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Saturday, 11 May, 2024
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बॉलीवुड सितारों से लेकर UPSC कैंडीडेट और सुरक्षा गार्ड, क्यों बिहारी टैग इनका पीछा नहीं छोड़ता

बिहारियों के लिए महानगरों की ओर पलायन, अपनी परेशानियों को कम करने का सिर्फ आधा हिस्सा है. इसके बाद उन्हें वर्ग संघर्ष से जूझना पड़ता है.

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नई दिल्ली: बिहारी एक ऐसा शब्द है जिसे बहुत से लोग बड़ी लापरवाही से सामने वाले का अपमान करने के लिए बोल देते हैं, जैसे वह कोई गाली हो.

यह कमतर आंकी जानी वाली चीजों के लिए मानों एक उपशब्द बन गया हो और कहें तो लोगों के बीच वर्ग संघर्ष का दूसरा नाम भी. यह किसी जाति के बारे में नहीं है, यह कोई समुदाय या क्लास भी नहीं है, जैसा कि विशटाउन नोएडा में भव्या रॉय गुस्से में गार्ड का अपमान करते हुए बोलते हुए दिखाई दी थीं. दरअसल ‘बिहारी’ शब्द एक मुहावरा बन गया है. जब आपको किसी का अपमान करना हो या फिर अपने आपको बेहतर दिखाना हो तो बस ‘बिहारी’ बोल दीजिए. यह एक शब्द, आपके कटु भावों को बिना किसी लाग-लपेट के बयां कर देगा.

बिहार का कोई व्यक्ति ‘बिहारी’ कहने पर कैसे प्रतिक्रिया देता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह काम क्या करता है या फिर किस ओहदे पर बैठा है. अगर आप नोएडा में कंस्ट्रक्शन साइट पर काम कर रहे मजदूर हैं, तो शायद चुपचाप सह लेंगे. अगर आप दिल्ली में प्रॉपर्टी डीलर हैं, तो फिर बिहार के गौरवशाली मौर्य अतीत को बताकर उसका जवाब दे देंगे. और अगर आप विश्व स्तर पर प्रसिद्ध यूएस लेखक अमिताभ कुमार हैं, तो आप इसे पूर्वाग्रह कहेंगे और बिहारियों की उनके ‘प्रोविंशियल कॉस्मोपॉलिटनिज्म’ के लिए उनकी तारीफ करेंगे.

नोएडा के हाल ही में वायरल वीडियो में एक संभ्रांत महिला बहुत सारे अपमानजनक शब्दों के अलावा सुरक्षा गार्ड को ‘बिहारी’ कहकर गाली देते हुए नजर आ रही थी. वीडियो ने एक बार फिर से इस बहस को छेड़ दिया कि भारतीय महानगरों का बड़ा संभ्रांत समाज ‘बिहारी’ शब्द को क्यों ‘पिछड़े’, ‘अनपढ़’, और ‘गंवार’ व्यक्ति से जोड़ कर देखता है.

अगर आप सोच रहे हों कि भारतीय अभिजात्य वर्ग के लिए एक ‘साधारण बिहारी’ के प्रति यह रवैया नया है, तो ऐसा बिल्कुल नहीं है. लंबे समय तक, बीमारू राज्यों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला ‘बी’ बिहार या कहें कि ‘बेरोजगारी’ के लिए था. निश्चित तौर पर यह उस पिछड़ेपन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला शब्द था, जो शाश्वत और अपरिवर्तनीय था. आज यह ‘बी’ ‘बेरोजगार बिहार’ और ‘बढ़ता बिहार’ के बीच फंसकर रह गया है. महत्वाकांक्षी, मेहनती प्रवासी बिहारी से लेकर, बॉलीवुड सितारों, यूपीएससी उम्मीदवारों और सुरक्षा गार्ड तक, हर ओहदे पर आपको बिहार से जुड़ा शख्स नजर आ जाएगा.

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अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने इस स्थिति को सहजता से कैप्चर करते हुए कहा, ‘एक बिहारी के कमरे में आने से पहले ही उनका बिहारीपन सामने आ जाता है.’ उनकी यह बात गर्व और दुर्दशा दोनों का संकेत देती है. वह आगे कहते हैं, ‘लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते.’


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सांस्कृतिक हीनता

एक ऐसे राज्य के लिए, जहां रहने वाले 50 फीसदी परिवार अपना गुजर-बसर करने के लिए पलायन कर जाते हैं, उस राज्य के बाहर और अंदर दोनों जगह ‘पहचान’ की राजनीति हमेशा जनता की कल्पना पर हावी रहती है. जहां पहले यूपी वालों को मजाक में ‘भैया’ कहा जाता था, तो बिहार वाले सिर्फ ‘बिहारी’ थे. या फिर अगर आप 1980 और 1990 के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय में सेंट स्टीफंस के छात्र रहे हों तो आपको पता होगा कि तब यह शब्द सिर्फ ‘हैरीज़’ था. जेएनयू में बिहारी छात्र होने का मतलब था कि आप राजनीति की बहस में किसी को भी हरा सकते हो. बिहार आखिरकार भारतीय राजनीति और राजनीतिक विचारों की प्रयोगशाला रहा है.

योगेंद्र यादव ने हाल ही में एक दोस्त के हवाले से लिखा, ‘भारत का इतिहास अनिवार्य रूप से बिहार का इतिहास है.’

कुछ समय पहले, राजनीतिक स्तर पर इसे लेकर काफी कहा-सुनी भी हुई थी- 2008 में जब लालू देश के रेल मंत्री थे तो उन्होंने राज ठाकरे के घर के बाहर छठ पूजा मनाने का आह्वान किया था. तो वहीं नीतीश कुमार ने 2015 में सीएम के डीएनए के बारे में अपमानजनक टिप्पणी को लेकर पीएम मोदी के आवास पर 50 लाख बिहारियों के डीएनए नमूने भेजने की बात कही थी.

बिहार के पूर्व और मौजूदा समय के सीएम की ये बातें या तर्क बिहार की लोगों की पहचान बनाने और दुर्भाग्यपूर्ण रूढ़ियों को चुनौती देने के लिए थीं.

‘ए क्लास एनालिसिस ऑफ द बिहारी मेनस’ नामक शोध पत्र लिखने वाले, ब्रिटिश एकेडमी न्यूटन इंटरनेशनल फेलो डॉ अवनीश कुमार कहते हैं, ‘यह सांस्कृतिक हीनता उच्च जातियों/वर्ग द्वारा राज्य के अंदर और बाहर एक साजिश थी.’ वह आगे बताते हैं, ‘हां, औपनिवेशिक काल में भी पलायन हुआ था लेकिन 90 के दशक में जब नई राजनीति का उदय हुआ तो यह समस्या और बढ़ गई. किसने इसे प्रसारित किया और मान्यता दी ? शायद, बड़ी-बड़ी सोसायटी में रहने वाली उच्च जातियों या शहरी वर्ग ने.’

बिहार में नई राजनीति?

लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय स्तर पर उछले मामले के अलावा भी, 1990 के दशक में बहुत कुछ हुआ था. आर्थिक उदारीकरण के साथ, श्रम-उत्पादक राज्यों और औद्योगीकृत राज्यों के बीच असमानता भी बढ़ गई और इसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया. नए भारत की कहानी में बिहार को बहुत कुछ करना था, भले ही वह राष्ट्रीय राजनीति में पहले से बहुत कुछ करता आया हो – छपरा के बाबू जेपी और लोहिया की समाजवादी राजनीति से लेकर मंडल तक, लालू की बहुलवादी राजनीति के आक्रामक बचाव से लेकर नीतीश कुमार की साइकिल और शराब कल्याण तक.

राज्य के बाहर नियुक्त एक बिहारी ब्यूरोक्रेट ने कहा, ‘राज्य को हरित क्रांति, 90 के दशक के आर्थिक उदारीकरण, या आईटी बूम से कोई लाभ नहीं हुआ. जबकि दक्षिणी राज्यों ने इनसे काफी कुछ हासिल किया था. आप देख लीजिए कि एक तमिल व्यक्ति दिल्ली में रहते हुए एक बिहारी की तुलना में ज्यादा आत्मविश्वास से भरा मिलेगा.’

इस पर पंकज त्रिपाठी की राय कुछ अलग है. वे कहते हैं, ’90 के दशक में टीवी चैनलों को बिहार में क्राइम रिपोर्टिंग के लिए काफी चारा मिलता था. हिंदी सिनेमा में एक बिहारी का किरदार भी शायद इस हीनता का कारण बना, मसलन एक खलनायक या भ्रष्ट व्यक्ति को ज्यादातर ‘बिहारी’ भाषा बोलते दिखाया गया.’

90 के दशक के दौरान बॉलीवुड को एक ऐसी भाषा, व्यवहार और निचले तबके के पात्रों की तलाश थी, जिसे लोगों के बीच आसानी से बेचा जा सके. और उनकी तलाश एक बिहारी किरदार पर आकर रूक गई. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कैरेक्टर किस जगह से जुड़ा था या किस क्षेत्र सा आया था, बस उसे बिहारी खाका पहनाकर पेश कर दिया गया.

त्रिपाठी कहते हैं, ‘हम अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनते है कि वह बिहारी भाषा बोल रहा है. लेकिन वास्तव में वहां ऐसी कोई भाषा है ही नहीं. भोजपुरी, मगही, मैथिली भाषा तो है लेकिन बिहारी भाषा नहीं है.’ उन्होंने कहा कि इसका इस्तेमाल लोगों को चिढ़ाने के लिए किया जाता रहा है.

यह साफ है कि इस ‘बिहारी’ शब्द का संबंध ‘आर्थिक असमानता’ को लेकर तो नहीं ही है. एक आईएएस अधिकारी और एक आईटी इंजीनियर का भी बिहारी कहकर मजाक बनाया जाता है. हालांकि यह मजदूर वर्ग है, जो हर रोज इस शब्द के अपमान का घूंट पीता है. लेकिन इससे महत्वाकांक्षी आईआईटी छात्र को भी बख्शा नहीं जाता है.

पटना के एक आईआईटीयन और राजनीतिक रणनीतिकार शशांक शेखर ने दिप्रिंट के साथ यह किस्सा साझा किया, ‘मेरे कॉलेज के दिनों में मेरा एक साथी कहा करता था कि वह पुणे का रहने वाला है, जबकि वह पटना से था. वही शख्स आज 50 लाख रुपये से ज्यादा कमा रहा है, लेकिन हमारे कोर कॉलेज ग्रुप के लिए आज भी उसकी पहचान पुणे वाले लड़के की है.’

वे कहते हैं, ‘तो इस अपमान का आर्थिक विकास से कोई लेना-देना नहीं है.’

आत्म विश्वास का कमी बिहार के लोगों के लिए कोई नई बात नहीं है. लगभग हर राज्य के लोग जब दूसरे राज्यों या बड़े शहरों में आते है तो कुछ हद तक उनमें झिझक होती है. जातीय और भाषाई पहचान के आधार पर राज्य के गठन का एक यह एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा है. लेकिन बिहार इससे कहीं ज्यादा पीड़ित है. अपमान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला ‘बिहारी’ शब्द वर्ग, जाति, भाषा से परे है.

शालीमार बाग में रहने वाले समस्तीपुर के एक प्रॉपर्टी डीलर सुबोध बिहारी कहते हैं, ‘शुरुआत के कुछ सालों में जब मेरी पहचान को लेकर मजाक किया जाता था तो मैं उन्हें अपने राज्य के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ बिहारी कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत और ईमानदारी का हवाला देता था. लेकिन उनको दिया गया यह जवाब आत्मविश्वास की वजह से नहीं था बल्कि एक भावनात्मक पहलू था.’


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प्रोविंशियल कॉस्मोपोलिटन

बिहार की कहानी के एक से ज्यादा पक्ष हैं. विशेष रूप से नए भारत में सिर्फ संस्कृति ही उसके बारे में नहीं बताती है..

राजद सांसद प्रोफेसर मनोज के झा ने कहा, ‘एक मजदूर सिर्फ महानगरीय पहचान तक सीमित नहीं है. वर्कर एक कम्यूनिकेटर, नेगोशिएटर और ऑर्गेनाइजर तो ही है. लेकिन साथ ही वह संस्कृति के वाहक भी हैं. आप चाहें तो उन्हें एक राजदूत भी कह सकते हैं. और यह एकतरफा आदान-प्रदान नहीं है’ उन्होंने आगे कहा, ‘वे घर और मेजबान संस्कृतियों को एक-जगह से दूसरी जगह लेकर जाते हैं. अब चाहे वह संगीत हो, भोजन हो या फिर साहित्य.’

मनोज बाजपेयी का एक भोजपुरी रैप बिहार के उन लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा को अच्छी तरह से दर्शाता है जो भारत -सड़कों, महानगरों, गगनचुंबी इमारतों – का निर्माण करते हैं और अपने समाज और परिवार को पीछे छोड़ने की कीमत पर स्थानीय अर्थव्यवस्था में आत्मसात करते हैं. गाने की एक पंक्ति बड़े शहरों में बिहारियों के साथ रोजाना होने वाले सामाजिक अलगाव के बारे में बात करती है: ‘मैं महानगरों के तौर-तरीकों को नहीं समझता, इसलिए मुझे बार-बार डांटा जाता है.’ बाजपेयी ने अपने इस गीत को भोजपुरी में गाते हुए, दो वर्ग की अलग-अलग दशा को बयां किया है.

फिल्म निर्माता प्रकाश झा भी बिहार से ताल्लुक रखते हैं. वह थोड़े शब्दों में अपनी बात रखते हुए कहते हैं, ‘भारत के लिए बिहार क्या है, भारत दुनिया के लिए क्या है.’

छठ पुनर्जागरण ने बिहारियों के राजनीतिक और सांस्कृतिक उठाव में एक बड़ी भूमिका निभाई है. छठ ने एक ‘प्रवासी मजदूर’ के बोझिल टैग को बदल दिया है. छठ में मेजबान शहर और राज्य उनकी उपस्थिति का जश्न मनाते हैं. अपनी बड़ी संख्या के चलते और मेजबान शहर की आर्थिक गतिविधि में उनकी भूमिका को देर मिली से लेकिन महत्वपूर्ण मान्यता ने उन्हें एक राजनीतिक और आर्थिक जरूरत बना दिया है.

अमित्व कुमार ने बताया, ‘हमने अपना अतीत नहीं छोड़ा है. भारत भर में फैले बिहार की महिलाएं और पुरुष विभिन्न महानगरों में छठ पूजा करते हैं.’ वह आगे कहते हैं, ‘एक ग्रामीण अतीत के संकेत, बांस की झाड़ियां और चूल्हे जैसे शब्द, मॉरीशस और त्रिनिदाद जैसी जगहों पर भी मिल जाएंगे.’

वैकल्पिक सांस्कृतिक स्थान

भारत में आजकल हर बहस की तरह, बिहारी पहचान के लिए भी एक सोशल मीडिया एंगल है.

इंस्टा रील्स, यूजरनेम और ट्विटर थ्रेड्स पर एक नज़र भर डालने से, आपको नई पीढ़ी के बिहारियों की एक वैकल्पिक जगह दिख जाएगी, जहां वो अपनी संस्कृति का बखान करते हैं.

कभी-कभी वे कविताओं में अपने बिहारीपन पर हक जताते और अनाकर्षक कहे जाने पर वे अपनी सेक्सुअलिटी पर इतराते नजर आएंगे. लेकिन कई बार उन्हें इसके लिए शर्म भी आती है.

यह वैकल्पिक स्थान, सोशल मीडिया पर साझा किए गए कैमूर के सुरम्य स्थानों, गया और नालंदा के पर्यटन केंद्रों में दिखाई देता है, नीतीश-लालू के चुटकुलों और यूपीएससी के मीम्स में है. और स्थानीय व्यंजनों जैसे ठेकुआ, दाल पीठ और लिट्टी चोखा में भी. तीज और छठ जैसे त्योहार भी सामूहिक विश्वास का प्रतीक बन गए हैं.

इंस्टाग्राम पर ‘बिहार से हैं’, ‘एक्सप्लोर बिहार’, ‘बिहारी हैं’,’ प्राउड बिहारी’ जैसे पेजों के लाखों फॉलोअर्स हैं और कमेंट सेक्शन ‘बीमारू स्टेट’ टैग से फ्री होने की आकांक्षा से भरा होता है.

ये पेज भारत के सामने वैकल्पिक पहचान को पेश करने के प्रयास में बिहारियों की ‘धारणा में बदलाव’ के प्रतीक हैं. और अपने गृह राज्य से दूर रहने वालें इनका बारीकी से पालन करते हैं. लोग ‘बदलाव’ को ट्रैक करते हैं – अब चाहे वह आने वाले स्टार्टअप के बारे में एक अपडेट हो, एक नया हवाई अड्डा या अपने संबंधित शहर में एक रेस्तरां हो.

आंध्र प्रदेश की एक महिला ऐश्वर्या सुब्रमण्यम के एक हालिया ट्वीट ने बिहारियों को अनाकर्षक बताया. तो एक GEN Z ने उसी तरह से उसका जवाब दिया. भला कैसे? सभी बिहारी पुरुषों की ओर से उसका ‘धन्यवाद‘ करते हुए.

नीति आयोग के गरीबी सूचकांक के अनुसार, 51.91 प्रतिशत आबादी के साथ बिहार को भारत के सबसे गरीब राज्यों में वर्गीकृत किया गया है. 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की साक्षरता दर 61.8 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय साक्षरता दर में सबसे कम है. नीति आयोग ने स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में भी बिहार को सबसे निचले पायदान पर रखा है.

कुमार कहते हैं, ‘आप सामान्य से अलग दिखने वाली बिहारी हस्तियों को स्वर्ग जैसे एक गांव के बारे में बात करते हुए देखेंगे. जहां वह आमों को तोड़ने, नदी के किनारे टहलने और खाट पर लेटने के अपने अहसास को बयां करते हैं. लेकिन एक साधारण बिहारी मजदूर ऐसा नहीं कर पाता है. मध्यम वर्ग या अभिजात वर्ग के दिल में साधारण बिहारी की तस्वीर एक फल विक्रेता, एक मजदूर की ही है.’


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‘एक बिहारी, सब पे भारी’

अगर प्रवासन गीतों को छोड़ दें जिनमें पूरब का जिक्र है. तो लोककथाओं में बिहारी पहचान वाले गानों के उदाहरण कम ही हैं.

अभिनेता पंकज त्रिपाठी को हमेशा से लोककथाओं में गहरी दिलचस्पी रही है. लेकिन वे भी कुछ देर के लिए रुके और पहचान को लेकर बने किसी नए गीत के बारे में सोचने लगे. फिर वह बोले,‘बिहारी पहचान के बारे में मैंने जो आखिरी गाना सुना था, वह था ‘जिया हो बिहार के लाला’.

उन्होंने खुद को सही किया और कहा, ‘लेकिन वह एक हिंदी गीत ज्यादा था.’

मीडिया की चकाचौंध, पॉप कल्चर रीलों और बौद्धिकता से दूर बांका के 27 साल के सुशील कुमार यादव आज भी अपमानित होते हैं, जब उनसे कहा जाता है, ‘ऐ हट बिहारी.’

नोएडा सेक्टर 80 में अडानी डाटा सेंटर के कंस्ट्रक्शन साइट पर उनके गांव पलनिया के 17 मजदूर काम करते हैं. करीब एक हजार किलोमीटर दूर मजदूरी कमाने के लिए वो सब अपने परिवार को छोड़कर यहां चले आए. उनके इस ग्रुप में सभी के पास, बड़े शहर में उनके साथ किए जाने वाले व्यवहार को लेकर बहुत से अनुभव हैं.

यादव ने अफसोस जताते हुए कहा, ‘परदेस में आए हैं, यहां दब कर ही रहना पड़ेगा न.’

लेकिन कुछ ही दूरी पर फल बेचने वाले 15 साल के नीतीश कुमार यादव ने इसका जवाब देना देना सीख लिया है.

वह बड़े उत्साह के साथ कहते हैं, ‘एक बिहारी सब पे भारी. मैंने इसे फेसबुक पर पढ़ा था.’

यह लेख दिल्ली एनसीआर में वर्ग संघर्ष पर एक सीरीज का हिस्सा है. यहां सभी लेख पढ़ें-

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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