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Thursday, 28 March, 2024
होमदेश'सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा'- सिनेमाई पर्दे पर जीवन की पूरी ट्रेजेडी उतार देने वाले गुरु दत्त

‘सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा’- सिनेमाई पर्दे पर जीवन की पूरी ट्रेजेडी उतार देने वाले गुरु दत्त

अभिनेता और फिल्मकार गुरु दत्त का सफर अलग रास्तों से गुजरता है, बावजूद इसके रे और दत्त का सिनेमा कई मायनों में एक सी धरातल पर जान पड़ता है.

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अपनी अलग तरह की सिनेमाई शैली और सिनेमा-शास्त्र के लिए चर्चित निर्देशक सत्यजीत रे बंगाल के ऐसे संपन्न परिवेश में पले-बढ़े, जिस कारण वो आगे चलकर सिनेमा जगत को समृद्ध करने में सफल रहे. चाहे वो सिनेमा में असल लोगों और माहौल को शामिल कर उसे पर्दे पर उतारना हो या विश्व सिनेमा का उन पर पड़ा प्रभाव हो. लेकिन ठीक इसके उलट अपनी खुद की शैली का लोहा मनवाने वाले अभिनेता और फिल्मकार गुरु दत्त का सफर अलग रास्तों से गुजरता है, बावजूद इसके रे और दत्त का सिनेमा कई मायनों में एक जैसे धरातल पर जान पड़ता है.

आज़ादी के बाद भारतीय अक्स को जिस नज़र से सत्यजीत रे का सिनेमा और महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया उभारती है और वैश्विक तौर पर चीज़ों को बयां करती है- वो एक ऐसी त्रासद हकीकत बताती है जिसका नेहरू का भारत उस वक्त सामना कर रहा था.

वहीं गुरु दत्त बंबई फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे और शुरुआती दौर में देवानंद के नवकेतन प्रोडक्शन के साथ मिलकर क्राइम फिल्में बना रहे थे. लेकिन 1957 में प्यासा फिल्म के जरिए गुरु दत्त ने अपने काम को अलग आयाम देना शुरू किया. वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण यानि कि गुरु दत्त ऐसे अभिनेता और फिल्मकार थे, जिन्होंने सिनेमाई पर्दे पर जीवन की पूरी ट्रेजेडी उतार दी.

औद्योगीकरण और शहरीकरण के दबाव में नेहरू के भारत में जहां एक तरफ भारतीय आधुनिकता के लिए जगह बन रही थी, वहीं दूसरी तरफ हाशिये पर पड़े लोगों की जिंदगी में बदलाव नहीं हो रहे थे. समाज के इसी असंतोष, पाखंड, भ्रष्टाचार, मुफलिसी को सामने लाने का काम प्यासा के सहारे गुरु दत्त ने पहले पहल किया.

इंडियन सिनेमा- अ वैरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन किताब के लेखक आशीष राजाध्यक्ष लिखते हैं कि गुरु दत्त को आज सिनेमाई मास्टर और आजादी के बाद के सिनेमा का बड़ा नाम माना जाता है. लेकिन दत्त को और बंगाली फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसे लोगों को उनके जीवनकाल में वो सम्मान नहीं मिल पाया.

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9 जुलाई 1925 को जन्मे गुरु दत्त अगर आज जिंदा होते तो वे 96वें बरस के होते. कश्मकश से भरे उनके सफर को दिप्रिंट  याद कर रहा है.


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‘सपने का बनना और टूटना’

गुरु दत्त पर किताब लिखने वाले लेखक-पत्रकार यासिर उस्मान लिखते हैं, ‘उनका जीवन उनकी फिल्मों की ही तरह दो हिस्सों में बंटे सपने की तरह था- एक सपने का बनना और फिर उसका टूट कर बिखरना.’

कागज के फूल की असफलता के बाद गुरु दत्त ने वीके मूर्ति से कहा था, ‘देखो न, मुझे डायरेक्टर बनना था, डायरेक्टर बन गया, एक्टर बनना था, एक्टर बन गया, पिक्चर अच्छा बनाना था, अच्छे बने. पैसा है, सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा.’

उस्मान अपनी किताब में लिखते हैं, ‘गुरु दत्त प्यासा फिल्म में बतौर अभिनेता दिलीप कुमार को लेने वाले थे. दिलीप साहब से इस बाबत बात भी हो चुकी थी लेकिन फिल्म ड्रिस्टीब्यूटर्स को लेकर बात न बन पाने के चलते उन्होंने इसमें काम नहीं किया और बाद में गुरु दत्त को खुद ही इस फिल्म में अभिनय करना पड़ा.

इसी तरह का वाकया उनकी कुछ फिल्मों मिस्टर एंड मिसेज़ 55, साहब बीवी और गुलाम, आर पार को लेकर भी हुआ. मिस्टर एंड मिसेज़ 55 में गुरु दत्त पहले सुनील दत्त को लेने वाले थे लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. साहब बीवी और गुलाम में भी गुरु दत्त अभिनय से हिचक रहे थे और इसलिए शशि कपूर और बिस्वजीत से उन्होंने संपर्क किया लेकिन अंत में उन्होंने खुद ही भूमिका निभायी.

साहब बीवी और गुलाम फिल्म के दौरान गुरु दत्त और उनकी पत्नी गीता दत्त के बीच रिश्ते काफी खराब हो चुके थे. निजी जिंदगी की परेशानियों के कारण दत्त ने इस फिल्म का निर्देशन अपने दोस्त अबरार अल्वी से करने को कहा जो उनकी लगभग हर फिल्म का हिस्सा हुआ करते थे.

इस फिल्म को बंगाल के मशहूर साहित्यकार बिमल मित्रा ने लिखा है. दत्त ने इस फिल्म में भी हमेशा की तरह वहीदा रहमान को लेने पर जोर दिया जो उनके और गीता दत्त के रिश्तों में खटास का एक बड़ा कारण थीं. उन दिनों गुरु दत्त इतने परेशान रहे कि उन्होंने दूसरी बार आत्महत्या का प्रयास किया. उन्होंने एक साथ 38 नींद की गोलियां खा लीं, हालांकि उनकी जान बच गई. इस फिल्म में वहीदा रहमान और गुरु दत्त आखिरी बार नज़र आए थे.


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‘घर न होने की तकलीफ से घर होने की तकलीफ और भयंकर होती है’

पाली हिल के खूबसूरत बंगले को लेकर गीता दत्त के मन में अंधविश्वास था. वो मानती थीं कि इस बंगले के कारण ही गुरु दत्त के साथ उनके रिश्ते खराब हो रहे हैं. गुरु दत्त ने अपने जन्मदिन की सुबह ही इस बंगले को तुड़वा दिया. इस बारे में उन्होंने बिमल मित्रा से कहा था, ‘घर न होने की तकलीफ से घर होने की तकलीफ और भयंकर होती है.’

उनके निजी जीवन का ये किस्सा साहब बीवी और गुलाम फिल्म के उस दृश्य से ठीक मिलता है जब वो बंगाल के एक पुराने सामंती जमींदारों की हवेली को तोड़ने के लिए मजदूरों को कहते हैं और चारों तरफ हवेली का मलबा बिखरा पड़ा होता है.

गुरु दत्त का सिनेमा और उनकी निजी जिंदगी इसी तरह कई मौकों पर एक जैसी नज़र आती है.


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गुरु दत्त की शानदार टीम

1951 में देव आनंद अभिनीत बाज़ी को गुरु दत्त ने निर्देशित किया, जिसकी खूब चर्चा हुई. इस सिनेमा ने दत्त को ऐसी शानदार टीम दी जिसे साथ लेकर उन्होंने आने वाले सालों में बेहतरीन फिल्में बनाई.

इस टीम में लेखक अबरार अल्वी, सिनेमेटोग्राफर वीके मूर्ति, संपादक वीईजी चव्हाण, ओपी नैयर और एसडी बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकार, गायकों में मोहम्मद रफी और गीता रॉय, शायरों में साहिर लुधियानवी और कैफी आज़मी शामिल थे.

गुरु दत्त की फिल्मों में जो कुछ चेहरे हमेशा देखने को मिलते हैं उनमें वहीदा रहमान, जॉनी वाकर, रहमान शामिल हैं.


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अंतिम समय

7 अक्टूबर 1964 को गुरु दत्त अपनी फिल्म बहारें फिर भी आएंगी की शूटिंग कर रहे थे. जिसमें वो एक रिपोर्टर की भूमिका निभाने वाले थे. इस फिल्म का एक मशहूर दृश्य है जिसमें रिपोर्टर अखबार की संपादक को कहता है, ‘आप इसे स्वीकार करे या न करें, ये रहा मेरा इस्तीफा. मैं जा रहा हूं.’ गुरु दत्त की मौत के बाद इस फिल्म में धर्मेंद्र ने उनका किरदार निभाया था.

उन दिनों इस फिल्म के आखिरी हिस्से पर अबरार अल्वी काम कर रहे थे और एक रात गुरु दत्त शांत होकर इसकी कहानी सुन रहे थे लेकिन उनका ध्यान कहीं और ही था. अपने अकेलेपन के बारे में अल्वी को दत्त ने बताया था और साथ ही फिल्म के आखिरी हिस्से को स्वीकृति भी दे दी थी.

इसके बाद 10 अक्टूबर को रात के करीब 12:30 बजे गुरु दत्त ने राज कपूर को फोन लगाया और उन्हें मिलने के लिए बुलाया. लेकिन रात ज्यादा होने के चलते उन्होंने अगली शाम आने का वादा किया. दत्त उन्हें अपनी फिल्म कागज के फूल दिखाना चाहते थे. उस रात बिना खाना खाए ही गुरु दत्त अपने कमरे में चले गए और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.

अगली सुबह गीता दत्त ने फोन किया तो उनके नौकर ने उन्हें बताया कि वो सो रहे हैं. गीता ने नौकर से गुरु दत्त को उठाने के लिए कहा तो उसने बताया कि दरवाजा अंदर से बंद है. गीता ने उसे दरवाजा तोड़ने के लिए कहा. उस रात के बाद गुरु दत्त अपने कमरे से फिर कभी वापस नहीं लौटे.

गुरु दत्त की बहन ललिता लाज़मी बताती हैं, ‘उनकी मौत का दृश्य, जहां वो लेटे हुए थे वो भी उनकी किसी फिल्म के सीन जैसा ही लग रहा था. उनके पास एक अधूरा हिन्दी का उपन्यास रखा हुआ था.’

ललिता ने बताया, ‘जब मैं गीता से मिली तो उसके पहले शब्द यही थे, लल्ली, मैं जानती हूं सब लोग इस मौत के लिए मुझे ही दोषी मानेंगे.’

कश्मकश और समाज के अंतर्विरोधों के बीच गुजरी गुरु दत्त की पूरी जिंदगी को प्यासा फिल्म के इस चर्चित गीत से समझा जा सकता है-

जला दो इसे फूक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…


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