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Saturday, 20 April, 2024
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भगत सिंह की किताब रखना गैर-कानूनी नहीं, कोर्ट ने UAPA, देशद्रोह कानून के तहत 2 आदिवासियों को किया बरी

एक पिता-पुत्र की जोड़ी पर ऐसे लोगों को पनाह देने का आरोप था, जो आदिवासियों को नक्सल गतिविधियों के लिए ‘उकसाते’ थे. सुबूत के तौर पर पुलिस ने अख़बारों के लेख, और भगत सिंह की किताब का हवाला दिया.

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नई दिल्ली: नक्सलियों से संबंध रखने के आरोप में दो आदिवासियों को ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और देशद्रोह के आरोपों से बरी करते हुए बृहस्पतिवार को मैंगलुरू की एक सेशंस कोर्ट ने कहा कि केवल भगत सिंह पर किताब या अख़बार की कटिंग रखने पर, क़ानून के तहत कोई पाबंदी नहीं है, और इनसे अभियुक्त के किसी प्रतिबंधित संगठन से रिश्ते साबित नहीं होते.

कोर्ट की टिप्पणी एक पिता-पुत्र जोड़ी के खिलाफ 2012 के एक मामले में आई, जिन पर पुलिस का आरोप था कि उन्होंने प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)- पीपुल्स वॉर के सदस्यों को अपने यहां पनाह दी थी.

पुलिस का केस उन लेखों पर आधारित था, जो दोनों अभियुक्तों के घर से ज़ब्त किए थे, जिनमें एक पत्रकारिता का छात्र वित्तला मालेकुड़िया और दूसरा उसके पिता लिंगप्पा मालेकुड़िया थे. ज़ब्त सामग्री में कुछ घरेलू सामान, अख़बार, भगत सिंह की एक किताब, और 2012 में उडुपी चिंकमंगलूर संसदीय सीट पर उपचुनाव के दौरान, छात्र का लिखा एक पत्र था जिसमें अधिकारियों से अनुरोध किया गया था कि इलाक़े के आदिवासियों की मांगें पूरी करें अन्यथा उन्हें चुनावों के बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा.

इस बात पर बल देते हुए कि इस सामग्री में कुछ भी फंसाने वाला नहीं है, अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश बीबी जकाती ने कहा, ‘भगत सिंह की किताब ज़ब्त की गई है. भगत सिंह की किताब रखने पर कोई क़ानूनी पाबंदी नहीं है. जांच अधिकारी ने अख़बार की पेपर कटिंग्स ज़ब्त की हैं. ऐसे अख़बारों को पढ़ना क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित नहीं है’.

ये टिप्पणी करते हुए कि पुलिस ने अभियुक्तों के घर से बरामद अख़बारी लेखों का भी हवाला दिया है और उन्हें फंसाने वाले साक्ष्य बताया है, कोर्ट ने कहा, ‘अभियुक्त नंबर 6 और 7 ने ये लेख प्रकाशित नहीं किए हैं, जो अख़बार में पाए गए. इसलिए, अगर अख़बार में कोई विद्रोहात्मक प्रकाशन है भी तो अभियुक्त 6 और 7 उस प्रकाशन के लिए जवाबदेह नहीं हैं. केवल अख़बार की कटिंग्स रखना कोई अपराध नहीं है’.

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ज़ब्त की गई वस्तुओं की जांच करते हुए कोर्ट ने कहा, ‘ये ऐसी वस्तुएं हैं जिनकी रोज़मर्रा के जीवन में ज़रूरत पड़ती है’.

बेटे के पत्र के बारे में कोर्ट ने कहा, ‘इन पत्रों को पढ़ने के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि ऐसे पत्रों में राज्य के स्थानीय लोगों की मांगों का उल्लेख है. ऐसे लेखों से कोई ये पता नहीं लगा सकता कि अभियुक्त नंबर 6 और 7 नक्सली गतिविधियों में शामिल हैं, या वो अभियुक्त नंबर 1 से 5 को छिपा रहे थे, या फिर उन्हें पनाह दे रहे थे’. इसलिए कोर्ट ने जोड़ी को बरी कर दिया.


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2012 का केस

कोर्ट के समक्ष केस में कुल सात अभियुक्त थे. अभियोजन ने कहा था कि पांच अभियुक्त- विक्रा गौड़ा, प्रदीपा, जॉन, प्रभा और सुंदरी- सब प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)-पीपुल्स वॉर के सदस्य थे. उसका आरोप था कि इन पांचों ने दूसरे दो अभियुक्तों- पिता-पुत्र लिंगप्पा और वित्तला के साथ मिलकर, ‘भारत की संप्रभुता के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का’ एक आपराधिक षडयंत्र रचा था.

अभियोग पक्ष ने कहा कि लिंगप्पा और वित्तला ने कर्नाटक में कुथलूरू गांव के आदिवासी क्षेत्र में, अन्य पांच को उस दौरान आश्रय दिया, जब वो कथित रूप से आदिवासियों को नक्सल गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए उकसा रहे थे.

इस केस में 3 मार्च 2012 को एक एफआईआर दायर की गई, जो मालेकुड़िया आवास से ज़ब्त की गई 27 चीज़ों पर आधारित थी, और जोड़ी को उसी दिन गिरफ्तार कर लिया गया. वित्तला उस समय मैंगलुरू यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता पढ़ रहा था. उसके हॉस्टल में भी तलाशी ली गई, और कुछ चीज़ें ज़ब्त की गईं.

चूंकि पहले पांच अभियुक्त कथित रूप से फरार चल रहे थे, इसलिए मुक़दमे को तोड़ा गया, और फैसला सिर्फ मालेकुड़िया जोड़ी पर दिया गया. जोड़ी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी (आपराधिक षडयंत्र), और 124ए (देशद्रोह) के साथ, और ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 की धारा 19 (आतंकियों को छिपाना या आश्रय देना) तथा 20 (किसी आतंकी गिरोह या संगठन का सदस्य होना) के तहत मुक़दमा चलाया जा रहा था.

नक्सल गतिविधि में शामिल होने का कोई सबूत नहीं

अभियोजन ने कथित तौर पर अभियुक्तों से तीन मोबाइल फोन्स भी ज़ब्त किए थे, लेकिन कोर्ट ने कहा कि इन मोबाइल्स के कॉल डेटा रिकॉर्ड्स पेश नहीं किए गए थे. कोर्ट ने कहा कि मोबाइल्स के अंदर कोई फंसाने वाली सामग्री स्टोर न होना, और अभियुक्तों के बीच कॉल्स दिखाने वाले किसी डेटा का न होना, अभियोजन के केस की सहायता नहीं करेगा.

कोर्ट ने इस ओर भी ध्यान आकृष्ट किया, कि किसी स्वतंत्र गवाह के ऐसे बयान नहीं हैं, जो साबित करते हों कि अभियुक्त वास्तव में नक्सली गतिविधियों में लिप्त थे. कोर्ट ने कहा, ‘अगर अभियुक्त 6 और 7 वाक़ई नक्सली गतिविधियों में शामिल थे, तो कम से कम किसी एक गांव वाले ने इस बात को कहा होता. किसी भी गांव वासी ने इसका ज़िक्र नहीं किया. इसलिए इस बात के कोई सबूत नहीं हैं, कि अभियुक्त 6 और 7 नक्सली ग्रुप के सदस्य थे, और वो या तो 1 से 5 नंबर अभियुक्तों को छिपा रहे थे, या कुथलूर गांव के जंगलों में नक्सली गतिविधियों में उनकी सहायता कर रहे थे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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