (907), छत्तीसगढ़ (910) और झारखंड (910) जैसे कम विकसित राज्यों के शहरी क्षेत्र ने दक्षिणी राज्य की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है. ये सारे राज्य 10 साल पहले कर्नाटक से पीछे थे.

कुल मिलाकर इसी दौरान शहरी भारत का अनुपात 898 से बढ़कर 910 हो गया.

शहरीकरण और एसआरबी के बीच लिंक

क्या बढ़ते शहरीकरण और जन्म के समय लिंगानुपात में गिरावट के बीच कोई संबंध है? कुंडू और उसके साथियों ने कहा, हां है.

इकोनॉमी एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) में प्रकाशित एक लेख, ‘सेक्स रेशियो एट बर्थ इन अर्बन इंडिया’ में लेखकों ने उल्लेख किया कि शहरीकरण और जन्म के समय लिंग अनुपात एक दूसरे से नकारात्मक रूप से जुड़े थे.

लेख में कहा गया है, ‘शहरी भारत में जन्म के समय लिंगानुपात के रुझान और शहरी क्षेत्र के बढ़ने व उनके बीच लड़कों को तरजीह दिये जाना, एसआरबी के एक व्यवस्थित रूप से बिगड़ने का संकेत देती है.’

2011-13 तक नमूना पंजीकरण प्रणाली सर्वेक्षण शहरी सीमाओं का इस्तेमाल कर रहा था, जैसा कि 2001 की जनगणना में मैप किया गया था. जैसे-जैसे अधिक से अधिक गांवों का शहरीकरण हुआ, कई राज्यों में विशेष रूप से 2012-14 से जन्म के समय लिंग अनुपात में भारी गिरावट आई. कर्नाटक के मामले में शहरी एसआरबी 2011-13 में 942 से गिरकर 2012-14 में 887 हो गया.

मुंबई के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज में जनसंख्या और विकास विभाग के प्रोफेसर आर नागराजन ने कहा कि जन्म के समय लिंगानुपात और शहरीकरण के बीच संबंध को घटती प्रजनन क्षमता के संदर्भ में पढ़ने की जरूरत है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘चूंकि शहरी क्षेत्रों में प्रजनन क्षमता में गिरावट आई, इसलिए वहां पहली संतान के रूप में बेटे को जन्म देने का दबाव जारी रहा. 1990 और 2000 के दशक में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी तक पहुंच आसान थी. तो कह सकते हैं कि अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी की आसान पहुंच के साथ बेटे की चाहत शहरी भारत में जन्म के समय लिंगानुपात में गिरावट का कारण बना है.’

उन्होंने कहा कि सुधार की वजह शहरी भारत में बेटियों की बढ़ती स्वीकार्यता और चाहत का बढ़ना है. उन्होंने कहा, ‘शहरी, अमीर और सबसे अधिक शिक्षित वर्गों के बीच यह स्वीकार्यता धीरे-धीरे उभर रही है. इसका मतलब है कि इन वर्गों के बीच पितृसत्तात्मक मानदंड धीरे-धीरे कम हो रहे हैं. बेटियों को अपनाने की बढ़ती सोच से पितृसत्तात्मक मानदंडों के कमजोर होने का पता चलता है.’

शिक्षाविदों ने लड़कियों के प्रति भेदभाव में कमी के लिए सरकार की ओर से अपनाए गए नीतिगत उपायों को भी इसका श्रेय दिया.

उन्होंने कहा, ‘सरकार ने पिछले दो दशकों में बेटियों के प्रति सामाजिक भेदभाव को कम करने के लिए कई उपाय किए हैं. लड़कों और लड़कियों के लिए माता-पिता की संपत्ति में समान अधिकार, घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम, इन कई (उपायों) में से हैं.’ वह कहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त पहल कुछ परिणाम दिखा रही है.

उन्होंने बताया, ‘लेकिन अभी भी प्रति 1,000 लड़कों पर जीवित पैदा हुई लगभग 950 लड़कियों के स्तर तक पहुंचने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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