सिरमौर: सिरमौर जिले के भवाई गांव में एक सर्द रात के बीच कम्युनिटी सेंटर में खासी चहल-पहल दिखी. कम्युनिटी सेंटर दक्षिणी हिमाचल के ट्रांस-गिरि क्षेत्र में रहने वाली पहाड़ी जनजाति हट्टी समुदाय के लोगों से भरा था, और वे काफी उत्साहित नजर आ रहे थे. और उत्साहित हो भी क्यों न, उनकी सदियों पुरानी पहचान के साथ उनकी किस्मत बदलने जा रही थी. पुराने-से सोफे पर बैठे उनके नेता अमी चंद कमल ने दोहराया कि कैसे हट्टियों के सालों चले संघर्ष का फायदा अब जल्द ही अनुसूचित जनजाति के दर्जे के तौर पर इस समुदाय के बच्चों को मिलने वाला है.
कमल ने कहा, ‘आपके बच्चों को अब जल्द ही बिना किसी मुश्किल के स्कॉलरशिप, हॉस्टल, नौकरियां मिलने लगेंगी और वह दिन भी दूर नहीं है जब यह क्षेत्र भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में सेवाएं देने वाले अधिकारी तैयार करने लगेगा.’ इतना सुनते ही वहां मौजूद महिलाओं और पुरुषों ने जोरदार तालियां बजाईं.
एक रिटायर्ड प्रोफेसर और गैर-लाभकारी संस्था केंद्रीय हट्टी समिति के अध्यक्ष कमल, समुदाय के कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर हाल में नरेंद्र मोदी सरकार को यह समझाने में सफल रहे कि ट्रांस-गिरि क्षेत्र काफी दुर्गम होने के कारण हट्टी समुदाय के लोग विकास में पीछे रह गए हैं और उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा मिलना चाहिए. 14 हट्टी उप-जातियों में से 12 को अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा हासिल है. वहीं, प्रमुख जातियों में शुमार रही बाकी दो जातियों को अब एसटी माना जाएगा. यह एक ऐसा कदम है जिसे लेकर एक तरफ जहां उत्साह का माहौल है, वहीं पुरानी आशंकाओं ने भी घेर रखा है. बहरहाल, सरकार का यह कदम आगामी हिमाचल विधानसभा चुनावों में क्षेत्र की राजनीतिक दशा-दिशा में काफी बदलाव ला सकता है.
हट्टी मुख्यत: सिरमौर जिले के चार ब्लॉकों में दो नदियों टोंस और गिरि के बीच पड़ने वाले क्षेत्र में बसते हैं. यह समुदाय सिरमौर की रियासत का हिस्सा रहा है और इसका नाम हट्टी इसलिए पड़ा क्योंकि क्षेत्र के लोग अपने भोजन के लिए घरेलू सामान खरीदने के बदले स्थानीय स्तर पर उत्पादित सामानों को दूरदराज के हाटों में ले जाकर बेचते थे.
हालांकि, अब पक्की सड़कें इस क्षेत्र को राज्य के बाकी हिस्सों से जोड़ती हैं, और स्कूल और कॉलेज भी खुल गए हैं. लेकिन बुनियादी ढांचे का रखरखाव काफी खराब है. स्थानीय लोगों का कहना है कि भौगोलिक दृष्टि से इस क्षेत्र के दुर्गम इलाके में होने के कारण यहां विकास काफी देरी से हुआ. औपचारिक शिक्षा का दायरा बढ़ने से युवा लड़के-लड़कियों ने यहां से बाहर निकलना ही बेहतर समझा. जो खर्च वहन कर सकते थे, आगे पढ़ने और काम करने की तलाश में उन्होंने शिमला, सोलन और दिल्ली जैसे शहरों का रुख कर लिया.
हट्टी नेताओं का दावा है कि अब एक खास दर्जा मिलने से इस क्षेत्र के लिए धन आवंटन और विकास की संभावनाएं बढ़ेंगी.
उनकी पांच दशक से अधिक पुरानी मांग को इस साल के शुरू में केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा सरकारों ने पूरा किया. 13 अप्रैल को भारत के महापंजीयक (रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया, आरजीआई) ने हट्टी को अनुसूचित जनजाति के तौर पर पंजीकृत किया. कुछ महीनों बाद 14 सितंबर को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी इस पर मुहर लगा दी.
इस ऐतिहासिक जीत का जश्न मनाने के लिए हट्टी समुदाय के लोग राज्य में 12 नवंबर को प्रस्तावित चुनाव के लिए पूरे जोरशोर से प्रचार के मैदान में कूद पड़े हैं और चाहते हैं कि अपनी मांग पूरी होने के बदले भाजपा को भारी बहुमत से जिताएं.
रेणुकाजी विधानसभा क्षेत्र के शिवपुरी गांव में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कमल ने कहा, ‘उनका (भाजपा को) अहसान चुकाने का वक्त आ गया है. हमें उन्हें इतने बड़े बहुमत से जीत दिलानी चाहिए कि हर कोई हैरान रह जाए.’
हालांकि, आधिकारिक तौर पर कमल भाजपा से जुड़े नहीं हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में हट्टी समुदाय के लोग सिरमौर जिले के शिमला और सोलन के अलावा शिलाई, रेणुकाजी, पच्छड़ और पोंटा साहिब जैसे दुर्गम इलाकों वाले निर्वाचन क्षेत्रों का दौरा कर रहे हैं, जहां हट्टी आबादी काफी ज्यादा है. ये लोग खुले तौर पर भाजपा के पक्ष में लामबंद हैं.
किसी राजनीतिक झंडे और बैनर के बिना ही चार-पांच लोगों की टीम निजी वाहनों पर निकलती है, और वह इसे जन जागरण या लोगों के बीच जागरूकता अभियान कहते हैं. वे जो पर्चे बांटते हैं, उनमें बताया गया है कि एसटी का दर्जा मिलने से हट्टियों को क्या-क्या लाभ मिलेंगे.
भाजपा को उम्मीद है कि हट्टी समुदाय के समर्थन के बलबूते वह शिलाई और श्री रेणुकाजी जैसे कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ों में सेंध लगा पाएगी. प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे राजनीतिक दिग्गजों ने पिछले महीने यहां सार्वजनिक रैलियों के दौरान हट्टियों को एसटी दर्जे को एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर गिनाया था. इस दूरवर्ती जिले में यह एक प्राथमिक चुनावी मुद्दा भी बन चुका है.
वहीं, कांग्रेस इस कदम को एक छलावा बता रही है.
कांग्रेस नेता और रेणुकाजी से विधायक विनय कुमार ने कहा, ‘समुदाय को एसटी दर्जा देने की प्रक्रिया को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है. इसको लेकर लोगों में संशय भी बना हुआ है. यही नहीं, अगर भाजपा वास्तव में समुदाय को एसटी दर्जा देना चाहती थी, तो उसे यह कदम पहले उठाना चाहिए था न कि चुनाव से ऐन पहले.’
एक तरफ जहां हट्टी समुदाय के लोग एसटी का दर्जा मिलने से जीवन में बड़े बदलावों की उम्मीद कर रहे हैं, वहीं इसे लेकर समुदाय के एससी समूहों के साथ मतभेद भी खुलकर सामने आ रहे हैं. हट्टी समुदाय में आने वाले अनुसूचित जाति समूहों का कहना है कि भाजपा का यह कदम चुनावी हथकंडा है, जिसने हट्टियों का ध्रुवीकरण कर दिया है. यह समुदाय के भीतर एससी के अधिकारों को दबाने वाला भी साबित होगा.
दलित शोषण मुक्ति मंच के संयोजक और पच्छड़ निर्वाचन क्षेत्र से सीपीआई (एम) के उम्मीदवार आशीष कुमार ने कहा, ‘जिन हट्टी जातियों को एसटी का दर्जा मिलेगा, वे सवर्ण हैं. इस कदम से एससी हट्टियों को नुकसान होगा क्योंकि अत्याचार करने वाले अब एसटी होंगे. और एससी में आने वाले लोग अब उनके अत्याचारों के खिलाफ एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे.’
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यह दर्जा पाने के लिए लंबा संघर्ष किया
केंद्रीय हट्टी समिति के कमल और उनके सहयोगियों के लिए 24 अप्रैल को अपनी मांगों को लेकर गृहमंत्री अमित शाह से मिलने का कार्यक्रम जीवन में कभी-कभार ही मिलने वाले मौके जैसा था. लेकिन वे 20 मिनट देरी से पहुंचे. शिमला का उनका ड्राइवर दिल्ली की सड़कों पर रास्ता भटक गया था. समय तेजी से बीतता जा रहा था और मंत्री इंतजार कर रहे थे. हट्टी नेताओं ने अपनी कार छोड़ी और सुरक्षा बलों को असमंजस में डालते हुए अतिसुरक्षित नॉर्थ ब्लॉक में एकदम नाटकीय ढंग से रिक्शे में प्रवेश किया.
कमल ने बताया, ‘इसे लेकर प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने तो मजाक में यह तक कहा कि वे हट्टी हैं, दीवाली भी एक महीने देरी मनाते हैं.’
उन्होंने बताया कि पहाड़ों में हट्टियों के लिए यह कहना आम बात है, जो यह भी दर्शाती है कि आखिर ट्रांस-गिरि क्षेत्र कितना दूर है. पहले तो इस पहाड़ी इलाके में सड़क संपर्क मार्ग खराब होने के कारण तो खबरें भी बहुत देर से पहुंचती थी. हालांकि, स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्टिविटी ने अब इन दिक्कतों को थोड़ा दूर कर दिया है.
शिलाई के ही एक हट्टी राम सिंह चौहान ने कहा, ‘ऐसी किवदंती है कि राम के वनवास से अयोध्या लौटने की खबर एक महीने देरी से हट्टियों के पास पहुंची थी. इसलिए हमारी दीवाली भी एक महीने बाद होती है. इसे बूढ़ी दीवाली कहा जाता है.’
यह खबर कि हट्टी समुदाय को आरजीआई की तरफ से पहले ही पंजीकृत किया जा चुका है, समुदाय के नेताओं के गृहमंत्री से मिलने से पहले उन तक नहीं पहुंची थी.
कमल ने बताया, ‘हम एक प्रेजेंटेशन के साथ गए थे. लेकिन अमित शाह ने हमसे कहा, ‘आपने यहां तक आने की जहमत क्यों उठाई? आपका मामला पहले ही क्लियर हो चुका है. आपको तो वापस जाकर जश्न मनाना चाहिए’.’
जाहिर है कि यह पहाड़ों में उत्सव मनाने का ही समय था. लेकिन समुदाय को यह जीत बहुत आसानी से नहीं मिली है.
हिमाचल प्रदेश के हट्टियों को एसटी का दर्जा देने और ट्रांस-गिरि क्षेत्र को सुरक्षित क्षेत्र घोषित करने की मांग पहली बार 1967 में उठी थी, जब तत्कालीन उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड में) के जौनसार-बावर क्षेत्र में राज्य सरकार की तरफ से उसी समुदाय को यह दर्जा दिया गया था.
हट्टी समुदाय के लोगों ने दिप्रिंट को बताया कि तब से, हट्टियों का प्रस्ताव विचार के लिए कई बार आरजीआई के पास पहुंचा, लेकिन राज्य सरकार की तरफ से समुदाय के बारे में ठीक से अध्ययन न कराने और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव ने उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा.
केंद्रीय हट्टी समिति, सोलन के सदस्य कमल सिंह कमल ने कहा, ‘एक लंबे समय तक इस ट्रांस-गिरि क्षेत्र में कोई स्कूल-कॉलेज नहीं था. लगभग हर घर के लोग कमाने के लिए पलायन करते थे क्योंकि वहां की जमीन पर साल भर खेती नहीं हो सकती थी. आज भी स्थिति यह है कि अगर कोई बीमार पड़ता है, तो निकटतम अच्छा अस्पताल सोलन में ही है, जो यहां से कई किलोमीटर दूर है.’
राज्य के आदिवासी विकास विभाग के तहत आदिवासी अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान ने 2018 में अपनी रिपोर्ट में कुछ यही निष्कर्ष निकाला था. इस संस्थान ने लोकुर मानकों के आधार पर हट्टी समुदाय के बारे में व्यापक अध्ययन किया था, जिसमें भौगोलिक स्थिति के कारण अलग-थलग होना, आर्थिक पिछड़ापन, विशिष्ट संस्कृति और प्राचीन प्रथाएं चलती आना शामिल है. एससी-एसटी संशोधन पर 1965 की परामर्श समिति की रिपोर्ट को लोकुर समिति की रिपोर्ट के तौर पर जाना जाता है. इस रिपोर्ट में शामिल मानदंडों को ही लोकुर पैरामीटर कहा जाता है.
2018 के अध्ययन में पाया गया कि हट्टी अभी सामानों की अदला-बदली की प्रक्रिया यानी बार्टर सिस्टम अपनाते हैं क्योंकि गांव बाजारों से कटे हुए हैं और हर कोई कस्बों और शहरों तक जाने में सक्षम नहीं होता. समुदाय के लोग औपचारिक स्वास्थ्य सेवा तक पहुंचने के बारे में तभी सोचते हैं जब कोई गंभीर रूप से बीमार हो. अध्ययन में कहा गया, ‘गांवों में पक्की सड़कों का अभाव है, इसलिए बीमार लोगों को खाट पर ले जाना पड़ता है.’
इसमें आगे बताया कि ट्रांस-गिरि क्षेत्र में मामलों-विवादों को निपटाने के लिए सशक्त स्थानीय इकाई खुम्बलिस (उत्तर भारतीय राज्यों की खाप पंचायतों जैसी) ही प्राथमिक साधन है, आमतौर पर औपचारिक ढंगे से मुकदमे दर्ज नहीं कराए जाते हैं.
इस बीच, आधुनिकीकरण भी ट्रांस-गिरि क्षेत्र के कुछ इलाकों में सामान्य जनजीवन का हिस्सा बन रहा है. सड़क से सटे कई गांवों में अब गलियां बन चुकी हैं. साक्षरता दर बढ़ने के साथ (सिरमौर में साक्षरता दर 2001 में 70.39 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 78.8 प्रतिशत हो गई) ही लोग सरकारी और निजी नौकरियों के लिए शहर की तरफ रुख कर रहे हैं और अपनी कमाई का पैसा गांवों में भी ला रहे हैं. समृद्ध परिवारों के पास निजी वाहन हैं और उनके घर आधुनिक सुख-सुविधाओं वाले हैं.
हालांकि, नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रस्ताव अब भी उनके लिए काफी मायने रखता है.
भवाई गांव की तोता देवी ने कहा, ‘अगर सुरक्षित नौकरी का विकल्प मिलता है तो परिवारों को आगे ही बढ़ाएगा. अगर हमें यह मिल रहा है तो इसे न क्यों कहें? अगर हमें यह नहीं मिला, तो हम फिर से खेतों में घास काटने लगेंगे.’
हट्टी गांव में मिली-जुली संस्कृति भी नजर आती है. गांवों में कुछ जगह अभी भी बहुपति परिवार सुचारू ढंग से चल रहे हैं, वहीं, ऐसे कुछ युवा लड़के-लड़कियां ऐसे रिवाज को लेकर शर्मिंदगी महसूस करते हैं जिन्हें इस तरह के रिश्ते में रहे चाचा-चाची या दादा-दादी ने पाला-पोसा है.
शिमला में पढ़ रही बेयोंग गांव की 19 वर्षीय संजना शर्मा ने कहा, ‘यह सब पहले होता था जब निजी स्थान जैसी कोई अवधारणा नहीं थी. अब कोई भी एक से ज्यादा पार्टनर नहीं रखना चाहता. कोई भी अपने साथी को साझा नहीं करना चाहता.’
हट्टी गांवों में अब बुजुर्ग हो चुके कुछ पुरुषों और महिलाओं के लिए बहुपति प्रथा परिवारों को एकजुट रखने का एक तरीका थी, जब संसाधन सीमित होते थे और लोग जबर्दस्त गरीबी से जूझ रहे थे.
बेयोंग निवासी झुर्गी देवी, जिनके दो पति थे, ने कहा, ‘गांवों में भूमि जोत छोटी थी और पुरुष सदस्य काम करने के लिए अधिकांश समय दूर ही रहते थे. इसलिए, एक पत्नी होने से परिवारों के टूटने और भूमि भाइयों के बीच बंटने जैसी स्थिति नहीं आती थी.’
शर्मा ने बताया कि बहुपति प्रथा उस समय यहां आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल थी जब ट्रांस-गिरि क्षेत्र राज्य के अन्य हिस्सों से कटा हुआ था. पीढ़ियों के अंतर और बाहरी संस्कृति के असर ने अब हट्टी समुदाय में पारिवारिक इकाई के तौर-तरीके पूरी तरह बदल दिए हैं.
हालांकि, कुछ पारंपरिक प्रथाएं बरकरार हैं. जैसे सामुदायिक पर्वों के दौरान बकरे की बलि देना.
शिलाई के चोग गांव निवासी राम सिंह चौहान ने कहा, ‘हट्टी समुदाय में बकरे की बलि को अभी भी काफी सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है.’
उन्होंने आगे बताया, शादियों में रिश्तेदार दावत के लिए बकरी उपहार के रूप में लेते हैं. समुदाय के सबसे बुद्धिमान व्यक्ति को बतौर सम्मान बकरी का दिल परोसा जाता है. और हट्टी 11 जनवरी को भटिजोग नामक एक विशेष त्योहार मनाते हैं, जिसमें तमाम परिवार बकरी के मांस को सुखाते हैं और बिना रेफ्रिजरेशन के महीनों उसे वैसे ही बनाए रखने के लिए पारंपरिक तरीके से स्टोर करते हैं.
खुम्बलिस में किसी अंतिम समझौते पर पहुंचने और हट्टी समुदाय में सजा के तौर पर भी बकरी की बलि ही दी जाती है.
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अपने वोट की ताकत दिखाई
बहरहाल, इस साल के शुरू में हट्टियों का शांतिपूर्ण संघर्ष एक निर्णायक मुकाम पर पहुंच ही गया. समुदाय के नेताओं ने तीन महा-खुंबली यानी सार्वजनिक सभाएं कीं जिसमें उन्होंने कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के नेताओं को आमंत्रित किया. इस दौरान हट्टियों ने दो-टूक कह दिया कि जो भी पार्टी उन्हें एसटी का दर्जा देगी, समुदाय का सारा वोट उसी पार्टी को जाएगा. और अगर कोई भी पार्टी उनकी मांग पूरा नहीं करती है, तो हट्टी चुनाव का बहिष्कार करेंगे.
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने इस दिशा में एकदम तत्परता दिखाई और कुछ ही महीनों के भीतर ही, 2011 की जनगणना के मुताबिक, सिरमौर के 154 पंचायत क्षेत्रों में बसी 2.5 लाख की हट्टी आबादी भाजपा के पक्ष में लामबंद नजर आने लगी.
नोहराधर से हट्टी समिति के सदस्य रविंदर चौहान कहते हैं, ‘पार्टी ने कुछ ऐसा कर दिखाया जो असंभव था.’ उन्होंने बताया कि हट्टी समुदाय कैसे भाजपा के लिए जमीन तैयार कर रहा है. उन्होंने कहा, ‘यहां राजनीतिक नेतृत्व बहुत कमजोर रहा है. चाहे भाजपा हो या कांग्रेस दोनों लोगों को एकजुट नहीं कर सकी हैं.’
हट्टी सिरमौर जिले के पांच विधानसभा क्षेत्रों में से चार शिलाई, रेणुकाजी, पछाड़ और पोंटा साहिब में काफी तादात में हैं. शिलाई की 52, रेणुकाजी की 44, पच्छड़ की 34 और पोंटा साहिब की 14 पंचायतों में हट्टियों का दबदबा है.
हालांकि, कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ माने जाने वाले इस क्षेत्र में भाजपा ने 2012 में पच्छड़ में बढ़त हासिल की और 2017 और 2019 के उपचुनाव में भी इस सीट पर काबिज रही. पार्टी ने 2017 में पोंटा साहिब सीट भी जीती.
लेकिन रेणुकाजी और शिलाई निर्वाचन क्षेत्रों पर कांग्रेस ने अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है. रेणुकाजी में कांग्रेस ने 2012 और 2017 में लगातार दो चुनाव जीते. और शिलाई में पार्टी 1993 से लगातार चार बार जीतती रही थी. 2012 में उसने यह सीट भाजपा के हाथों गंवा दी लेकिन 2017 में फिर इसे वापस पाने में सफल रही.
रेणुकाजी और शिलाई में हट्टियों की अच्छी-खासी तादात होना कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने वाली साबित हो सकती है. कमल ने बताया कि ट्रांस-गिरि क्षेत्र की लगभग 66 प्रतिशत आबादी हट्टियों की है. इसमें एसटी का दर्जा पाने वाले भट और खश-कानेट की आबादी लगभग 1.6 लाख है और यह कांग्रेस को क्षति पहुंचाने वाली साबित हो सकती है.
शिलाई से कांग्रेस के उम्मीदवार और विधायक हर्षवर्धन चौहान ने कहा, ‘यह कदम (हट्टियों को एसटी दर्जा) ट्रांस-गिरि क्षेत्र में कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाने की एक कोशिश है. वे (हट्टी और भाजपा) मेरे निर्वाचन क्षेत्र में अमित शाह को लेकर आए. जाहिर है उनका इरादा कांग्रेस को उसके गढ़ में मात देने का है. अब यह तो समय ही बताएगा कि वे सफल होंगे या नहीं.’
इस बीच, भाजपा का दावा है कि इस समुदाय को एसटी का दर्जा देना चुनाव के लिहाज से कोई रणनीतिक कदम नहीं है.
शिमला से भाजपा सांसद और पच्छड़ के पूर्व विधायक सुरेश कश्यप ने कहा, ‘एसटी दर्जा देने की मांग पिछले करीब 50 सालों से की जा रही है, जिसे अब पूरा किया गया है. इस दिशा में कार्य पहले से ही चल रहा था. यह एक संयोग मात्र ही है कि चुनाव के समय ऐसा हुआ. यह सब केवल चुनावों को ध्यान में रखकर नहीं किया गया है.’
हट्टियों और भाजपा की तरफ से घर-घर प्रचार अभियान के दौरान लोगों को आश्वस्त किया जा रहा है कि इससे क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन आएगा, वहीं कांग्रेस इसे छलावा बता रही है.
रेणुकाजी के विधायक और उसी सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार विनय कुमार ने कहा, ‘जब संविधान के किसी अनुच्छेद में कोई संशोधन होता है, तो उसे संसद के दोनों सदनों से पारित कराया जाता है. ऐसे मामले पहले भी कैबिनेट में आ चुके हैं लेकिन लोकसभा और राज्यसभा में पास नहीं हुए. सदन का नेता बिना किसी शर्त किसी भी समय इसे वापस ले सकता है. भाजपा हट्टी समुदाय को गुमराह कर रही है.’
पार्टी का कहना है कि हट्टियों की तरफ से ट्रांस-गिरि इलाके को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने की भी मांग की जा रही थी. इसके बजाय, भाजपा सरकार ने समुदाय को एसटी का दर्जा दे दिया है.
चौहान ने दावा किया, ‘अब हट्टी समुदाय के लोगों को सर्टिफिकेट ही मिलेगा. अनुसूचित क्षेत्रों के विकास के लिए मिलने वाला पैसा नहीं आएगा. भाजपा नेता कह रहे हैं कि उन्होंने मांग पूरी कर दी है, लेकिन लोग उन पर भरोसा नहीं कर रहे.’
दिप्रिंट ने रेणुकाजी और शिलाई से भाजपा उम्मीदवारों से संपर्क साधने की कोशिश की, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली.
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जातियों में बंटे हैं हट्टी समुदाय के लोग
हट्टी समुदाय को एसटी का दर्जा मिलने की खबर ने इस समुदाय के आंतरिक मतभेदों को सामने ला दिया है. हट्टी समुदाय में आने वाली 14 जातियों में से केवल दो को एसटी का दर्जा दिया जाएगा जो कि भट और खश-कानेत हैं. अनुसूचित जाति का दर्जा रखने वाले 90,000 हट्टियों की तुलना में इन दोनों जातियों की आबादी काफी ज्यादा करीब 1.6 लाख है.
क्षेत्र में अनुसूचित जाति का दर्जा रखने वाला एक वर्ग इससे परेशान है कि उच्च जातियों को एसटी का दर्जा उन्हें उनके समकक्ष लाकर खड़ा कर देगा और एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम को बेमानी बना देगा, जबकि दूसरा समूह एसटी का दर्जा भी चाहता है और क्षेत्र के एक राजनीतिक दल के पक्ष में लामबंद हो गया है.
गैर-लाभकारी संगठन दलित सामाजिक मुक्ति मंच के संयोजक और सीपीआई (एम) के उम्मीदवार आशीष कुमार कहते हैं, ‘एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम निष्प्रभावी हो जाएगा. आज अत्याचार करने वाला एक राजपूत (खश-कनेत जैसा) आदिवासी हो जाएगा. इसलिए अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति इस अधिनियम के तहत किसी आदिवासी के खिलाफ मामला दर्ज नहीं करा पाएगा. कागज पर तो उच्च जाति का वह व्यक्ति एसटी हो जाएगा, लेकिन समाज में वह अभी भी राजपूत ही रहेगा.’
24 जुलाई को शिमला हाई कोर्ट में एससी का दर्जा रखने वाले हट्टी समुदाय के छह याचिकाकर्ताओं की तरफ से एक जनहित याचिका दायर की गई थी. उनका दावा है कि भट और खश-कनेत अच्छी आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में हैं और समृद्ध लोगों में आते हैं. इसलिए, लोकुर मापदंडों के अंतर्गत नहीं आते. उनके मुताबिक हट्टी शब्द का इस्तेमाल तीन सामाजिक समूहों राजपूत, ब्राह्मण और अनुसूचित जातियों के लिए होता है और इसमें कोई समरूपता नहीं है.
याचिकाकर्ताओं में से एक भगत राम बताते हैं, ‘जब से हमने जनहित याचिका दायर की है, उच्च जातियों ने हमारे साथ और अधिक भेदभाव शुरू कर दिया है. इस क्षेत्र में जातिवाद और छुआछूत बहुत ज्यादा है. समारोहों में हमारे लिए अलग बर्तन होते हैं, अगर हम प्रवेश करें तो मंदिरों को अशुद्ध मान लिया जाता है. और ऐसे मामले रिपोर्ट भी नहीं किए जाते.’
स्थानीय लोगों ने बताया कि सिरमौर में हट्टियों के इस तरह का जातिगत भेदभाव कई रूपों में सामने आता है.
रेणुकाजी निर्वाचन क्षेत्र में अनुसूचित जाति के एक हट्टी प्रेम चौहान ने बताया, ‘हमारे लिए जल स्रोत अलग हैं. हमारे श्मशान घाट भी अलग-अलग ही हैं. शादियों में एससी समुदाय से आने वाले हट्टियों के लिए अलग टेंट लगाए जाते हैं और उच्च जातियों के लोग हमें जिन बर्तनों में खाना परोसते हैं, उन्हे घरों में बाहर ही रखा जाता है.’
उन्होंने कहा कि दीवाली पर हट्टी समुदाय की निचली जातियों के लोगों से उच्च जाति के घरों में नृत्य करने और उनकी प्रशंसा वाले गीत गाने की उम्मीद की जाती है. चौहान ने कहा, ‘यह पुरानी प्रथा अभी भी चली आ रही है और अगर हम मना करते हैं तो हजार रुपये और एक बकरी का जुर्माना लगाया जाता है.’
इस बीच, दो महीने पहले ही बनी एक राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी (आरडीपी) ने ट्रांस-गिरि क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य में प्रवेश किया है, और यह भट और खश-कनेत के साथ अन्य जातियों को भी एसटी का दर्जा देने की मांग कर रही है.
रेणुकाजी से आरडीपी उम्मीदवार जगमोहन सिंह ने कहा, ‘हमारी मांग समानता है. हम एसटी दर्जे का विरोध नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि हट्टी समुदाय में ही आने वाली 12 अन्य एससी जातियों को भी समान दर्जा मिले. हमें भी एसटी में गिना जाए.’
गांवों में भाजपा और हट्टी नेता आमने-सामने हैं. हट्टियों को उम्मीद है कि एक बार एसटी का दर्जा मिलने के बाद उनकी आबादी क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक हो जाएगी. इसके बाद यह क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित घोषित हो सकता है.
लेकिन यह संभव हो इसके लिए उनकी सारी उम्मीदें भाजपा पर ही टिकी हैं.
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