नई दिल्ली: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (ICAR-IARI) के वैज्ञानिकों ने गेहूं की एक नई किस्म विकसित की है जो बढ़ते तापमान का सामना कर सकती है और किसानों के लिए उच्च उपज पैदा कर सकती है.
जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ती गर्मी भारत की गेहूं की फसल को प्रभावित कर सकती है- यह सवाल सरकार के साथ-साथ आम लोगों की चिंताएं भी बढ़ा रहा है. फिलहाल नई किस्म की खोज इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा.
गेहूं की फसल को फ्लावरिंग स्टेज में उच्च तापमान का सामना करना पड़ता है, जिसे ‘टर्मिनल हीट स्ट्रेस’ कहा जाता है. टर्मिनल हीट टॉलरेंस का मतलब है कि फसल फूल आने की अवस्था में गर्मी का सामना करने में सक्षम है.
आईसीएआर-आईएआरआई गेहूं की किस्म ‘एचडी 3385’ को बढ़ते उच्च तापमान का सामना नहीं करना पड़ेगा, खासतौर पर अपने फसल चक्र के अंत में. इसे विशेष रूप से टर्मिनल हीट टोलरेंस के लिए विकसित किया गया है.
आईएआरआई के निदेशक अशोक कुमार सिंह ने शुक्रवार को दिप्रिंट को बताया, ‘अगर आपको याद हो तो पिछले साल 27 से 29 मार्च के बीच काफी गर्म हवाएं चली थीं. और इसका कुछ हद तक गेहूं के उत्पादन पर असर पड़ा था. यही कारण है कि सरकार इस साल यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत सक्रिय है कि फसल खराब न हो.’
पिछले साल, दिल्ली, उत्तराखंड, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और झारखंड रिकॉर्ड गर्मी की चपेट में थे. इस महीने की शुरुआत में भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने चेतावनी दे दी थी कि इस साल किसी तरह की राहत मिलने की संभावना नहीं है.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, हीट वेव की वजह से वर्ष 2021-22 (जुलाई-जून) में गेहूं का उत्पादन गिरकर 106.84 मिलियन टन रह गया था, जबकि उससे पिछली साल उत्पादन 109.59 मिलियन टन था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘गर्म मौसम’ की तैयारियों की समीक्षा के लिए सोमवार को एक उच्च स्तरीय बैठक की भी अध्यक्षता की थी.
सिंह ने कहा, गेहूं की पैदावार को बचाने के लिए, उपज में कमी के खतरे के बिना जल्दी बुवाई करना महत्वपूर्ण है और नई किस्म इन जरूरतों को पूरा करती है.
गेहूं की किस्मों का क्रॉस-ब्रीडिंग
गेहूं आमतौर पर 1 से 20 नवंबर के बीच बोया जाता है. इसका अर्थ है कि मार्च के महीने में अनाज में दूधिया रस भरना शुरू हो जाता है. मार्च के अंत तक फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है.
हालांकि, अगर उस दौरान फसल को उच्च तापमान का सामना करना पड़ रहा है, तो अनाज ठीक से आकार नहीं ले पाता है. दाना सूख जाता है और उपज को कम करता है.
अगर गेहूं की किस्मों की बुवाई नवंबर से पहले की जाए, तो उनमें जल्दी फूल आने शुरू हो जाता है. इसका नतीजा पौधे में बायोमास के खराब संचयन के रूप में नजर आता है. इसकी वजह से पौधा बढ़ नहीं पाता और कम उपज होती है.
सिंह ने बताया कि इस स्थिति से पार पाने के लिए टीम ने दो किस्मों की क्रॉस ब्रीडिंग कर ‘HD 3385’ को विकसित किया, जिसमें ये सभी वांछनीय गुण थे (मूल किस्मों के नाम ज्ञात नहीं हैं). उन्होंने समझाया ‘इस नई किस्म की बुवाई मध्य अक्टूबर से 25 अक्टूबर के बीच की जानी होगी, जो नियमित बुवाई की अवधि से लगभग 15 दिन पहले है.’
एचडी 3385 किस्म को न सिर्फ फसल को गर्मी के तनाव के प्रति सहिष्णु बनाने के लिए विकसित किया गया है, बल्कि इससे उपज में भी वृद्धि हुई है.
सिंह ने कहा कि गेहूं की नई किस्म को विकसित होने में 130 से 160 दिन लगते हैं, जबकि नवंबर में बोने पर 80-95 दिन लगते हैं और इसकी उपज क्षमता लगभग 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
फसल की एक अन्य गर्मी प्रतिरोधी किस्म, HI 1636 या ‘पूसा बकुला’ जिसे ICAR ने पिछले साल जारी किया था, की उपज क्षमता 72 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
टीम ने ‘कमजोर वर्चुअलाइजेशन जीन’ के रूप में जानी जाने वाली फसल को शामिल करने के लिए इसका प्रजनन कराया है, जो जल्दी बुवाई की अनुमति देता है.
सिंह ने कहा, ‘इस जीन के कारण भले ही इन किस्मों को जल्दी बोया जाता है, लेकिन जब तक तापमान की न्यूनतम सीमा तक नहीं पहुंच जाते, तब तक उनमें फूल नहीं आएंगे.’
उन्होंने कहा, ‘और इसलिए इस किस्म को वनस्पति विकास और अधिक बायोमास जमा करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. यह बायोमास ही है जो अनाज में बदल जाता है.’
टीम को उन विशेषताओं वाली किस्म को लेकर आना था जो गेहूं के दाने को अंकुरण के लिए उच्च तापमान सहन कर सकता हो. क्योंकि अक्टूबर के महीने में मिट्टी का तापमान थोड़ा अधिक होता है.
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15 दिन पहले बीज बोने से नई किस्म अधिक बायोमास जमा कर सकती है, और अनाज के फलने-फूलने का काम तापमान बढ़ने से पहले हो जाता है.
चावल और गेहूं की खेती
भारत में चावल और गेहूं की खेती साथ-साथ चलती है. एक का सीजन खत्म होता है तो दूसरे का शुरु हो जाता है. ऐसे में जल्दी गेहूं की बुवाई के साथ एक और समस्या आ खड़ी होती है, वह है चावल की खेती के बाद पराली को जलाना.
भारतीय किसान गेहूं की फसल से ठीक पहले – अक्टूबर और नवंबर के बीच अपनी धान की फसल काटते हैं. यह सुनिश्चित करने के लिए कि अगली फसल के लिए समय पर फसल के ठूंठ को साफ किया जाए, बड़ी संख्या में किसान बचे हुए अवशेषों को आग लगा देते हैं. इन खेतों की आग से निकलने वाला धुआं भारत-गंगा के मैदानी इलाकों में प्रदूषण का एक बड़ा कारण है.
गेहूं की फसल पहले बोने से किसानों पर अपने धान के खेतों को जल्दी खाली करने का और दबाव पड़ेगा.
इस समस्या से निपटने के लिए IARI ने सरकार के साथ मिलकर चावल की पूसा 44 किस्म का उत्पादन बंद करने का फैसला किया है, जिसका मैच्योरिटी पीरियड 150 दिन है.
सिंह ने कहा, ‘चावल प्रजनन कार्यक्रम में अब हमारा ध्यान पूरे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के लिए किस्मों को विकसित करने पर है, जो 125-130 दिनों की (कम) की होती हैं.’
इस बात पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है कि धान की फसल सितंबर या अक्टूबर के अंत तक अपना जीवन चक्र पूरा कर ले और नई गेहूं की फसल बोने के लिए पर्याप्त समय मिल जाए.
सिंह ने कहा, ‘किसान निश्चित रूप से लंबी अवधि (चावल) किस्मों के लिए जाना पसंद नहीं करेंगे क्योंकि 155 दिनों की अवधि वाली किस्मों में सिंचाई के कम से कम 5 से 6 दिन और लगेंगे.’
संस्थान ने पूसा 1509, पूसा 1692 और पूसा 1847 सहित कई (अल्पकालिक) चावल किस्मों को पहले ही विकसित कर लिया है. ये किस्में बीज परिपक्वता के लिए 125 दिनों से कम समय लेते हैं.
एचडी 3385 के लिए आगे का रास्ता
सिंह ने कहा कि टीम छह साल से एचडी 3385 किस्म विकसित करने पर काम कर रही है.
सिंह ने कहा कि संस्थान ने प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर्स राइट्स अथोरिटी (पीपीवीएफआरए) के साथ मिलकर एचडी 3385 को पंजीकृत किया है. यह एक वैधानिक निकाय है जो प्लांट ब्रीडर और किसानों के अधिकारों के लिए काम करता है.
दिल्ली स्थित डीसीएम श्रीराम लिमिटेड के स्वामित्व वाली ‘बायोसीड’- इसका ट्रायल करेगी. यह फसल विज्ञान में विशेषज्ञता वाली एक बायोटेक्नोलॉजी कंपनी है.
सिंह ने कहा कि अगर सब कुछ योजना के अनुसार रहा तो उन्हें उम्मीद है कि एचडी 3385 किस्म इस साल 2024 फसल के मौसम में बाजार में आ जाएगी.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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