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Monday, 4 November, 2024
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भारतीय रेल में एंटी कोलिजन ‘कवच’ कैसे काम करता है, यह होता तो भी न रुकती ओडिशा में ट्रेनों की टक्कर

दुर्घटना में शामिल किसी भी ट्रेन में नया कोलिजिन प्रोटेक्शन सिस्टम नहीं था, लेकिन कवच को किसी भी मामले में इंटरलॉक की खराबी, ट्रैक अलाइनमेंट में परिवर्तन का पता लगाने और उसके हिसाब से ऐक्शन लेने के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है.

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बेंगलुरु: 2 जून को, ओडिशा के बालासोर जिले के पास तीन ट्रेनों की टक्कर में 275 लोगों की मौत हो गई और 1,000 से अधिक लोग घायल हो गए. 1995 के बाद से भारत में होने वाली यह सबसे खराब रेल दुर्घटना है, जिसने भारतीय रेलवे में सुरक्ष के विभिन्न पहलुओं की तरफ फिर से सबका ध्यान खींचा है, खासकर ‘कवच’ नाम की नई टक्कर सुरक्षा प्रणाली (collision protection system), जो राष्ट्रीय स्तर पर शुरू होने की प्रक्रिया में है.

देश में विकसित, कवच ‘यातायात टक्कर बचाव प्रणाली’ या TCAS (उच्चारण ‘टी-कास’) का एक रूप है, जिसे दो वाहनों को टकराने से रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया है. ऐसा करने के लिए, सिस्टम वाहनों के बीच की दूरी और उसके बदलने की दर का पता लगाता है.

1980 के दशक की शुरुआत से ही बीच हवा में होने वाली विमान की टक्करों (Mid-Air Collisions) को कम करने के लिए टीसीएएस का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक साल 2019 में, टीसीएएस की सक्रियता के कारण पास-पास आने पर एक विमान को तुरंत ऊपर चढ़ने में मदद मिली थी जिससे मुंबई हवाई क्षेत्र में एक बोइंग और एक एयरबस के बीच मिड-एयर टक्कर को टाला जा सका था.

इसी तरह, कवच प्रणाली एक ही लाइन पर एक-दूसरे की ओर बढ़ती हुई दो ट्रेनों के बीच निकटता का पता लगाती है और खुद-ब-खुद ब्रेक लगा देती है. यह ऑपरेटर या लोको पायलट को ट्रेन का नियंत्रण लेने के लिए अलर्ट भी करता है.

दिप्रिंट आपको बता रहा है कि कवच कैसे काम करता है और क्या यह ओडिशा त्रासदी को रोक सकता था.

कवच क्या है

कवच एक उच्च स्तरीय सेफ्टी सिस्टम – सेफ्टी इंटीग्रिटी लेवल 4 (SIL-4) है, जिसका हिंदी अर्थ ढाल होता है. इसे भारतीय रेलवे द्वारा ट्रेन संचालन में सुरक्षा में सुधार करने दुर्घटनाओं को पूरी तरह से खत्म करने या शून्य स्तर पर लाने के लिए लाया गया है.

कवच सिस्टम को रेल मंत्रालय के रिसर्च डिजाइन एंड स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन (आरडीएसओ) द्वारा बनाया गया है. इसमें लोकोमोटिव पर ऑन-बोर्ड उपकरण, ट्रैक-साइड एलीमेंट और इसके द्वारा संचालित वायरलेस नेटवर्क शामिल हैं.

इसका प्राथमिक उद्देश्य टक्करों से बचना और जब सुरक्षा पैरामीटर पार हो जाते हैं – जैसे टक्कर की संभावना से पहले या जब एक पायलट लाल बत्ती जंप करता है, या जब अधिकतम गति की सीमा पार हो जाती है – तब ब्रेकिंग सिस्टम को चालू करना है.


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इसके अलावा, यह आपातकालीन एसओएस संदेशों, क्रॉसिंग गेट्स के पास पहुंचने पर खुद से हॉर्न बजना और लोकोमोटिव के लूप लाइन में प्रवेश करने पर गति को 30 किमी प्रति घंटे तक कम करना शामिल है.

भारत के पास एक कवच एंटीमिसाइल सिस्टम भी है जो 2012 से काम कर रहा है और टी-कास (TCAS ) सिस्टम ने इससे भी कुछ तकनीक को अपनाया है.

कैसे काम करता है कवच?

कवच प्रणाली में ऐसी विशेषताएं हैं जो गति, स्थान और आगे सिग्नल के लिए दूरी, सिग्नल के प्रकार, पायलट या स्टेशन से संकट संदेश, और बहुत कुछ जैसी जानकारी प्रदर्शित करती हैं.

पटरियों में रेडियो-फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (RFID) टैग होते हैं जो ट्रैक के प्रत्येक खंड पर लगे होते हैं और ट्रेन के अंदर लोको (लोकोमोटिव) TCAS इकाई को सीधे जानकारी प्रदान करते हैं. ट्रैक के विभिन्न खंडों को यूनीक आईडी सौंपी जाती हैं, और ये ट्रेन की दिशा और गति निर्धारित करते हैं.

आस-पास के लोकोमोटिव के साथ संचार करने के लिए एक रेडियो टावर के साथ स्टेशनों पर स्थापित एक स्थिर टी-कास इकाई भी है. एक लोकोमोटिव के अंदर, सामने के छोर और पीछे के छोर, ऊपर और कुछ पहियों पर भी सेंसर लगे होते हैं.

जब एक ट्रेन दो आरएफआईडी टैग को क्रमिक रूप से पास करती है, तो उसकी दिशा और गति निर्धारित की जा सकती है. जैसे ही कोई ट्रेन किसी सेगमेंट से गुजरती है, लोको टी-कास यूनिट स्टेशन पर स्थापित स्टेशनरी टी-कास यूनिट को अल्ट्रा-हाई फ्रीक्वेंसी (यूएचएफ) रेडियो एंटीना के माध्यम से ट्रेन के बारे में जानकारी भेजती है.

जब आने वाला सिग्नल लाल होता है, स्टेशनरी टी-कास लोको टी-कास को सूचना रिले करेगा, ट्रेन को धीमी करेगा और रोकेगा. अगर लोको पायलट ऐसा नहीं कर पाता है तो ऑटोमैटिक ब्रेक लगा दिए जाते हैं.

जब विभिन्न स्रोतों से संकेतों के बीच कोई विरोध होता है, तो स्टेशनरी टी-कास इकाई सबसे अधिक प्रतिबंधात्मक शर्तें लागू करेगी और तदनुसार ट्रेनों की आवाजाही को कम करेगी.

जब दो लोकोमोटिव एक ही ट्रैक पर एक-दूसरे की ओर बढ़ रहे होते हैं, तो स्टेशन से दोनों ट्रेनों को एसओएस सिग्नल भेजे जाते हैं, साथ ही पायलटों को दृश्य और श्रव्य चेतावनी दी जाती है, स्वचालित रूप से उन दोनों को रोक दिया जाता है.

ट्रेन की गति और उनके बीच की दूरी के आधार पर, कवच प्रणाली कम से कम 300 मीटर की सुरक्षित दूरी सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय हो जाती है क्योंकि दोनों ट्रेनें पूरी तरह से रुक जाती हैं.

भारतीय रेलवे द्वारा जारी कवच प्रणाली पर एक आधिकारिक दस्तावेज के अनुसार, टकराव से बचने के लिए कई अन्य विफल और बैकअप सुरक्षा प्रणालियों के साथ-साथ टी-कास प्रणालियों की एक केंद्रीकृत निगरानी की भी योजना बनाई जा रही है.

ट्रेनों की रियल टाइम ट्रैकिंग के लिए सैटेलाइट कम्युनिकेशन सोल्यूशन सप्लाई करने वाले बैंगलुरु स्थित सांख्य लैब्स के एक्जीक्यूटिव वॉइस प्रेसीडेंट विवेक किम्बाहुने ने कहा, “वर्तमान में 2022-23 में लगभग 2,000 किमी को कवर किया जाना है, लगभग 34,000 किमी का नेटवर्क जो हाई-डेंसिटी कॉरीडोर में स्थित है, पहले चरणबद्ध तरीके से कवच के तहत लाया जाएगा,”  ट्रैकिंग वेबसाइटों पर उपलब्ध राष्ट्रीय ट्रेन पूछताछ प्रणाली (NTES) पर रियल टाइम ट्रेन ट्रैकिंग जानकारी इस सैटेलाइट कम्युनिकेशन नेटवर्क के कारण है.

उन्होंने कहा, “कवच प्रणाली का कमजोर बिंदु यह है कि यह पूरी तरह कार्यात्मक और तभी फायदेमंद है जब पूरे रेलवे नेटवर्क को कवच से सुसज्जित सभी लोको के साथ बढ़ाया जाता है.”

इसके अतिरिक्त, कवच को रियल टाइम अपडेट देने और सिग्नल्स के प्रसारण में आसानी के लिए सैटेलाइट कम्युनिकेशन के साथ एकीकृत करना भी संभव है.

क्या कवच ओडिशा की ट्रेन-टक्कर को रोक सकता था?

ओडिशा की टक्कर और पटरी से उतरने में तीन ट्रेनें शामिल थीं. यह टक्कर गलत ट्रैक चेंज के कारण हुई थी, जिससे सारी ट्रेनें पटरी से उतर गईं.

भारत में उपग्रह संचार (सैटकॉम) ट्रैकिंग के कार्यान्वयन के दौरान सेंटर फॉर रेलवे इंफॉर्मेशन सिस्टम्स (CRIS) के लिए केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करने वाले किम्बाहुने ने कहा, “ओडिशा दुर्घटना एक दुर्लभ दुर्घटना थी …. अगर 30-40 सेकंड की देरी होती, तो बेंगलुरु-हावड़ा एक्सप्रेस की आखिरी तीन बोगियां सुरक्षित निकल जातीं. कोरोमंडल एक्सप्रेस की पटरी से उतरी बोगियां बेंगलुरू-हावड़ा एक्सप्रेस से टकराईं, जो दुर्भाग्यपूर्ण था,”


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उन्होंने कहा कि आपदा को कवच से नहीं टाला जा सकता था क्योंकि सिस्टम पटरी से उतरने से नहीं रोक सकता. इसके अतिरिक्त, सिस्टम को कार्य करने के लिए एक दूसरे की ओर जाने वाली दोनों ट्रेनों को कवच से लैस करने की आवश्यकता थी, लेकिन ऐसा नहीं था. ट्रेनें भी अधिकतम गति सीमा के अंदर ही चल रही थीं, जिससे खुद-ब-खुद ब्रेक नहीं लगता.

लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों ट्रेनों के लिए मेनलाइन सिग्नल हरा था, फिर भी कोरोमंडल एक्सप्रेस को लूप लाइन की ओर डाइवर्ट कर दिया गया, जहां एक लोकोमोटिव खड़ा हुआ था. कवच को इंटरलॉक की खराबी या ट्रैक अलाइनमेंट में परिवर्तन का पता लगाने और उस पर कार्रवाई करने के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है.

किम्बाहुन ने कहा, अंत में लोकोमोटिव को पूरी तरह से रोकने के लिए कवच को उसकी गति को पहले धीमा करना होता है जिसके लिए उसे एक न्यूनतम दूरी की आवश्यकता होती है. ओडिशा के मामले में, लूप पर गति और दूरी को देखते हुए, लोको पायलट के लिए प्रतिक्रिया करना या सिस्टम के लिए ऑटोमेटिक तरीके से ट्रेन को सुरक्षित रूप से रोकना असंभव होता.

हालांकि, किम्बाहुने ने कहा कि जब तक पूरी जांच पूरी नहीं हो जाती, दुर्घटना के कारण और इसे कैसे रोका जा सकता है, इस बारे में अधिकांश अनुमान अटकलें ही हैं.

कवच कब लागू होगा?

कवच पर काम 2012 में शुरू हुआ, और 2016 में पहला फील्ड परीक्षण किया गया, इसके बाद 2017 से इसे ऐक्टिव तरीके से डेवलेप किया जाने लगा.

मार्च 2022 में सिकंदराबाद में लाइव प्रदर्शन हुआ. भारतीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव एक चलती लोकोमोटिव में बैठे थे, जबकि रेलवे बोर्ड के सीईओ विनय कुमार त्रिपाठी दूसरे में बैठे थे. दोनों ट्रेनें एक ही ट्रैक पर एक-दूसरे की ओर जा रही थीं.

आटोमेटिक तरीके से ब्रेक लगाकर कवच प्रणाली का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया. यह ऑटोमेटिक तरीके से ब्रेक लगाती है, जिससे ट्रेनें रुक जाती हैं.

आज, सिस्टम 65 लोकोमोटिव और 134 स्टेशनों में तैनात है. दिसंबर 2022 तक कवच के तहत 1,455 किलोमीटर ट्रैक कवर किए जा चुके हैं.

रेल मंत्रालय ने एक विज्ञप्ति में कहा कि वर्तमान में, दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा कॉरीडोर में 3,000 किमी तक प्रणाली का कार्यान्वयन प्रगति पर है. पूरे सिस्टम के वित्त वर्ष 2027-28 तक चालू होने की उम्मीद है. पूरा होने पर, यह दुनिया की सबसे सस्ती स्वचालित ट्रेन टकराव प्रणाली (automatic train collision system) होगी, जिसकी लागत दुनिया भर में 2 करोड़ रुपये प्रति किमी की तुलना में 50 लाख रुपये प्रति किमी है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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