scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होमदेश‘हम उन्हें कैसे छोड़ दें?’—प्रवासियों के लिए आगे आए कश्मीरी, सुरक्षित आसरा दिया, खाना भी पका रहे

‘हम उन्हें कैसे छोड़ दें?’—प्रवासियों के लिए आगे आए कश्मीरी, सुरक्षित आसरा दिया, खाना भी पका रहे

इस महीने तेज हुई आतंकी हमलों की घटनाओं में 11 नागरिकों की मौत के बाद कश्मीर में प्रवासी कामगार काफी डरे हुए हैं. लेकिन ‘90 के दशक के अपराध बोध’ का हवाला देते हुए कश्मीरियों का कहना है कि वे उनकी रक्षा के लिए जो भी करना संभव होगा वह करेंगे.

Text Size:

श्रीनगर: 50 वर्षीय सज्जाद अहमद ने सब्जी खरीदने के लिए बाजार जाने से पहले अपने कर्मचारियों से पूछा, ‘आज क्या खाओगे बताओ, मैं बनाएगा.’ फिर जब वह श्रीनगर के जैना कदल इलाके में स्थित अपनी दुकान से बाहर निकले तो दरवाजे पर बाहर से ताला लगा दिया.

ताकि सब लोगों को यही लगे कि यह परिसर खाली पड़ा है, यहां कोई नहीं है.

जैना कदल ईदगाह इलाके से कुछ ही किलोमीटर की दूर है, जहां शनिवार को आतंकवादियों ने एक गोलगप्पे बेचने वाले को एकदम पास से गोली मार दी थी. बिहार के बांका जिले का रहने वाला 30 वर्षीय अरविंद कुमार साह उन 11 नागरिकों में शामिल थे जिन्हें इस माह कश्मीर में आतंकी हिंसा की घटनाओं में अपनी जान गंवानी पड़ी.

मरने वालों में एक काफी लोकप्रिय फार्मासिस्ट—एक कश्मीरी पंडित, जिन्होंने आतंकवाद चरम पर होने के दौरान भी यहां से जाने से इनकार कर दिया था—दो टीचर (एक हिंदू और एक कश्मीरी पंडित) और तीन मुस्लिम शामिल हैं. बाकी पांच सभी प्रवासी श्रमिक थे जो अपनी आजीविका के सिलसिले में बिहार और उत्तर प्रदेश से यहां आए थे.

कश्मीर में हिंसा की हालिया घटनाओं में से कुछ की जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) की शाखा रेसिस्टेंस फ्रंट ने ली है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

हत्याओं की बाढ़ के बाद से बड़ी संख्या में प्रवासी कामगारों से कश्मीर से पलायन शुरू कर दिया है, जहां उन्हें अपने घर की तुलना में तीन गुनी मजदूरी के साथ लंबी अवधि के लिए काम मिलना सुनिश्चित हो रहा था.

प्रवासी मजदूरों के इस डर से वाकिफ सज्जाद अहमद जैसे तमाम स्थानीय निवासी अपने इन कर्मचारियों की रक्षा के लिए अपनी तरफ से तमाम उपाय कर रहे हैं—और जितना भी संभव हो सकता है उन्हें घर जैसा महसूस कराने की कोशिश कर रहे हैं.

प्रवासी कामगारों का कहना है कि इस कठिन समय में कश्मीरियों के आतिथ्य भाव वाले इन प्रयासों की बदौलत ही उन्हें यहां बने रहने में कुछ मदद मिल रही है.

लाल बाजार में काम करने वाले 32 वर्षीय राजमिस्त्री श्याम सुंदर यादव ने बताया कि वह उस समय उसी इलाके में काम कर रहे थे, जब पहले प्रवासी मजदूर वीरेंद्र पासवान की गोली मारकर हत्या की गई थी. हालांकि, उसने कहा कि उन्हें ‘स्थानीय लोगों की वजह से ही यह टिके रहने और अपना काम पूरा करने का साहस मिल रहा है.’

उसने कहा, ‘हममें से 10 लोग बिहार के मोतिहारी जिले के रहने वाले हैं और एक साथ ही काम करने के लिए घाटी में आए हैं.’

उसने बताया, ‘कश्मीरियों ने हमेशा हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया है, लेकिन अब वे हमारे लिए बहुत मददगार और अधिक रक्षात्मक हो रहे हैं, यहां तक कि हमारे लिए भोजन भी बना रहे हैं और काम के बाद हमें घर छोड़ रहे हैं. मैं बिहार के नौ अन्य लोगों के साथ हवाल इलाके में रहता हूं. हर दिन, या तो मेरे मालिक या हमारे बगल में रहने वाले स्थानीय निवासी यहां से लेकर जाते हैं और यहीं छोड़कर जाते हैं.’

उसने आगे जोड़ा, ‘अगर वे हमारे लिए कार या ऑटो की व्यवस्था नहीं कर पाते हैं तो उनमें से 4-5 लोग हमारे साथ कार्यस्थल तक जाते हैं. हर कोई मुझे मेरे नाम से जानता है, इसलिए अब मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ा है.’


यह भी पढ़ेंः पाकिस्तान में मौलवी और फौज के अलावा भी तालिबान को मिल रहा समर्थन


‘कश्मीरियों को मेरी चाट पसंद है’

कश्मीर में रहे रहे प्रवासी कामगारों का कहना है कि घाटी उनके लिए काम करने की एक बड़ी आकर्षक जगह है.

उनके मुताबिक, कश्मीर में बढ़ई, पेंटर और राजमिस्त्री जैसे कुशल मजदूरों को 500-600 रुपये प्रतिदिन तक मिलते हैं, जबकि यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में 250-300 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं. माना जाता है कि इन राज्यों से बड़ी संख्या में प्रवासी कामगार देश के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं. सरकार का अनुमान है कि पिछले साल कोविड लॉकडाउन के दौरान शहरों से घर लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों का 50 प्रतिशत हिस्सा तो इन्हीं तीन राज्यों के लोगों का था.

कामगारों ने बताया कि घाटी में चाट और गोलगप्पे बेचने वाले 400-500 रुपये प्रतिदिन कमाते हैं, जबकि बिहार और यूपी में 100-150 रुपये की ही आमदनी होती है.

प्रवासी कामगारों ने यह भी बताया कि उन्हें कश्मीर में महीने में कम से कम 20-25 दिन काम मिलना सुनिश्चित है, जबकि उनके गृह राज्यों में ऐसी कोई गारंटी नहीं है.

फिर कश्मीरियों के आतिथ्य सत्कार का भी कोई जवाब नहीं है, कई प्रवासी श्रमिकों ने इस बारे में दिप्रिंट को बताया. उन्होंने कहा कि बिहार और यूपी में मजदूरों को अपने खाने-पीने और रहने की व्यवस्था खुद ही करनी पड़ती है. कश्मीर में मालिक या ठेकेदार भोजन और आवास के लिए भुगतान करते हैं.

श्रीनगर के मध्य में स्थित टीआरसी बस स्टेशन पर चाट की दुकान चलाने वाले उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला निवासी 62 वर्षीय सुदामा प्रसाद ने कहा, ‘मैं यूपी में खेती-बाड़ी का काम करता था, और आप हमारे देश में किसानों की स्थिति तो जानते ही हैं. मजदूरी इतनी कम थी कि हमारा पेट भरने लायक भी गुजारा नहीं होता था.’

उन्होंने कहा, ‘इसलिए मैंने कोविड के बाद कश्मीर लौटने का फैसला किया. यहां, मैं महीने भर में 15,000-20,000 रुपये कमा लेता हूं, जो मेरे परिवार के लिए काफी है. साथ ही, स्थानीय निवासी भी हमारी बहुत मदद कर रहे हैं.’

ऐसा नहीं है कि घाटी के हालात का उन पर कोई असर नहीं हो रहा है. लेकिन जब प्रवासी कामगार वापस लौटने का विकल्प चुनते हैं, तो वित्तीय मजबूरियों का हवाला देते हैं, साथ ही कहते हैं कि उनका यहां के लोगों के साथ एक आत्मीय रिश्ता बन गया है.

यादव ने बताया कि वह कश्मीर ‘पिछले 12 वर्षों से आ रहे हैं और पुलिस थानों, सरकारी भवनों सहित कई इमारतें बनाई हैं लेकिन मैंने पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी.’

उन्होंने बताया, ‘यहां तक कि आतंकवाद चरम पर होने के दौरान भी प्रवासियों को इस तरह निशाना नहीं बनाया गया था. मैं काफी डरा हुआ तो हूं लेकिन काम पूरा करना है, नहीं तो दीपावली पर घर क्या ले जाऊंगा?’ साथ ही जोड़ा, ‘मैं अपने छह सदस्यों के परिवार में अकेला कमाने वाला सदस्य हूं.’

प्रसाद ने बताया कि वह ‘श्रीनगर में एक दशक से अधिक समय से चाट बेच रहे हैं’ और ‘कश्मीरियों को मेरी चाट पसंद है.’

उन्होंने कहा, ‘मैंने कश्मीर में बहुत बुरा समय देखा है, लेकिन मुझे लगा था कि सरकार के इतने दावों के बाद चीजें बदल जाएंगी. लेकिन अब तो और बदतर हो गई हैं. लेकिन कहीं न कहीं हम सभी अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों से बंधे हैं. अगर मैं लौट जाता हूं तो मेरी पत्नी और शारीरिक रूप से विकलांग बच्चे के लिए भूखों मरने की नौबत आ जाएगी.’

प्रसाद ने बताया कि वह तमाम प्रवासी कामगारों को हर दिन बसों से घर लौटते देखते हैं, लेकिन कश्मीरियों की तरफ से सुरक्षा के लिए उठाए जा रहे कदमों का हवाला देते हुए कहते हैं कि वह वापस नहीं लौटना चाहते.

उन्होंने बताया, ‘मेरे पड़ोसियों के बेटे मुझे हर दिन लेकर जाते हैं और मेरी दुकान तक छोड़ देते हैं. बस अड्डे पर सारे ड्राइवर मेरा काफी ज्यादा ख्याल रखते हैं. मानवीय आधार पर वे जितना भी कर सकते हैं, कर रहे हैं. बाकी सब भगवान की इच्छा है.’

साजिद अहमद घाटी में कढ़ाई का एक कारखाना चलाते हैं, जिसमें 20-25 प्रवासी श्रमिक कार्यरत हैं. इनमें से अधिकांश बिहार और उत्तर प्रदेश के हैं. इस महीने हत्याओं के सिलसिले में अहमद के कर्मचारियों ने कहा कि अपने कारीगरों को सुरक्षित महसूस कराने के लिए वह उनके साथ ही रह रहे हैं. उन्होंने कहा कि उनके लिए सब्जियां और अन्य जरूरी सामान अहमद ही लाते रहे हैं.

अहमद ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि अपने श्रमिकों की रक्षा करना उनकी जिम्मेदारी थी जिसे उन्हें पूरा करना था.

उन्होंने कहा, ‘अभी हम कश्मीरियों के लिए सबसे बड़ा मसला अपने प्रवासी कामगारों की सुरक्षा है. इन लोगों ने हमारे घर, गोदाम, दफ्तर बनाए हैं और वो कपड़े बनाते हैं जो हम बेच रहे हैं, ऐसे में जब उन्हें हमारी सबसे ज्यादा जरूरत है तो हम उन्हें कैसे छोड़ सकते हैं?’

उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने सभी कामगारों को स्थिति बेहतर होने तक गोदाम के अंदर ही रहने को कहा है. मैंने उनके कमरों में हीटर लगा रखे हैं. मैं उनके लिए रोजाना सब्जियां, साबुन, दवाइयां और अन्य जरूरत की चीजें लाता हूं ताकि उन्हें बाहर न जाना पड़े. मैं बाहर से दरवाजा बंद कर देता हूं ताकि ऐसा लगे कि अंदर कोई नहीं है.’

अहमद ने बताया कि उनकी पत्नी के घुटने में समस्या है और वह सर्दियों में मुश्किल से ही चल पाती हैं ‘लेकिन मैंने उनसे कहा है कि घर नहीं आने वाला हूं.’ उन्होंने कहा, ‘मैं अपने श्रमिकों के साथ तब तक रहूंगा जब तक उन्हें मेरी जरूरत होगी. मैं उन्हें अकेला नहीं छोड़ने वाला हूं. अगर जरूरत पड़ी तो मैं अपने लोगों के लिए गोली खाने को भी तैयार हूं.’


यह भी पढ़ेंः इमरान ने UNGA में फिर अलापा J&K का राग, भारत बोला-‘भोला-भाला बनकर पाकिस्तान खुद ही आग लगाता है’


‘वे हमारी रीढ़ की हड्डी हैं’

ईदगाह में काम करने वाले एक ठेकेदार समीर वानी ने बताया कि स्थानीय नागरिकों के लिए ‘प्रवासी श्रमिक रीढ़ की हड्डी की तरह हैं.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं हर साल अलग-अलग राज्यों से कम से कम 80-100 मजदूरों को कश्मीर लाता हूं. वे अपना काम पूरा करते हैं और कश्मीर में भीषण सर्दी शुरू होने से पहले निकल जाते हैं, लेकिन इस साल कुछ जल्दी लौट गए क्योंकि दहशत का माहौल है.’

वानी ने बताया, ‘लेकिन हमें उनका पूरा सहयोग मिल रहा है जो यहां रह गए हैं. मैं हर दिन व्यक्तिगत रूप से अपने प्रत्येक कामगार की खोज खबर लेता हूं. मैं अपने 5-6 दोस्तों के साथ मिलकर श्रमिकों के किराए के घरों पर उनके साथ समय बिताता हूं ताकि वो लोग सुरक्षित महसूस करें और उन्हें अपने घर जैसा माहौल लगे.’

वानी का कहना है कि अभी उनके लिए सुरक्षा का भरोसा सबसे ज्यादा अहम है.

उन्होंने आगे कहा, ‘हम भी आतंकवाद से पीड़ित हैं. हम आतंकियों को एक जोरदार और स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं कि उनकी हरकतों से किसी और को नहीं बल्कि कश्मीरियों को ही नुकसान हो रहा है. अगर यही हाल रहा तो कोई बाहरी व्यक्ति कभी कश्मीर नहीं आएगा और हम ऐसा नहीं चाहते हैं. इससे सबसे ज्यादा नुकसान स्थानीय लोगों को ही होगा. इसलिए, हम गैर-स्थानीय लोगों, खासकर प्रवासियों की सुरक्षा के लिए अपनी क्षमता के मुताबिक हरसंभव कोशिश कर रहे हैं.’

इंडस्ट्रियल एसोसिएशन ऑफ नॉर्थ कश्मीर के अध्यक्ष जावीद भट ने कहा कि यह उनका ‘नैतिक कर्तव्य और जिम्मेदारी है कि अपने प्रवासी कामगारों की रक्षा करें, चाहे वे किसी भी धर्म के हों.’

उन्होंने कहा, ‘सोपोर में एशिया की दूसरी सबसे बड़ी सेब मंडी है और हमारे पास कम से कम 8,000-10,000 प्रवासी कामगार हैं, जिनमें हर दिन आने वाले किसान, ट्रक चालक शामिल हैं. हमारे पास फर्नीचर, कपड़ा, स्टील ब्रिज, मैट, कढ़ाई सहित विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले सैकड़ों प्रवासी कामगार भी हैं, जिनमें से ज्यादातर बिहार और यूपी के हैं. और इनमें से कोई भी घाटी नहीं छोड़ने जा रहा है क्योंकि हम उनके साथ हैं.’

उन्होंने बताया, ‘हमने अपने उद्योग परिसर के अंदर ही क्वार्टर बनाए हैं जहां वे अपने परिवारों के साथ रह रहे हैं. खाना-पीना और साबुन से लेकर बच्चों के लिए किताबें तक, सारी चीजें उन्हें उनके कमरों के अंदर मुफ्त में उपलब्ध कराई जा रही हैं.’

उन्होंने कहा, ‘औद्योगिक संघ के कम से कम 15 सदस्य हर दिन व्यक्तिगत रूप से प्रवासियों का हालचाल लेने जाते हैं और हम अपने पैसे से उन्हें निजी सुरक्षा भी मुहैया करा रहे हैं. गेट हमेशा बंद रहते हैं और कोई भी उचित दस्तावेज दिखाए बिना प्रवेश नहीं कर सकता है. प्रवासी हमारे परिवार का हिस्सा हैं और हम अपने परिवारों की सुरक्षा के लिए हरसंभव कोशिश कर रहे हैं.’

अहमद कहते हैं कि अपने कामगारों की सुरक्षा के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे. उनका कहना है कि वह 1990 के दशक से अपराधबोध से ग्रस्त हैं.

उन्होंने कहा, ‘हम 1990 के दशक में आतंकवादियों द्वारा निशाना बनाए जा रहे पंडितों की पूरी तरह मदद न कर पाने को लेकर आरोपों और अपराधबोध के साथ जी रहे हैं. हम एक बार फिर आतंकवादियों की कायरतापूर्ण कार्रवाइयों के लिए खुद पर एक और दाग नहीं लगने दे सकते हैं. इस बार खुद अपनी निगरानी में रखकर किसी को मरने नहीं देंगे. सुरक्षा प्रदान करने के लिए जो कुछ भी हो सकता है, हम जरूर करेंगे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः कश्मीर में अल्पसंख्यकों की रक्षा हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य- ‘चूहे के बिल से निकालकर’ आतंकियों से करेंगे हिसाब-किताब


 

share & View comments