नई दिल्ली: कर्नल लीना गुरव 16 साल से ज्यादा समय से भारतीय सेना में महिलाओं के लिए पदोन्नति की राह में रोड़ा बनने वाली दीवार को तोड़ने के लिए कठघरे में अकेली लड़ाई लड़ रही हैं.
स्थायी कमीशन की लड़ाई से लेकर प्रमोशन और पोस्टिंग तक गुरव 13 बार अदालत का दरवाजा खटखटा चुकी हैं. उनका मानना है कि नियमों के तहत यह उनका अधिकार है. और सबसे बड़ी बात, वह 12 बार विजयी होकर भी लौटी है.
उनके तेरहवें दौर की ये लड़ाई ब्रिगेडियर के पद पर उनकी पदोन्नति से जुड़ी है. अगर वह सफल हो जाती हैं, तो वह सेना की जज एडवोकेट जनरल (JAG) शाखा- यह कानूनी और अनुशासनात्मक मामलों से निपटती है – की प्रमुख होंगी. सेना में सेवारत किसी भी महिला अधिकारी के लिए एक असाधारण उपलब्धि होगी.
18 अक्टूबर को मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि ब्रिगेडियर के पद के लिए रिक्तियों के संबंध में सेना की नीति में अस्पष्टता के कारण मुकदमा दायर किया गया है. और फिर कोर्ट ने मौजूदा नीति और मानदंडों के आधार पर रिक्तियों की संख्या को फिर से निर्धारित करने का निर्देश दिया.
इस मामले के बारे में पूछे जाने पर सेना के सूत्रों ने यह कहते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मामला विचाराधीन है.
दिप्रिंट से बात करते हुए गुरव के वकील सुधांशु पांडे ने कहा कि सेना अधिकारी को अपने पूरे करियर में ‘निष्पक्ष और गैर-भेदभावपूर्ण’ तरीके से आगे बढ़ने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर किया गया है.
अपने 13 में से 10 मामलों में उन्होंने पदोन्नति के लिए, दो बार स्थायी कमीशन और एक बार पोस्टिंग के लिए लड़ाई लड़ी. जब आदेशों का पालन नहीं किया गया तो उन्होंने एक बार फिर से उसके लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था.
पूर्व सैन्य अधिकारी अमित कुमार ने वालेंटरी रिटायरमेंट लेने के बाद से वकील का पेशा अपना लिया था. उन्होंने ने दिप्रिंट को बताया कि गुरव का मामला बताता है कि सशस्त्र बलों में अभी भी महिला अधिकारियों को लेकर एक ‘रूढ़िवादी मानसिकता’ बनी हुई है.
कुमार ने कहा, ‘सेना में पदोन्नति के लिए खींचतान नई नहीं है, लेकिन गुरव का मामला असाधारण है. उन्हें हर बार अपनी पदोन्नति के लिए अदालत में लड़ना पड़ा है.’
उन्होंने कहा कि एक तथ्य यह भी है कि वह एक प्रशिक्षित वकील हैं, जिससे उन्हें कानूनी लड़ाई की रणनीति बनाने में मदद मिली.
कुमार ने बताया कि यह पहली बार नहीं है. बिना किसी स्पष्ट कारण के सर्विस से डिस्चार्ज करने या पात्रता मानदंडों को पूरा करने के बावजूद भी स्थायी कमीशन में जगह न मिलने के चलते कई अन्य महिला अधिकारियों ने भी अदालत का दरवाजा खटखटाया है. ऐसे मामले आम नहीं होते हैं.
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‘संस्थागत भेदभाव’
वकील गुरव 1996 में सेना के जेएजी विंग में शामिल हुईं थीं. वह 2014 में तब सुर्खियों में आई जब मेडिकल कोर के अलावा सेना की किसी शाखा में कर्नल का पद हासिल करने वाली पहली महिला अधिकारी बनीं.
यह उपलब्धि भी उन्हें लंबी और कड़ी कानूनी लड़ाई के बिना नहीं मिली थी.
तब बतौर मेजर गुरव ने पहली बार 2006 में मुकदमेबाजी का सहारा लिया. उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट में शॉर्ट-सर्विस कमीशन (एसएससी) के तहत सेना में शामिल होने वाली महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन का विकल्प चुनने का विकल्प दिए जाने को लेकर याचिका दायर थी, जैसा कि 14 साल की सर्विस के बाद उनके पुरुष समकक्षों के मामले में किया जाता है.
एसएससी के जरिए अधिकारी अपने कार्यकाल के अंत में विस्तार की मांग कर सकते हैं या सेना छोड़ सकते हैं, या स्थायी कमीशन के लिए आवेदन कर सकते हैं. कमीशन उन्हें रिटायरमेंट तक सर्विस करने की अनुमति देता है.
गुरव सहित याचिकाकर्ताओं ने अदालत को बताया कि महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन से वंचित करके लैंगिक भेदभाव को कायम रखा गया है.
मार्च 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने महिला अधिकारियों के पक्ष में फैसला सुनाया. भले ही फैसले को शीर्ष अदालत के समक्ष चुनौती दी गई थी, लेकिन बाद में फैसले पर रोक नहीं लगाई गई, जिसका मतलब है कि स्थायी कमीशन के लिए योग्य महिला अधिकारियों को सर्विस से रिलीज नहीं किया जा सकता है.
लेकिन उसके बावजूद गुरव को उसी साल सर्विस से रीलिज कर दिया गया, जिसकी वजह से वह एक बार फिर हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर हो गई. इस बार उन्होंने फोर्स के खिलाफ अवमानना कार्रवाई की मांग की थी. केंद्र सरकार ने इस मुकदमे को सुप्रीम कोर्ट में घसीटा, जहां अंततः कहा गया कि गुरव को नई नीति के तहत एक पीसी अधिकारी बनाया जाए. इसने शिक्षा कोर और जेएजी में सेवारत महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन खोल दिया.
गुरव जब दिल्ली में लैंगिक समानता के लिए लड़ाई लड़ रही थीं, तब उन्होंने 2007 में बॉम्बे हाई कोर्ट में एक और याचिका दायर की. उनका ‘अनौपचारिक रूप से’ मुंबई से लखनऊ की सेंट्रल कमांड यूनिट में ट्रांसफर कर दिया गया था.
यह तब किया गया जब उनकी डिलिवरी की डेट आस-पास थी और वह यात्रा करने की स्थिति में नहीं थी. इसके बाद उन्हें हाई कोर्ट से राहत मिली और वह मुंबई में ही रहीं.
गुरव के लिए स्थायी कमीशन मामले में उनकी सफलता सेना में लैंगिक भेदभाव के खत्म करने के लिए एक कानूनी यात्रा की शुरुआत थी.
उनके वकील पांडे ने कहा कि उनकी मुश्किल लड़ाई सेना के ‘रवैये और मानसिकता’ की वजह से होने वाले ‘संस्थागत’ भेदभाव को दर्शाती है. जैसाकि शीर्ष अदालत ने भी अपने कुछ फैसलों में इसका जिक्र किया है.
पद, पदोन्नति को लेकर विवाद
गुरव की सिस्टम के खिलाफ अगली लड़ाई तब शुरू हुई जब सेना ने उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल रैंक के लिए जेएजी की पदोन्नति परीक्षा नहीं देने दी. इसके बजाय उनसे बेसिक टेस्ट देने के लिए कहा गया, जो वास्तव में स्थायी कमीशन देने के लिए एक प्री-कंडीशन है.
गुरव ने तर्क दिया कि चूंकि वह पहले से ही एक पीसी अधिकारी हैं, तो उन्हें बेसिक परीक्षा में बैठने की जरूरत ही नहीं है. इसके बजाय उन्हें विभाग की पदोन्नति परीक्षा देने की अनुमति दी जानी चाहिए.
जब उन्हें कोई जवाब नहीं मिला, तो उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (एएफटी) में याचिका दायर की. एएफटी ने सेना से कहा कि वह उन्हें परीक्षा देने से न रोके और साथ ही अधिकारियों से उनकी रिप्रजेंटेशन का जवाब देने का निर्देश भी दिया.
सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. उनकी इस अपील को खारिज कर दिया गया. इसके बाद सेना ने उनके रिप्रजेंटेशन का जवाब में दोहराते हुए कहा कि गुरव को बेसिक परीक्षा देनी होगी.
इसके बाद गुरव इस मामले को फिर से अदालत में लेकर गई. जहां उन्होंने एएफटी और शीर्ष अदालत दोनों में जीत हासिल की.
लेकिन जीत के बावजूद गुरव को वह रैंक नहीं दी गई, जिसे वह पाना चाहती थीं. अधिकारी ने एक बार फिर से आदेश का पालन कराने के लिए एएफटी की ओर रुख किया. और फिर आखिरकार 2012 में उनकी बात को मान लिया गया.
इधर जब गुरव लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में अपनी पदोन्नति के लिए लड़ रही थी, तो वह अगले पद के लिए भी योग्य उम्मीदवार हो गई थीं. यह भी उनके और सेना के बीच विवाद का विषय बन गया.
पांडे ने दिप्रिंट को बताया कि सेना की 1991 की प्रशासनिक नीति के अनुसार, बैच के मुताबिक प्रमोशन देने पर विचार करने के लिए एक चयन बोर्ड का गठन किया जाता है. लेकिन गुरव के मामले में सेना ने उन्हें ‘गैर-कानूनी और मनमाने ढंग से’ उसी चयन बोर्ड में शामिल कर दिया, जो दो नए बैचों – 1993 और 1994 से संबंधित अधिकारियों के लिए था.
एक बार फिर, ‘भेदभावपूर्ण व्यवहार’ के खिलाफ गुरव की शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं की गई. तब उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट और फिर एएफटी का रुख किया. आखिरकार उनके पक्ष में फैसला सुनाया गया और इस जीत के साथ गुरव 2014 में जेएजी की पहली महिला कर्नल बनीं.
लड़ाई जारी है
सुप्रीम कोर्ट में मौजूदा मामले के बारे में बताते हुए, पांडे ने कहा कि पहले अदालती आदेशों के बावजूद सेना ने गुरव को ब्रिगेडियर के रूप में प्रमोट करने के लिए पहले बैच के अधिकारियों के साथ क्लब कर दिया.
उन्होंने कहा कि उनकी पदोन्नति की संभावना तब और कम हो गई जब सेना में उच्च अधिकारियों ने उनकी एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट (ACRs) पर उनकी आपत्ति को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. इसमें उन्हें ‘ल्यूक वार्म ग्रेडिंग’ दी गई थी.
उन्होंने कानून का सहारा क्यों लिया, यह बताते हुए पांडे ने कहा, ‘गुरव ने उस अधिकारी का भी विरोध किया था जिसने उसे दो ACRs लिखे थे. उनमें से एक पर उनकी आपत्ति को स्वीकार कर लिया गया था, जबकि दूसरी को खारिज कर दिया गया.’ वकील ने कहा कि इसके अलावा प्रमोशन के लिए तीन रिक्तियों की घोषणा करने के बजाय सिर्फ दो की घोषणा की गई थी.
हालांकि एएफटी ने ACRs पर गुरव की बात से सहमति जताई और उन्हें हटाने का आदेश दिया था. लेकिन उसने उनकी पदोन्नति पर नए सिरे से और निष्पक्ष विचार के लिए चयन बोर्ड का पुनर्गठन नहीं किया.
अन्य दो मसलों पर ट्रिब्यूनल ने गुरव के खिलाफ राय दी थी, जिसके लिए उन्होंने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया.
पिछले हफ्ते उनके मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने रिक्तियों की गणना को लेकर सेना में ‘स्पष्टता की कमी’ की बात कही और सेना को रिक्तियों की संख्या को फिर से निर्धारित करने का भी निर्देश दिया. और एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए कहा कि एक लेफ्टिनेंट जनरल के रैंक से कम का अधिकारी हलफनामा दायर नहीं करेगा.
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