scorecardresearch
Monday, 6 May, 2024
होमदेशसरकार ने SC को बताया कि क्यों नहीं बदला जा सकता सरोगेसी कानून, सामाजिक नियमों का दिया हवाला

सरकार ने SC को बताया कि क्यों नहीं बदला जा सकता सरोगेसी कानून, सामाजिक नियमों का दिया हवाला

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक हलफनामे में, सरकार ने कहा कि वाणिज्यिक सरोगेसी पर प्रतिबंध जैसे कई प्रावधानों में कोई बदलाव की आवश्यकता नहीं है. याचिकाकर्ता के वकील का कहना है कि सरकार का हलफनामा 'ठोस तर्क पर आधारित नहीं है'.

Text Size:

नई दिल्ली: आठ साल पहले डॉक्टर के पास एक रूटीन विजिट के दौरान, चेन्नई के एक 34 वर्षीय व्यक्ति को पता चला कि उसकी पत्नी गर्भाशय के कैंसर से पीड़ित है. 2021 में उसकी सर्जरी कराने से पहले, दंपति ने उसके दो भ्रूणों (एम्ब्रियो) को फ्रीज करने का फैसला किया. हालांकि, उन्हें पता था कि सिर्फ दो भ्रूणों के साथ गर्भधारण की उनकी संभावना काफी कम थी और उन्होंने इसके बजाय सरोगेसी का विकल्प चुनने का फैसला किया.

लेकिन जब तक ऐसा हो पाता सरोगेसी (रेगुलेशन) एक्ट, 2021 ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. कानून के मुताबिक उसकी पत्नी गर्भधारण के लिए अपना युग्मक (गैमीट), या अंडे की कोशिकाएं (एग सेल्स) प्रदान नहीं कर सकती थी.

कानून के खिलाफ याचिका दायर करने वालों में से उसके पति भी हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “हमें डोनर भ्रूण (एम्ब्रियो) की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन कानून हमें अनुमति नहीं देता है.”

उन्होंने पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका दायर की थी और इस मामले में अब तक दो बार सुनवाई हो चुकी है.

शीर्ष अदालत के समक्ष एक हलफनामे में, केंद्र सरकार ने सरोगेसी अधिनियम को “सामाजिक, एथिकल, मॉरल, लीगल और साइंटिफिक मुद्दों का अनूठा मेल” बताया था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

पिछले महीने केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा गया है कि कानून “सरोगेट मां के अधिकारों की रक्षा करते हुए बच्चे की बेहतरी सुनिश्चित करने के लिए सरोगेसी की प्रक्रिया में निहित परस्पर विरोधी हितों के सामंजस्य के लिए आवश्यक है”.

सरकार द्वारा दिए गए हलफनामे में जिसे दिप्रिंट ने देखा है, कहा गया है कि नेशनल असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नॉलजी एंड सरोगेसी बोर्ड ने सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के कई प्रावधानों को शिथिल करने के लिए याचिका में दिए गए सुझावों को समायोजित करने से इनकार कर दिया है.

बोर्ड, रिप्रोडक्टिव टेक्नॉलजी और सरोगेसी के मामलों में सहायता से संबंधित नीतिगत मामलों पर केंद्र सरकार को सलाह देने के लिए कानून द्वारा नामित अथॉरिटी है.

हलफनामे से यह भी पता चलता है कि बोर्ड ने याचिकाकर्ताओं द्वारा की गई कई मांगों से असहमति जताई है, जैसे कि अकेली महिलाओं (सिंगल वीमेन) को सरोगेसी का विकल्प चुनने की अनुमति देना और कानून के तहत युगल (कपल) की परिभाषा बदलना.

लेकिन जैसा कि अदालत की सुनवाई जारी है, चेन्नई निवासी जैसे याचिकाकर्ताओं के लिए समय निकलता जा रहा है, जो कहते हैं कि उनके पास केवल दो विकल्प हैं – सरोगेसी या गोद लेना.

उन्होंने कहा, “मेरे माता-पिता गोद लेने के विकल्प को स्वीकार नहीं करेंगे और मैं उन्हें सब कुछ बताने की स्थिति में नहीं हूं,” उन्होंने कहा कि अदालत अब 21 अप्रैल को मामले की सुनवाई करने वाली है.

दिप्रिंट से बात करते हुए, याचिकाकर्ता की वकील मोहिनी प्रिया ने कहा, “केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में अस्पष्ट और यांत्रिक तरीके से हमारी सभी दलीलों का जवाब दिया है, जो कि किसी ठोस संवैधानिक या कानूनी तर्क पर आधारित नहीं है.”

उन्होंने कहा, “इसके अलावा, याचिका में उठाए गए किसी भी साइंटिफिक और संवैधानिक मुद्दे का उनके द्वारा उत्तर नहीं दिया गया है, जिसका अनिवार्य रूप से तात्पर्य है कि उन पर कोई नियंत्रण नहीं है. बांझपन को अब WHO द्वारा एक बीमारी के रूप में वर्गीकृत किया गया है और हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर छह में से एक व्यक्ति बांझपन से पीड़ित है. ऐसी स्थिति में सरकार की नीतियों को प्रतिबंधित करने के बजाय सक्षम बनाने वाली होनी चाहिए, ताकि चिकित्सा प्रौद्योगिकी में उन्नति लाखों निःसंतान दंपतियों के जीवन को बेहतर बना सके.


यह भी पढ़ेंः 3,000 करोड़ रिकॉर्ड्स का डिजिटलीकरण, ऑनलाइन सुनवाई को बढ़ावा; eCourts फेज-3 लिए क्या है सरकार की योजना


सरोगेसी बोर्ड क्या कहता है

मोदी सरकार ने महिलाओं के प्रजनन अधिकारों की रक्षा के घोषित उद्देश्य के साथ सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 पारित किया. कानून न केवल कॉमर्शियल सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाता है, बल्कि असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नॉलजी (रेग्युलेशन) ऐक्ट 2021 (एआरटी अधिनियम) को मिलाकर, इसका उद्देश्य रिप्रोडक्टिव मेडिसिन के करोड़ों डॉलर के उद्योग को रेग्युलेट करना भी है.

अदालत के समक्ष याचिका में कानून में कई बदलावों की मांग की गई है, जैसे कि अविवाहित महिलाओं को सरोगेसी का विकल्प चुनने की अनुमति देना, सरोगेसी करवाने की चाह रखने वाले जोड़े की उम्र कम करना और कॉमर्शियल सरोगेसी की अनुमति देना.

केंद्र सरकार के हलफनामे में कहा गया है कि नेशनल असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी एंड सरोगेसी बोर्ड ने इस साल जनवरी में कानून पर चर्चा करने के लिए एक बैठक की और निष्कर्ष निकाला कि मौजूदा प्रावधानों में किसी भी बदलाव की आवश्यकता नहीं है.

बैठक के चर्चा किए गए बिंदुओं के मुताबिक, जिसे स्वास्थ्य मंत्रालय ने हलफनामे के साथ संलग्न किया है, बोर्ड का मानना है कि सामाजिक मानदंडों को देखते हुए, कानून अपने मौजूदा स्वरूप में “उपयुक्त प्रतीत होता है”.

प्रिया ने कहा, “सरोगेसी पर कानून आज जिस रूप में हैं, और जैसा कि केंद्र सरकार के हलफनामे से स्पष्ट है, सामाजिक स्वीकृति और नैतिकता पर अधिक आधारित प्रतीत होता है और एक तरह से बांझपन के लिए उपायों के लिए उठाए गए कदमों के प्रति खराब भावना को प्रदर्शित करता है, जो एक बिल्कुल पीछे ले जाने वाला दृष्टिकोण है.”

“वाणिज्यिक सरोगेसी पर पूर्ण प्रतिबंध, जो सरोगेट माताओं के शोषण को रोकने के लिए है, वास्तव में, उल्टा साबित होगा और सरोगेसी के लिए अंडरग्राउंड मार्केट को खोलेगा. अमीर बच जाएंगे और केवल गरीब और मध्यम वर्ग ही इन प्रतिबंधात्मक कानूनों के कारण पीड़ित होंगे.

मंत्रालय 23 से 50 वर्ष के बीच – वह आयु समूह जो कानून के तहत सरोगेसी का विकल्प चुन सकता है – के विवाहित जोड़े के अधिकारों को मान्यता देने के याचिकाकर्ताओं के विचार से भी सहमत नहीं था.

इसके अलावा, बोर्ड केवल उन महिलाओं को जो तलाकशुदा हैं, पति से अलग हो गई हैं, या विधवा हैं, उनके बजाय सभी सिंगल वीमेन को अनुमति देने के प्रस्ताव से भी असहमत था.

फिर, याचिकाकर्ताओं की युगल (कपल) की परिभाषा को, कानून के अनुसार जिसका अर्थ एक बांझ विवाहित जोड़ा है, को भी खारिज कर दिया गया.

स्वास्थ्य मंत्रालय के हलफनामे में कहा गया है कि बोर्ड सेकेंडरी बांझपन से पीड़ित जोड़ों को सरोगेसी का विकल्प चुनने की अनुमति देने पर भी सहमत नहीं था.

प्रिया ने कहा, “एक महत्वपूर्ण हालिया डेवलेपमेंट में, केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में एक स्पष्टीकरण जारी किया, जो अब एक संशोधित कानून है, कि विवाहित जोड़ों और एकल महिलाओं (विधवाओं और तलाकशुदा) के लिए सरोगेसी के लिए डोनर एग का उपयोग नहीं किया जा सकता है.”

उसने कहा, “ऐसा लगता है कि इस संशोधन को करने के लिए दिमाग का प्रयोग नहीं किया गया है और न केवल यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) का उल्लंघन है, बल्कि 99 प्रतिशत मामलों में मेडिकल जरूरतों के रूप में चुनाव के बजाय सरोगेसी के मूल उद्देश्य को भी अनिवार्यतः नकारता है.”

सरोगेसी कानून के अनुसार, एक दंपती के पास जैविक रूप से या गोद लेने या सरोगेसी के माध्यम से कोई भी जीवित बच्चा नहीं है, उन्हें सरोगेट बच्चा पैदा करने की अनुमति है.

यह उन दंपतियों के लिए भी एक अपवाद है, जिनके बच्चे मानसिक या शारीरिक चुनौतियों या जीवन खत्म करने वाले विकारों या ऐसी बीमारियों से पीड़ित हैं जिनका कोई स्थायी इलाज नहीं है. बोर्ड ने इस प्रावधान को बरकरार रखने का फैसला किया, हलफनामे से पता चलता है, यह तर्क देते हुए कि “सरोगेट के रूप में काम करने वाली महिलाओं के शोषण की संभावना को अधिकतम सुरक्षा सुनिश्चित करने” की आवश्यकता थी.

हलफनामे से पता चलता है कि एक सरोगेट मां पर उसकी उम्र, वैवाहिक स्थिति और जितनी बार वह सरोगेट हो सकती है, उस पर लगाई गई कठिन शर्तों को शिथिल करने की एक और मांग को भी खारिज कर दिया गया.


यह भी पढ़ेंः अमशीपोरा ‘मुठभेड़’: आजीवन कारावास के खिलाफ अपील में कैप्टन ने कहा- ‘मैंने आदेशों का पालन किया’


देरी, डर

केंद्र सरकार ने भले ही कानून को उसके मौजूदा स्वरूप में रखने का फैसला किया हो, लेकिन कुछ याचिकाकर्ताओं के लिए समय काफी तेजी से बीतता जा रहा है.

बेंगलुरु का एक 35 वर्षीय याचिकाकर्ता अब विदेश जाने पर विचार कर रहा है. उनकी पहली शादी से उनका एक 11 साल का बेटा है लेकिन दूसरे पति के साथ उनकी प्रिग्नेंसी प्रिम्च्योर डिलीवरी और नवजात बच्चे की मौत के साथ खत्म हो गई.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “डॉक्टरों ने हमें बताया कि ये जटिलताएं दूसरी बार आ सकती हैं, इसलिए हमने सरोगेसी के बारे में सोचा.”

हालांकि, कानून उसे सरोगेसी का विकल्प चुनने से रोकता है क्योंकि उसका एक बेटा है.

उसने पूछा, “मैं पहले से ही 35 साल का हूं. मैं और कितना इंतजार कर सकता हूं?”

ऊपर जिस चेन्नई निवासी का का जिक्र किया गया है उसके लिए, जैसे जैसे अदालत में सुनवाई हो रही है, एक और डर बढ़ता जा रहा है.

उन्होंने कहा, “मेरे परिवार को मेरी पत्नी के कैंसर के बारे में नहीं पता है. मुझे डर है कि अगर उन्हें पता चलेगा कि मेरी पत्नी बच्चे को जन्म नहीं दे सकती है तो वे मुझ पर दूसरी शादी के लिए दबाव डालेंगे.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः निलंबित इंदौर कॉलेज के प्रिंसिपल ‘हिंदूफोबिक’ किताब को लेकर दर्ज FIR को रद्द करने के लिए HC पहुंचे


 

share & View comments