हासन: कर्नाटक के हेलबिडु में एक असामान्य रूप से गर्म दिन पर, एक युवा जोड़ा, संभवतः शहर के होयसलेश्वर मंदिर परिसर में एक एक्सटेंडेड वीकेंड का आनंद लेते हुए, परफेक्ट सेल्फी के लिए तैयार है. किसी पूजा स्थल पर फ़ोन कैमरे का होना आम बात नहीं है, लेकिन यह कोई सामान्य मंदिर नहीं है – यह होयसल-युग की तीन पवित्र इमारतों में से एक है, जिसे हाल ही में इसे यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया है.
जब खुशहाल जोड़ा तस्वीरें खींच रहा था, पुजारी ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी से बुदबुदाते हुए कहा, “उन्हें इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं है. वे सिर्फ तस्वीरें लेना चाहते हैं,”
शानदार ‘होयसलों के पवित्र समूह’ में 12वीं और 13वीं शताब्दी के बीच निर्मित तीन मंदिर शामिल हैं – 1117 में बेलूर में चेन्नाकेशव, 1121 में हेलबिडु में होयसलेश्वर, और 1268 में सोमनाथपुरा में केशव. लेकिन जब से ये मंदिर सितंबर में यूनेस्को की प्रतिष्ठित विरासत सूची में शामिल हुए हैं, आस-पास के निवासियों की चिंता इस बात को लेकर बढ़ गई है कि उनकी समस्याएं और बढ़ेंगी. पहले से ही, उन्हें एएसआई और स्थानीय अधिकारियों द्वारा अपने घरों में कोई भी निर्माण कार्य करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. हेरिटेज टैग के साथ, उन्हें चिंता है कि प्रतिबंध और भी गंभीर हो जाएंगे.
62 वर्षीय कोटे श्रीनिवास ने कहा, जो चेन्नाकेशव मंदिर के पास 50/100 घर में रहते हैं, “मेरा घर दो सड़कों तक फैला है और एक कॉमर्शियल प्रॉपर्टी – शायद एक होटल या लॉज के निर्माण के लिए उपयुक्त – बनाने के लिए बेहतर है. लेकिन मुझे यहां कुछ भी करने की इजाजत नहीं है.”
एएसआई के नियमों के अनुसार, तीन होयसल मंदिरों जैसे संरक्षित स्मारकों के आसपास 100 मीटर का दायरा ‘निषिद्ध’ है, जिसका अर्थ है कि किसी भी परिस्थिति में कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता है; उस दायरे से 200 मीटर आगे ‘विनियमित क्षेत्रों’ में आते हैं जहां किसी भी निर्माण कार्य के लिए पूर्वानुमति की आवश्यकता होती है. यह साइटों के चारों ओर 300 मीटर का सुरक्षात्मक बफर जोन बनाता है. प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष (संशोधन और मान्यता) अधिनियम 2010 निर्दिष्ट करता है कि निषिद्ध क्षेत्रों में निर्माण की कोई अनुमति नहीं दी जाएगी.
एएसआई के बेंगलुरु सर्कल के अधीक्षण पुरातत्वविद् बिपिन चंद्र नेगी कहते हैं, “ये कानून यूनेस्को टैग के बाद नहीं आए हैं बल्कि पहले वाले हैं जिन्हें अब लागू किया जा रहा है. यहां तक कि जो स्मारक विश्व धरोहर स्थल नहीं हैं, उनमें भी बफर जोन के समान नियम हैं.”
होयसल वास्तुशिल्प कौशल की प्रतीक, ये इमारतें किसी उपहार से कम नहीं हैं. प्रत्येक दीवार सैकड़ों जटिल नक्काशी से परिपूर्ण है और उस समय की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है. यूनेस्को के विश्व धरोहर के ठप्पे ने इन मंदिरों के आकर्षण को बढ़ा दिया है, जिससे पर्यटन में उल्लेखनीय उछाल आया है.
होयसलेश्वर मंदिर के अधिकारी कुमार स्वामी ने दिप्रिंट को बताया, ”लंबे वीकेंड में हमें लगभग 25,000 पर्यटक मिले, जबकि पहले यह संख्या लगभग 3,000 थी.”
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‘होयसल’
होयसल साम्राज्य के उत्थान की कहानियां उतनी ही आकर्षक हैं जितनी कि इसके द्वारा छोड़े गए गौरवशाली चट्टानी मंदिर.
कन्नड़ लोककथाओं के अनुसार, सल नाम के एक युवक ने 12वीं शताब्दी की शुरुआत में अपने गुरु, जैन भिक्षु सुदत्त को एक क्रूर बाघ से बचाने के बाद राजवंश की स्थापना की थी. मुठभेड़ के दौरान, सुदाता ने सल को “होयसल (इसे मारो, सल)!” शब्दों के साथ प्रोत्साहित किया. जैसा कि सल ने लड़ा और अंततः जानवर को हरा दिया. सल बाद में एक शक्तिशाली राजा बन गया और उसने अपने वंश का नाम अपने गुरु के नाम पर रखा. यह पौराणिक लड़ाई क्रम होयसल साम्राज्य का प्रतीक भी है और इसे बेलूर के चेन्नाकेशव मंदिर में पाया जा सकता है.
‘बेंगलुरु‘ नाम की उत्पत्ति भी इसी तरह की है. होयसल राजा वीरा बल्लाल द्वितीय कथित तौर पर एक शिकार अभियान के दौरान भटक गए और धीरे-धीरे एक वृद्ध महिला की झोपड़ी पर जा गिरे. जब महिला ने भूखे राजा को उदारतापूर्वक उबली हुई फलियां खिलाईं, तो उन्होंने उस स्थान का नाम “बेंडा कल ओरू” (उबली हुई फलियों का शहर) रखा, जो बाद में बेंगलुरु में बदल गया.
साम्राज्य, जो शुरू में अपनी राजधानी बेलूर से शासित होता था, ने लगभग 350 वर्षों तक दक्षिणी कर्नाटक के अधिकांश हिस्सों पर शासन किया. इतिहासकार और होयसल काल के प्रति उत्साही डॉ. एन रमेश का कहना है कि बल्लाल के शासनकाल के दौरान लगभग 1,500 मंदिर और कल्याणी (टैंक) बनाए गए थे.
रमेश कहते हैं, “इस होयसल क्षेत्र के हर गांव में एक वीरा गल्लू या एक हीरो पत्थर और एक शशाना या एक शिलालेख पत्थर है.” वह उन कई लोगों में से हैं जिन्होंने मंदिरों को यूनेस्को की सूची में शामिल करने के लिए रैली की थी.
“हेलबिडु होरगे नोडु, बेलूर वोलगे नोडु (हेलेबिडु को बाहर से और बेलुरु को अंदर से देखें),” एक लोकप्रिय कन्नड़ कहावत है, जिसका प्रयोग अक्सर इन मंदिरों की उत्कृष्ट नक्काशी और स्थापत्य सुंदरता का वर्णन करने के लिए किया जाता है.
बेलूर का मंदिर, हिंदू दार्शनिक आचार्य रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित ‘पंच नारायण क्षेत्रों’ (भगवान नारायण के पांच मंदिर) में से एक है, चेन्नकेशव मंदिर के मुख्य पुजारी श्रीनिवास भट्ट कहते हैं, इस मंदिर की स्थापना तमिलनाडु के चोलों की हार की याद में और राजा बिट्टी देव या विष्णुवर्धन द्वारा हिंदू वैष्णववाद को अपनाने के लिए की गई थी. मूल रूप से जैन धर्म के अनुयायी, राजा बिट्टी देव रामानुजाचार्य के प्रभाव में महान ‘विष्णुवर्धन’ बने.
‘शादी का केक’
पुरातत्वविदों ने होयसल मंदिरों को तीन अलग-अलग शैलियों में वर्गीकृत किया है. पहले में एक गर्भगृह और एक नवरंगा (हॉल) शामिल हैं. दूसरा चोल, राष्ट्रकूट और चालुक्य वास्तुकला परंपराओं के प्रभावों को दर्शाता है, और तीसरा, अधिक शास्त्रीय, द्रविड़ और नागर वास्तुकला के तत्वों को जोड़ता है. पुरातत्वविद् एनएस रंगराजू, जो मैसूर विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं और प्राचीन मंदिरों के विशेषज्ञ हैं, कहते हैं कि अंतिम वर्गीकरण मंदिर के शिखरों (टावरों) पर आधारित है और इसे ‘वेसरा’ के नाम से जाना जाता है.
रंगराजू का कहना है कि होयसल मंदिर की जटिल और सूक्ष्म नक्काशी एक ‘विशेष पत्थर’ के कारण संभव हुई. इसमें क्लोराइट, टैल्क और एम्फिबोल्स की अलग-अलग मात्रा होती है और इसे आमतौर पर सोपस्टोन के रूप में जाना जाता है. उन्होंने आगे कहा, “यह पत्थर केवल [कर्नाटक के] हासन में हेमवती नदी के तट पर पाया जाता है. यह मिट्टी के नीचे पाया जाता है, नरम होता है (मिट्टी के नीचे) और ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर कठोर हो जाता है. पत्थर भी छिद्रपूर्ण नहीं है क्योंकि उसके अणु काफी सघन रूप से व्यवस्थित होते हैं, और यह बारीक नक्काशी और पॉलिशिंग के लिए अच्छा है.”
रंगाराजू का दावा है कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने इन मंदिरों को “नक्काशी के बिना एक इंच भी नहीं” के रूप में दर्ज किया है. हालांकि, रंगराजू कहते हैं, ब्रिटिश कला इतिहासकार और पुरातत्वविद् पर्सी ब्राउन अपने विवरण में एक कदम आगे बढ़ गए, उन्होंने सोमनाथपुरा के केशव मंदिर को “ट्रे पर रखा हुआ शादी का केक” कहा.
संपूर्ण केशव मंदिर एक प्लेटफॉर्म पर है जिसमें एक ‘त्रिकुटा’ या तीन गर्भगृह हैं. यहां बिना सिर वाली कई नक्काशी भी हैं, जिनके बारे में रंगराजू का कहना है कि ये उत्तरी सेनाओं का काम है, जिन्होंने प्रभुत्व जमाने के लिए स्थानीय कला और संस्कृति को नष्ट करने की प्रथा अपनाई.
रंगराजू कहते हैं, शैव और वैष्णवों ने एक-दूसरे के साथ-साथ जैन मंदिरों पर भी इसी तरह से हमला किया.
आज की बात करें तो, पर्यटकों ने अपनी खुद की कई ‘पत्थर की नक्काशी’ बनाई है, जिससे अधिकारियों को सख्त नियम लागू करने और चौबीसों घंटे निगरानी सुनिश्चित करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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