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Monday, 23 December, 2024
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क्यों प्रचंड के फिर नेपाल के PM बनने से भारत के साथ ऊर्जा संबंधों पर असर पड़ने की संभावना नहीं है

विशेषज्ञों की राय है कि भारत और चीन के बीच प्रभुत्व हासिल करने को लेकर जारी तनातनी के बीच नई सरकार ‘दोनों के बीच संतुलन’ बनाए रखने की कोशिश करेगी, और सरकार की कमान परोक्ष रूप से पूर्व पीएम के.पी. शर्मा ओली के हाथों में ही होगी.

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नई दिल्ली: नेपाल के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर माओवादी नेता पुष्प कमल दहल की वापसी से काठमांडू और नई दिल्ली के बीच ऊर्जा संबंधों के किसी तरह प्रभावित होने की ‘संभावना नहीं’ है. यह बात दिप्रिंट को मिली जानकारी में सामने आई है.

दहल, जिन्हें अब भी प्रचलित नाम ‘प्रचंड’ से पहचाना जाता है, ने सोमवार को तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की. इससे पहले, उनकी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओइस्ट सेंटर (सीपीएन-एमसी) ने नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ दिया और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्कसिस्ट-लेनिनिस्ट) यानी (सीपीएन-यूएमएल) से हाथ मिला लिया.

हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि नई सरकार में ड्राइवर सीट पर परोक्ष रूप से सीपीएन-यूएमएल अध्यक्ष और पूर्व पीएम के.पी. शर्मा ओली ही रहेंगे क्योंकि गठबंधन में उनकी पार्टी के पास सबसे अधिक संख्या में सीटें हैं.

फिलहाल, प्रचंड के नेतृत्व वाले गठबंधन को 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में 165 सांसदों का समर्थन हासिल है. सीपीएन-यूएमएल के पास 78 सीटें हैं जबकि 32 सीटें सीपीएन-एमसी के पास और बाकी पांच अन्य छोटे दलों के पास हैं. प्रचंड की जीत पर मुहर शपथ ग्रहण के 30 दिन के अंदर निचले सदन से उनके विश्वासमत हासिल करने के बाद ही लगेगी.

2008 से 2011 तक नेपाल में बतौर राजदूत तैनात रहे राकेश सूद ने दिप्रिंट से कहा, ‘केपी शर्मा ओली की पार्टी यूएमएल के समर्थन के बिना उनके (दहल के) पास टिके रहने का कोई आधार नहीं है. वह एक तरह से नाममात्र के प्रधानमंत्री हैं और ओली की कठपुतली बन गए हैं.’

कुछ विश्लेषकों का कहना है कि नेपाल में दो कम्युनिस्ट पार्टियों के फिर एक साथ आ जाने से चीन को ‘हिमालय क्षेत्र की स्थिति पर खुश होने’ का मौका मिल गया है.

हालांकि, दिप्रिंट से बातचीत में दो पूर्व राजनयिकों ने कहा कि नई सरकार आने ने नेपाल के साथ भारत के ऊर्जा संबंधों पर कोई प्रतिकूल असर पड़ने के आसार नजर नहीं आते हैं, खासकर यह देखते हुए कि लंबे समय से लंबित कई जलविद्युत परियोजनाओं में केवल तभी प्रगति हुई जब सीपीएन-यूएमएल या सीपीएन-एमसी सत्ता में थी.

माना जा रहा है कि भारत और चीन के बीच प्रभुत्व हासिल करने को लेकर जारी तनातनी के बीच नई सरकार ‘दोनों के बीच संतुलन’ साधने की कोशिश करेगी.


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नेपाल-भारत के बीच ऊर्जा सहयोग

भारत और नेपाल के ऊर्जा संबंध 1971 से जारी हैं जब दोनों पड़ोसियों ने एक पॉवर एक्सचेंज एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए थे. दोनों देशो के बीच ऊर्जा के आदान-प्रदान के लिए 20 से अधिक ट्रांसमिशन लाइनें सक्रिय हैं, जो 11केवी, 33केवी से लेकर 132केवी तक है.

हालांकि, कई बार ऐसा हो चुका है जब भारत में बिजली की कमी ने नेपाल में आपूर्ति प्रभावित की है, खासकर शुष्क सर्दियों के मौसम (दिसंबर-अप्रैल) में जब जलविद्युत संयंत्रों में पानी की कमी होती है. हालांकि, दोनों देश ऊर्जा सहयोग के लिए नए रास्ते तलाशते रहे हैं.

अक्टूबर 2014 में मोदी सरकार और सुशील कोइराला के नेतृत्व वाली तत्कालीन नेपाली कांग्रेस सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग को और मजबूती देते हुए एक बिजली व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए थे.

कुछ जलविद्युत परियोजनाओं को चीनी से लेकर भी भारतीय कंपनियों को दिया गया है. बतौर उदाहरण, 750मेगावाट के वेस्ट सेती हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट का ठेका इस साल के शुरू में ही भारत की नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर कंपनी लिमिटेड को सौंपा गया. 2012 में नेपाल ने इस प्रोजेक्ट को विकसित करने के लिए चीन की थ्री गॉरजेस कॉर्पोरेशन के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे.

पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने मई में एक चुनावी रैली के दौरान कहा था, ‘यदि वेस्ट सेती हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट का निर्माण चीनी कंपनियों की तरफ से किया गया है तो भारत उससे बिजली नहीं खरीदेगा, इसलिए मैं यह परियोजना भारत को देने जा रहा हूं.’

सूद के मुताबिक, नेपाल की नई सरकार भारत के साथ ऊर्जा निर्यात में किसी तरह की अड़चन नहीं आने देगी. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘नेपाल ने जून से दिसंबर तक भारत को अतिरिक्त बिजली बेचकर 11 मिलियन डॉलर कमाए. साथ ही, अरुण-3 हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना भी अगले साल तक चालू हो जाने की उम्मीद है, जिसकी आधारशिला ओली और मोदी ने 2018 में रखी थी. यह परियोजना नेपाल के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत होगी और इससे भारत को भी लाभ होगा.’

1.6 बिलियन डॉलर लागत वाली अरुण-3 परियोजना एक रन-ऑफ-द-रिवर-टाइप हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट है जिसकी क्षमता 900मेगवाट होगी और इसके वित्तीय वर्ष 2023-24 में पूरा होने की उम्मीद है. प्रोजेक्ट पूरा हो जाने पर, यह दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा पनबिजली संयंत्र होगा. मई 2018 में मोदी और ओली ने तुमलिंगतार क्षेत्र में इस संयंत्र की आधारशिला रखी थी.

2017-2019 में नेपाल में भारत के राजदूत रहे मनजीव पुरी ने कहा, ‘के.पी. शर्मा के बतौर पीएम पिछले कार्यकाल के दौरान ही अरुण-3 जैसी जलविद्युत परियोजनाएं परवान चढ़ीं, यह कुछ ऐसा था कि नेपाली कांग्रेस की सरकारों की दौरान भी ऐसी प्रगति नहीं हुई थी.’

इस दिशा में एक अन्य बड़ी संयुक्त परियोजना अरुण-4 है, जिसे सरकारी स्वामित्व वाली नेपाल विद्युत प्राधिकरण और भारत के सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड की तरफ से विकसित किया जा रहा है, और इसकी क्षमता 695 मेगावाट होगी.


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‘दोनों तरफ संबंध बनाए रखने की कोशिश होगी’

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि देउबा के नेतृत्व वाली पिछली सरकार भारत और अमेरिका के साथ मजबूत संबंधों को आगे बढ़ा रही थी, लेकिन अब प्रचंड की वापसी से चीन के साथ नेपाल के संबंधों को नई गति मिलने के आसार हैं.

नेपाल पर अपना प्रभुत्व कायम करने के चीन और भारत के प्रयासों के बारे में यह पूछे जाने पर क्या यह, बीजिंग के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से आगे बढ़ेगा या नई दिल्ली के हिमालयी राष्ट्र के जलविद्युत क्षेत्र में निवेश के माध्यम के जरिये, विशेषज्ञों ने कहा कि काठमांडू में नई सरकार दोनों पक्षों के बीच संतुलन साधने की कोशिश जारी रखेगी.

सूद ने कहा, ‘अगर हम (भारत) शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और यूएसएसआर के बीच या हालिया स्थिति की बात करें तो रूस और पश्चिम के बीच गुटनिरपेक्ष रिश्ते बनाए रख सकते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि नेपाल समेत भारत के पड़ोसी देश भी भारत और चीन के बीच ऐसा रुख अपना सकते हैं.”

हालांकि, उन्होंने साथ ही कहा, ‘मुझे लगता है कि काठमांडू को अच्छी तरह से पता है कि बिना किसी नुकसान के कितनी दूर तक जा सकते हैं, इसकी एक सीमा है.’

बीआरआई में नेपाल की भागीदारी के बारे में पूछे जाने पर पुरी ने इसे परियोजना में अन्य देशों की भागीदारी के मानकों के लिहाज से ‘सीमित’ ही बताया.

उन्होंने कहा, ‘श्रीलंका जैसे अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ियों की तुलना में नेपाल चीन के साथ किसी कर्ज जाल में न फंसने को लेकर सतर्क रहा है.’ साथ ही जोड़ा कि नए नेपाली नेतृत्व की तरफ से भारत और चीन के बीच ‘गुट-निरपेक्ष’ और ‘राजनीतिक तौर पर समान दूरी’ वाली नीतियां अपनाए जाने की पूरी संभावना है.

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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