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Saturday, 11 May, 2024
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समुदाय से बाहर शादी करने पर कन्नाया चर्च के सदस्यों के निष्कासन पर केरल कोर्ट बोली – ‘धारा 25 का उल्लंघन’

कोट्टायम अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने कहा कि सगोत्र विवाह न करने पर सदस्यों को समुदाय से निष्कासित करना, धारा 25 में गारंटी किए गए अधिकारों का उल्लंघन है. कोर्ट ने चर्च से निष्कासितों को वापस लेने के लिए कहा है.

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नई दिल्ली: केरल की एक अतिरिक्त जिला जज ने कहा है कि सगोत्र विवाह कोई ‘आवश्यक धार्मिक आचरण’ नहीं है, और समुदाय से बाहर शादी करने वाले सदस्यों को निष्कासित करना धारा 25 का उल्लंघन है. ये धारा भारतीय नागरिकों को अपनी आस्था और धर्म का पालन करने, और उसे खुले आम स्वीकार करने की गारंटी देती है.

कोट्टायम के अतिरिक्त ज़िला जज सनु एस पणिक्कर ने एक निचली अदालत के 2018 के फैसले को सही ठहराया, जिसने कोट्टायम स्थित एक ईसाई पंथ कन्नाया कैथोलिक समुदाय के सदस्यों को, अपने समाज से बाहर शादी करने पर चर्च से निष्कासित कर दिया गया था. 2018 का ये आदेश निष्कासित सदस्यों की ओर से दायर एक याचिका पर जारी किया गया था.

जज पणिक्कर का ये मानना था कि सगोत्र विवाह ‘चर्च की सदस्यता को सीमित करने के लिए कोई आवश्यक धार्मिक आचरण नहीं है’. सगोत्र से मतलब समुदाय या ग्रुप के अंदर विवाह से होता है.

107 पन्नों के अपने फैसले में उन्होंने आगे कहा, ‘मेरा विचार ये है कि चर्च समुदाय में प्रचलित सगोत्र विवाह की प्रथा के आधार पर, चर्च का अपनी सदस्यता को नियामित करना न्यायोचित नहीं होगा’.

अपने फैसले के मज़बूती देने के लिए उन्होंने कैनन लॉ का उल्लेख किया, जो ईसाइयत को शासित करने वाले नियम-क़ायदों का सेट है, जिसमें मिश्रित विवाह की मनाही नहीं है.

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फैसले पर पहुंचने के लिए अपीलीय अदालत ने इस सवाल की भी व्याख्या की, कि क्या कोई सिविल कोर्ट मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मामलों की सुनवाई कर सकती है.


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फैसले की उत्पत्ति

फैसले का संबंध उस मुक़दमे से है जो 2015 में एक निचली अदालत में, कोट्टायम स्थित एक सुधार ग्रुप- कन्नाया कैथोलिक नवीकरणा समिति, और समुदाय के दूसरे सदस्यों की ओर से दायर किया गया था.

दायर मुक़दमे में अदालत से ये ऐलान करने की गुज़ारिश की गई थी, कि कोट्टायम बिशप क्षेत्र से बाहर किसी कैथोलिक से विवाह करने पर, कोट्टायम बिशप क्षेत्र की सदस्यता ख़त्म नहीं होगी.

याचिका में ये भी गुज़ारिश की गई कि विवाह को कोट्टायम बिशप क्षेत्र में संपन्न कराया जाए, और उन लोगों को वापस लिया जाए जिन्हें सगोत्र विवाह की प्रथा के आधार पर, सदस्यता से बाहर कर दिया गया था.

2018 में अपना फैसला सुनाते हुए निचली सिविल कोर्ट ने आदेश दिया था, कि सगोत्र विवाह अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, जो उसके अनुसार धारा 21 का एक मूल हिस्सा है, जिसमें हर नागरिक को स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी गई है.

हालांकि जज पणिक्कर मोटे तौर पर निचली अदालत की राय से सहमत थे, लेकिन उन्होंने सगोत्र विवाह की प्रथा को धारा 21 का उल्लंघन नहीं माना. उन्होंने कहा कि ये प्रथा ‘काफी लंबे समय’ से प्रचलित थी, लेकिन विवाह की प्रथा लोगों को अपनी पसंद के आधार पर शादी करने के अधिकार से वंचित नहीं करती.

उन्होंने आगे कहा कि सदस्यों को चर्च से निष्कासित किए जाने को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि इससे उनके अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के पालन के अधिकार का उल्लंघन होता है, जिसे संविधान की धारा 25 के तहत गारंटी दी गई है.

कैनन लॉ में प्रतिबंधित नहीं

कोर्ट ने कहा कि कन्नाया कैथोलिक्स जिन्हें ‘साउथीस्ट’ कहा जाता है, केरल में सेंट थॉमस ईसाइयों का एक वर्ग माना जाता है जिनकी धार्मिक प्रथाएं अलग हैं, और ये चर्च ख़ासतौर से उन्हीं के लिए स्थापित किया गया था. लेकिन फैसले में चर्च की सदस्यता के लिए सगोत्र विवाह मानदंडों के उप-नियम को सही नहीं ठहराया, और कहा गया कि प्रधानता कैनन क़ानून की है.

कोर्ट ने कहा कि कैनन क़ानून में मिश्रित विवाह की मनाही नहीं है, और उसने आगे कहा कि पापल बुल (कैथोलिक चर्च के पोप द्वारा जारी एक सार्वजनिक आदेश) चर्च को, सगोत्र विवाद नहीं बल्कि कैनन क़ानून के आधार पर, सदस्यता को नियंत्रित करने का अधिकार देता है.

कोर्ट ने प्रतिवादी की इस दलील का भी ध्यान रखा, कि किसी अविवाहित कन्नाया कन्या के यहां जन्मे बच्चे को भी, ईसाई दीक्षा लेने और चर्च का हिस्सा बनने की अनुमति दी गई है, और कहा कि सगोत्र विवाह कोई आवश्यक धार्मिक आचरण नहीं है.

उसने कहा कि चर्च को कैनन क़ानून के ऊपर प्रधानता हासिल नहीं है, और इसलिए समुदाय या चर्च को ईसाई दीक्षा के लिए, कैनन क़ानूनों को दरकिनार करते हुए चर्च की सदस्यता को, सगोत्र विवाह की प्रथा के आधार पर नियंत्रित करने का अधिकार नहीं है.

बलपूर्वक सदस्यता समाप्ति के विषय पर कोर्ट ने कहा, कि परंपराओं के आधार पर सदस्यता मानदंड अभी भी प्रचलित है, इसलिए ‘शांतिपूर्वक’ हटाया जाना कोई अहमियत नहीं रखता, और उसने आदेश दिया कि विकासितों को वापस लिया जाए.

सिविल अदालतें और मौलिक अधिकार

ज़िला अदालत ने कहा कि उपासना के अधिकार, विवाह के अधिकार, सगोत्र विवाह की वैधता, और चर्च की सदस्यता के अधिकार से जुड़े मामले सिविल नेचर के हैं, और उनके परिणाम भी सिविल ही होते हैं. कोर्ट ने फैसला सुनाया कि ‘सामान्य क़ानून के तौर पर मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के सवाल पर फैसला करना, सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आता है’.

केएस पुत्तास्वामी मामले का उल्लेख करते हुए, फैसले में आगे व्याख्या की गई कि उल्लंघन करने वाला अगर राज्य है, तो कार्यवाही रिट अदालतों में होगी, और जहां उल्लंघन करने वाला कोई ग़ैर-राज्य अभिकर्ता (इस मामले में चर्च) है, वहां ये कार्यवाही सामान्य अदालतों का कार्यक्षेत्र में आएगी, जैसे कि सिविल कोर्ट या अधीनस्थ न्यायपालिका.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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