मुंबई: 2006 के मुंबई ट्रेन विस्फोटों के आरोप में अब्दुल वाहिद दीन मोहम्मद शेख ने मुंबई की आर्थर रोड जेल में 9 साल बिताए. 7 साल पहले उनकी दुनिया 2X8 फीट की सेल या अपने बैरक के बाहर 6×8 की इस छोटी सी जगह में सिमट कर रह गई थी. न वो घूम सकते थे और न ही बाहर जा सकते थे. बरी हो जाने के बाद आज भी वह अपने आपको वहां से निकाल नहीं पाये हैं. अपने घर में आज भी वह खुद को आदतन दीवार से दीवार की ओर सटकर चलते हुए पाते हैं. तब फिर उनकी पत्नी उन्हें याद दिलाती कि वह आजाद हैं और कमरे के बाहर धूप में कदम रख सकते हैं.
शेख ने अपनी दास्तां बताई ‘आप केवल उस जगह पर (जेल में) सीधे चल सकते थे – आगे और पीछे, आगे और पीछे, एक ट्रेन की तरह. मुड़ने तक की जगह नहीं थी… तो अब मुझे बंद कमरे की आदत हो गई है. वैसे अब मैं बाहर जा सकता हूं लेकिन मेरे लिए ये कर पाना मुश्किल हो जाता है.’
2006 के विस्फोटों में 189 लोगों की जान लेने वाले 13 आरोपियों में से शेख अकेले थे जिन्हें सितंबर 2015 में बरी कर दिया गया. उन पर ट्रेन में बम लगाने वाले कुछ आरोपियों को शरण देने का आरोप था. लेकिन अदालत ने उन्हें संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया और कहा कि उन पर लगे आरोप सिद्ध नहीं होते हैं.
तब से लेकर सात सालों में काफी कुछ घट चुका है. मुंबई एटीएस ने आसिफ खान को विस्फोटों के ‘प्रमुख साजिशकर्ताओं’ में से एक बताया था. लेकिन उन्हें पिछले दो लेकिन असंबंधित मामलों में बरी कर दिया गया है, जो उनके खिलाफ काफी समय से लंबित थे.
यह फैसला मुख्य रूप से पिछले दो आपराधिक मामलों के आधार पर दिया गया था, जिसमें 7/11 विस्फोट मामले में आरोपित सभी लोगों के खिलाफ महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम 1999 (मकोका) लगा दिया गया था. 1999 का यह कानून यानी मकोका पुलिस हिरासत में गवाह से लिए गए कबूलनामे को अदालतों में सबूत के तौर पर स्वीकार करने की अनुमति देता है जिसका इस्तेमाल अंततः उन्हें दोषी ठहराने के लिए किया गया था.
पिछले दो मामलें अब तस्वीर में नहीं है. इन दोषियों के परिवार नई उम्मीदों से भरे हुए हैं. लेकिन ये जश्न कहीं समय से पहले का तो नहीं है. हो सकता है कि कानून उनके पक्ष में काम नहीं करे. क्योंकि पिछले मामलों में बरी किए जाने का 7/11 के फैसले के खिलाफ उनकी अपील पर कोई असर नहीं पड़ेगा. इस तथ्य के बावजूद कि मकोका उन लंबित मामलों की वजह से ही था. याचिका से जुड़े एक वकील ने कहा कि मकोका के लिए आरोपी के खिलाफ लंबित मामलों की सिर्फ तभी जरूरत होती है जब मूल मामले की सुनवाई हो रही हो. उनका कहना है कि एक लंबित मामले में दोषी न होने का फैसला मौजूदा अपीलों पर कोई असर नहीं डालता है. अपील से जुड़े वकीलों में से एक का कहना है. ‘जब जांच अधिकारी चार्जशीट दाखिल करते हैं, तो उन्हें केवल यह देखना होता है कि आरोपियों के खिलाफ दो मामले लंबित हैं. बस इतना ही जरूरी है.’
फैसले के खिलाफ दायर अपील बॉम्बे हाईकोर्ट में अटकी हुई है, जिसे ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई मौत की सजा की पुष्टि की जानी है.
अदालत के रिकॉर्ड के 44,000 पन्नों के अंदर गहरे दबे हुए- कुछ ऐसे हैं जिन्हें पढ़ा जा सकता है तो कुछ ऐसे जिन्हें पढ़ना मुश्किल है- और ‘अत्यधिक बोझ’ वाले न्यायाधीशों के बीच यह मामला किसी निष्कर्ष के करीब पहुंचता नजर नहीं आ रहा है. विस्फोट के पीड़ितों और दोषियों के परिवारों के लिए, जो अपने ही बेटों के लिए वाहिद के जैसी किस्मत होने की उम्मीद कर रहे हैं, परिणाम एक अंतहीन इंतजार है.
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सिलसिलेवार प्रभाव
मुंबई की विशेष अदालत ने पांच दोषियों-कमल अहमद मोहम्मद वकील अंसारी, फैसल अताउर रहमान शेख, एहतेशाम कुतुबुद्दीन सिद्दीकी, नवीद हुसैन खान और आसिफ खान को मौत की सजा सुनाई थी और सात अन्य को भी मौत की सजा दी गई.
8 साल, 9 महीने और 28 दिनों तक चले मुकदमे के बाद 30 सितंबर 2015 को पारित 1,839 पन्नों के लंबे फैसले में मौत की सजा के पांच दोषियों को ‘मौत का व्यापारी’ कहा गया. इसके बाद उन्हें ट्रेन के सात पश्चिमी उपनगरीय डिब्बों में हुए कई विस्फोटों का दोषी ठहराया गया, जिसमें 189 यात्रियों की मौत हो गई और 824 घायल हो गए थे.
फैसले में मकोका के तहत सबूत के तौर पर दि गए पुलिस के सामने किए गए कबूलनामे को ध्यान में रखा गया था, जिसे आसिफ खान के खिलाफ दो लंबित मामलों के आधार पर लागू किया गया था. उन्हें 3 अक्टूबर 2006 को बेलगाम से 7/11 विस्फोटों के लिए गिरफ्तार किया गया था. लेकिन उनकी कहानी वहां से शुरू नहीं होती है. 2 दिसंबर 1999 को आसिफ की किस्मत पर मुहर लगा दी गई, जब उनके खिलाफ जलगांव के एमआईडीसी पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी दर्ज की गई. उन पर बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर 2,000 अंग्रेजी और उर्दू पोस्टर रखने का आरोप लगाया गया था.
उसके खिलाफ दूसरी प्राथमिकी भी 2001 में उसी पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी. इस एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि आसिफ को कुछ अन्य लोगों के साथ जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी संगठनों ने ट्रेनिंग दी थी और वे भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश रच रहे थे.
इन दो मामलों का भूत न केवल आसिफ को बल्कि उसके साथ 12 अन्य आरोपियों को भी परेशान करने के लिए 2006 में आया था, जब मुंबई में सात पश्चिमी उपनगरीय ट्रेन के डिब्बों में कई विस्फोट हुए. पुलिस ने 7/11 विस्फोट मामले में मकोका लगाने के लिए आसिफ के खिलाफ दो लंबित मामलों का इस्तेमाल किया.
सामान्य साक्ष्य कानून के विपरीत, मकोका पुलिस हिरासत में गवाह से लिए गए बयान को अदालतों में सबूत के तौर पर स्वीकार करने की अनुमति देता है. यह मानक नहीं है क्योंकि यह माना जाता है कि पुलिस अधिकारियों के सामने किए गए इस तरह के सभी कबूलनामे बॉलीवुड फिल्मों में देखे गए लोगों की तुलना में थर्ड-डिग्री यातना देने और अभियुक्तों को बहला-फुसलाकर लिए जाते हैं.
वाहिद और आसिफ को छोड़कर, 11 आरोपियों ने अक्टूबर 2006 में अपने कथित कबूलनामे दर्ज किए. उनमें से कई ने एक हफ्ते से भी कम समय बाद न्यायाधीश को मौखिक रूप से यह बताने की कोशिश की कि उनका कबूलनामा जबर्दस्ती से लिया गया था या गलत था या उन्हें नहीं दिखाया गया था. सभी ने नवंबर में एक याचिका दायर किया जिसमें दावा किया गया था कि उनसे कोरे कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए थे या उन्हें धमकी दी गई थी और उन्हें जुर्म कबूल करने के लिए प्रताड़ित किया गया था.
आसिफ के चचेरे भाई अनीस अहमद ने दिप्रिंट को वाहिद की किताब बेगुनाह क़ैदी का हवाला देते हुए बताया, ‘उसने हमें जेल में होने वाली किसी भी चीज़ के बारे में कभी नहीं बताया. हमें वाहिद की किताब पढ़ने के बाद ही यातना के बारे में पता चला… लेकिन हम जानते हैं कि भाई ने हार नहीं मानी, उन्होंने कभी कुछ भी कबूल नहीं किया.’ इस किताब के बाद में ‘इनोसेंट प्रिजनर’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया था.
वाहिद और आसिफ की किस्मत एक जैसी नहीं रही. वाहिद को बरी कर दिया गया था, लेकिन आसिफ को मौत की सजा दी गई. वाहिद मुंबई की आर्थर रोड जेल से बाहर आ गए, लेकिन आसिफ तब से पुणे की यरवदा जेल में कैद हैं.
बाकी सात आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. उनके सभी मामले पुलिस लॉकअप में गुनाह कबूल करने के चक्रव्यूह की पर टिके हुए थे. फैसला उनके कबूलनामे पर बेहद ज्यादा निर्भर था, जिसे एक-दूसरे के खिलाफ, उनके शब्दों को दूसरों को फंसाने के लिए इस्तेमाल किया गया. आसिफ की सजा एक अन्य सह-आरोपी फैसल अताउर रहमान शेख के कबूलनामे और परिस्थितिजन्य सबूतों पर आधारित थी.
हालांकि आसिफ को उसके खिलाफ लगाए गए पिछले दोनों मामलों में बरी कर दिया गया है. पहला मामला 1999 की एफआईआर का था. इस मामले में 2015 में उसके पक्ष में फैसला सुनाया गया. और दूसरा फैसला 2020 में बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच से 2001 के मामले में आया था. इन फैसलों ने उन लोगों के परिवार को एक ‘नई उम्मीद’ दी है. अहमद कहते हैं, ‘वह इन दो मामलों में विजयी हुए हैं. हमें विश्वास है कि 7/11 का भी फैसला हमारे पक्ष में आएगा.’
लेकिन अपील से जुड़े उनके वकील इतने आश्वस्त नहीं हैं. वे कहते हैं, हालांकि वे बरी किए जाने वाले फैसलों को अदालत के संज्ञान में ला सकते हैं क्योंकि यह एक तर्क की तरह लगता है जिसे पहले कानून में सुलझाया नहीं गया है. जहां तक इकबालिया बयान के अलावा अन्य सबूतों की बात है, उच्च न्यायालय में दोषियों की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ युग मोगी चौधरी ने दिप्रिंट को बताया कि इस मामले में सबूत ‘कमजोर’ हैं. उन्होंने कहा, ‘चश्मदीद गवाह महीनों बाद आए और कहा कि मैंने उसे ट्रेन में देखा, वह मेरे बगल में खड़ा था. चर्चगेट के पास 500 से अधिक ट्रेनें हैं, क्या आपको याद रहता है कि दो महीने बाद आपके पास कौन खड़ा था? इस मामले में कुछ इस तरह के सबूत पेश किए गए थे.’
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ऐसे 358 पेज जिन्हें पढ़ा जाना मुश्किल
निचली अदालत के फैसले के तुरंत बाद, सरकार ने बंबई उच्च न्यायालय में मृत्युदंड की पुष्टि के लिए याचिकाएं दायर की, जबकि सभी आरोपियों ने चौंकाते हुए अपनी याचिकाओं को दायर किया. हालांकि इस मामले की शुरुआत काफी उथल-पुथल के बाद हुई .
अदालत के रिकॉर्ड के अनुसार, कन्फर्मेशन केस और अपील पहली बार 3 जनवरी 2019 को उच्च न्यायालय के समक्ष आए. लेकिन पूरे साल की लगभग सभी सुनवाई यह सुनिश्चित करने में चली गईं कि मामले के रिकॉर्ड और कार्यवाही से संबंधित सभी दस्तावेज जगह पर हैं या नहीं.
उदाहरण के तौर पर, 11 फरवरी 2019 को अदालत ने कहा कि मामले में विशेष न्यायाधीश से प्राप्त 44,000 पृष्ठों में चलने वाली छह पेपर पुस्तकों में 385 पृष्ठ थे जो ‘अपठनीय’ थे. अगले दो महीने, अप्रैल तक, पृष्ठों की पहचान और मिलान की प्रक्रिया जारी रही. और यह मसला साल के बाकी समय तक यूं ही चलता रहा. जून तक, वकील ने अदालत को बताया कि 217 पृष्ठों की पढ़ने लायक प्रतियां उपलब्ध कराई गई थी, लेकिन 69 पेजों का अभी भी पढ़ा नहीं जा सकता है. और अन्य 99 पृष्ठ को अभी भी ‘मूल रिकॉर्ड और कार्यवाही से खोजना बाकी है.’ जुलाई के एक और आदेश में वॉल्यूम नंबर और पेज नंबर पर चर्चा की गई.
‘वॉल्यूमिनस’ – यही वह शब्द है जिसका इस्तेमाल इस मामले से जुड़े सभी वकील अदालती रिकॉर्ड को परिभाषित करने के लिए करते हैं. इनमें 192 अभियोजन पक्ष के गवाह, 51 बचाव पक्ष के गवाह और 1 अदालत के गवाह के साथ 169 खंड की कागजी किताबें शामिल हैं. और पिछले दो सालों में, ये 169 खंड बॉम्बे हाईकोर्ट के विक्टोरियन गॉथिक वास्तुकला के अंदर कई बेंचों के बीच घूमते रहे हैं.
आजीवन सजा पाए दो दोषियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों में से एक को इन कागजी किताबों की प्रतियों के लिए अदालत जाना पड़ा क्योंकि उस समय रजिस्ट्री के पास पर्याप्त प्रतियां नहीं थीं. अदालत को वकील को दो सेट देने का निर्देश देना पड़ा.
तारीख पे तारीख का डायलॉग यहां सही साबित हुआ. अभियुक्त के अनुरोध, अभियोजन पक्ष के अनुरोध और पक्षों द्वारा ‘संयुक्त अनुरोध’ पर मामले को कई बार स्थगित किया गया था.
जीवित बचे लोग, अभी भी इंतजार में
जहां तक विस्फोट के पीड़ितों का संबंध है, वे निश्चित रूप से जल्द से जल्द फैसले के इंतजार में हैं.
विस्फोट में घायल हुए महेंद्र पितले के बांये हाथ को कोहनी से नीचे काटना पड़ा था. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘26/11 का हमला 7/11 के बाद हुआ था. लेकिन इसे ज्यादा महत्व दिया गया. उन्होंने फैसला सुनाया और कसाब को फांसी दे दी गई. लेकिन यह एक पुराना मामला है लेकिन इसके बावजूद अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है.’
पिटाले एक कलाकार थे. उन्होने रहेजा स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स मुंबई से फाइन आर्ट में डिग्री ली हुई है और विस्फोट से पहले एक वास्तुशिल्प ग्लास डिजाइनर के रूप में काम करते थे. इस धमाके ने उनकी जिंदगी की दिशा ही बदल दी.
पिटाले अब मुंबई सेंट्रल में मंडल रेल प्रबंधक के कार्यालय में एक क्लर्क के तौर पर काम करते हैं. उन्होंने बताया, ‘एक कलाकार को अपने दोनों हाथों की जरूरत होती है.’
मामले में देरी पर वे कहते हैं, ‘मैं बस इतना चाहता हूं कि फैसला जल्द आ जाए. यह उन लोगों के लिए एक सांत्वना के रूप में होगा जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया था.’
धमाकों में कमल ने कोहनी के नीचे से अपना दाहिना हाथ खो दिया. धमाकों से पहले उनका अपना व्यवसाय था. कमल भी 2009 से पश्चिम रेलवे में एक कनिष्ठ लिपिक के रूप में सरकारी नौकरी करने लगे.
उन्होंने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि उन्हें जल्द से जल्द मौत की सजा दी जाए … हमें न्याय दिया जाना चाहिए. वे खुद को बचाने के लिए धमाकों में इंडियन मुजाहिदीन की भूमिका बता रहे हैं. लेकिन धमाका उन्होंने (12 दोषियों ने) ही किया था.’
हालांकि कमल व्यक्तिगत रूप से मामले पर नजर नहीं रखते हैं. उन्होंने बताया, ‘यह एक ऐसी घटना है जिसने हमारे जीवन को पूरी तरह से बदल दिया. इसलिए हर दिन इसके बारे में सोचने का कोई मतलब नहीं है.’ उन्होंने आगे कहा, ‘मैं इसे भूलना चाहता हूं.’
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‘जज कहां हैं?’
इन सालों में कानूनी मशीनरी चरमराते हुए आगे बढ़ी है. वकील बदल गए, जज रिटायर हो गए और वकील जज बन गए. लेकिन मामला लगभग अटका पड़ा है.
यह 2019 के बाद से 21 विभिन्न न्यायाधीशों के संयोजन के साथ 16 पीठों के सामने आया है. और इन 21 न्यायाधीशों में से जनवरी 2019 में पहली बार मामला सामने आने के बाद से कम से कम छह जज रिटायर हो चुके हैं या फिर उनका तबादला हो गया. इस साल दो न्यायाधीश- जस्टिस पृथ्वीराज के चव्हाण और रेवती मोहिते डेरे ने मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया. हालांकि न्यायमूर्ति चव्हाण के अलग होने की वजह के बारे में जानकारी नहीं है लेकिन न्यायमूर्ति डेरे ने खुद को अलग कर लिया क्योंकि वह पहले इस मामले में वकील के तौर पर पेश हुई थीं.
धमाकों की 16वीं बरसी पर सबसे हालिया सुनवाई के दौरान, 7 जुलाई को यह मामला जस्टिस आरडी धानुका और जस्टिस एमजी सेवलीकर की पीठ के सामने आया. इस पीठ ने यह भी स्वीकार किया कि अदालत पर मामलों का काफी बोझ है. और आरोपी के वकील से कहा कि वह मामले को दूसरी पीठ को सौंपने के लिए मुख्य न्यायाधीश से संपर्क करे. न्यायमूर्ति सेवलीकर इस साल 20 सितंबर को रिटायर होने वाले हैं, और पीठ के मुताबिक तब तक इस मामले की सुनवाई पूरी होने की संभावना नहीं है.
परंपरा के खिलाफ जाते हुए, आरोपी और अभियोजन पक्ष ने इस साल फरवरी में बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष एक संयुक्त आवेदन दायर किया, जिसमें अपील की अंतिम सुनवाई और कन्फर्मेशन मामलों के लिए एक विशेष पीठ गठित करने की मांग की गई थी. इसने कहा कि लगभग 250 गवाहों के साथ सुनवाई में चार महीने लगेंगे, भले ही मामले की दिन-प्रतिदिन सुनवाई हो.
मामले से जुड़े वकीलों के मुताबिक इस पत्र पर मुख्य न्यायाधीश या रजिस्ट्री की ओर से कोई जवाब नहीं आया है. हालांकि, डॉ चौधरी ने दिप्रिंट को बताया कि ‘इसके लिए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है.’
‘जज कहां हैं?’ उन्होंने उच्च न्यायालय में रिक्तियों की ओर इशारा करते हुए पूछा, जो 94 न्यायाधीशों की स्वीकृत शक्ति के मुकाबले 54 न्यायाधीशों के साथ काम कर रहा है. इस साल के अंत तक स्थिति और खराब होने वाली है, जिसमें आठ और न्यायाधीश रिटायर हो जाएंगे.
उन्होंने कहा, ‘उनके (मुख्य न्यायाधीश) के पास इस मामले की सुनवाई के लिए विशेष दो-न्यायाधीशों की पीठ नियुक्त करने के लिए न्यायाधीश नहीं हैं … कोई न्यायाधीश नहीं हैं.’
‘एक उचित संदेह से अधिक’
धमाकों के लिए दोषी ठहराए गए 12 लोगों में से 11 अभी सलाखों के पीछे हैं. मामले में आरोपी नंबर 1 कमाल अहमद मोहम्मद वकील अंसारी की 19 अप्रैल 2021 को कोविड के कारण मौत हो गई थी.
और इन 11 दोषियों के लिए अब उनकी एकमात्र उम्मीद दो शब्दों पर टिकी है, ‘उचित संदेह’. उनका दावा है कि वे निर्दोष हैं और विस्फोटों को वास्तव में इंडियन मुजाहिदीन ने अंजाम दिया था. इसे साबित करने के लिए उन्होंने मुंबई क्राइम ब्रांच, राष्ट्रीय जांच एजेंसी, अहमदाबाद पुलिस, दिल्ली पुलिस, उत्तर प्रदेश स्पेशल टास्क फोर्स और हैदराबाद स्थित ऑर्गनाइजेशन फॉर काउंटर टेररिस्ट ऑपरेशंस (OCTOPUS) सहित कई जांच एजेंसियों के दस्तावेजों पर भरोसा किया है.
ऐसा ही एक डॉक्युमेंट एक पूरक चार्जशीट है जिसे एनआईए ने फरवरी 2014 में इंडियन मुजाहिदीन के खिलाफ दिल्ली की एक अदालत में दायर किया था. दिप्रिंट को मिली इस चार्जशीट में दावा किया गया है कि एक कथित आईएम कार्यकर्ता को 7/11 ट्रेन विस्फोटों में आतंकवादी संगठन की भागीदारी के बारे में पता था, साथ ही 2000 के दशक में किए गए अन्य विस्फोटों के बारे में भी पहले से जानकारी थी.
2008 में मुंबई अपराध शाखा द्वारा दायर एक रिमांड याचिका में भी इसी तरह के सुराग मिले हैं, जिसमें कुछ कथित आईएम गुर्गों की हिरासत की मांग की गई थी. रिमांड याचिका में कई विस्फोटों के लिए आतंकवादी संगठन और उसके गुर्गों को दोषी ठहराया गया, जिसमें ‘जयपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद, वाराणसी, लखनऊ, दिल्ली में बम विस्फोट और 7/11 मुंबई उपनगरीय रेलवे बम विस्फोट’ शामिल हैं.
हालांकि इनका उन मामलों से कुछ भी लेना-देना नहीं है. फिर भी आरोपी इन आधिकारिक दस्तावेजों पर भरोसा कर रहे हैं ताकि यह दावा किया जा सके कि देशभर के अन्य जांचकर्ता इस बात से अवगत हैं कि इंडियन मुजाहिदीन 7/11 के विस्फोटों के पीछे था, न कि निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए 12 लोगों का.
अपील से जुड़े एक वकील ने दिप्रिंट को बताया कि ये दस्तावेज़ ‘अभियोजन मामले के बारे में कुछ ज्यादा ही उचित संदेह पैदा कर रहे हैं.’
इन संदेहों के आधार पर दोषियों ने अपनी उम्मीदें टिका रखी हैं. वे वाहिद के दिमाग में तब आते हैं जब वह विक्रोली में अपने घर के छोटे से कमरे में ऊपर-नीचे घूमते हैं. इन दोषियों को जिन्हें सरकारी वकील ने ‘मौत के सौदागर’ कहा था, वाहिद उन्हें ‘भाई’ कहते हैं. वह उनके परिवार के लोगों के संपर्क में रहते हैं और उन्होंने उनके दादी और चाचा के फोन नंबर सहेज कर रखे हैं. उन्हें अपना बताना एक अपराध की तरह लगता है. वह अक्सर पूछते है, ‘अगर मेरे भाइयों को फांसी दी गई तो मैं कैसे जिंदा रह पाऊंगा?’
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