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Tuesday, 23 April, 2024
होमदेश'पत्नी छोड़ गई, बेटी पैदा हुई,' बदल गया है 2017 सुकमा हमले के आरोप से बरी होकर लौटे आदिवासियों का घर

‘पत्नी छोड़ गई, बेटी पैदा हुई,’ बदल गया है 2017 सुकमा हमले के आरोप से बरी होकर लौटे आदिवासियों का घर

सुकमा में 2017 के माओवादी हमले की जगह बुर्कापाल गांव में दिप्रिंट ने हर रिहा हुए आदिवासी से की मुलकात, सबके पास अपनी-अपनी कहानी, पुलिस के पास भी अपनी कहानह, जो अब भी गांववालों को बेकसूर नहीं मानती.

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सुकमा/दंतेवाड़ा/जगदलपुर: जेल में पांच साल, दो महीने और सात दिन बिताने के बाद 43 साल के सोढी नंदा को अपने गांव बुर्कापाल की ओर जाते हुए पता था कि वे क्या करना चाहते हैं. उन्हें हफ्ते भर पहले विशेष एनआईए अदालत ने 2017 के सुकमा माओवादी हमले के आरोप से बरी कर दिया, जिसमें 25 सीआरपीएफ जवानों की मौत हो गई थी. जेल की कोठरी में चारदिवारी के भीतर की घुटन से थक चुके नंदा अब आजाद हैं. छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में नंदा जैसे ही अपने गांव पहुंचे, जंगल की ओर चले गए और नारंगी रंग के कोसम फल के पेड़ के नीचे पहुंचे.

हम सभी आरोपों से बरी 37 आदिवासी पुरुषों से मिलने बुर्कापाल पहुंचे तो नंदा ने कहा, ‘मैं सपना देखा करता था कि जंगल में घूम रहा हूं और फल तोड़ कर अपने मुंह में उसे निचोड़ कर उसका रस पी रहा हूं.’

ये सभी 17 जुलाई को जगदलपुर जेल से रिहा होने के बाद अपनी जिंदगी के तार नए सिरे से जोड़ने में लगे हैं, इनमें से कई अपने घर के इकलौते कमाने वाले रहे हैं.

27 साल के हेमला जोगा अपनी बेटी सुनीता के साथ खेल रहे हैं, जो पांच साल पहले गिरफ्तारी के वक्त अपनी मां की कोख में थी. उनके साथ ही गिरफ्तार हुए और छूटे उनके बड़े भाई मकदम सिंगा लौटने के बाद गांव का जायजा ले रहे हैं. सिंगा ने कहा, ‘देख रहा हूं कि कुछ झोपडिय़ां हट गई हैं. कुछ पेड़ उग आए हैं. मैं बस से उतरा तो मैंने खुद से पूछा, यही मेरा गांव है?’

बरी हुए आदिवासी अपने गांव बुरकापाल में वापस आ गए हैं | फोटो: ज्योति यादव | दिप्रिंट

जेल में जब भी 37 वर्षीय सोढी केसा की पत्नी मिलने आतीं तो वे पनीली दाल की शिकायत किया करते थे. पिछले हफ्ते वे घर लौटे तो उनका स्वागत देसी मुर्गे की दावत से हुआ. नौजवान मदकम भीमा घर आए तो पाया कि उनकी पत्नी किस और से ब्याह रचाकर आंध्र प्रदेश चली गई है. भीमा ने कहा, ‘वह मेरा आधार कार्ड और पासबुक भी ले गई.’ उनके पास खड़े बुजुर्ग उसे दिलासा दे रहे थे कि जल्दी ही उसके लिए एक पत्नी खोज लाएंगे.

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2017 के माओवादी हमले की जगह बुर्कापाल गांव में हर किसी के पास सुनाने को एक कहानी है. किसी की झोपड़ी बारिश में बह गई, किसी के बेटे को परिवार की रोजी-रोटी चलाने के खातिर स्कूल छोड़ना पड़ा, जेल में बंद पतियों को पैसा भेजने के लिए पत्नियों ने मवेशी बेच दिए, अपने बेटों को देखे बिना मां-बाप चल बसे, और बच्चों को जेल में ले जाया जाता रहा, ताकि वे पिता को पहचान सकें. खो गए वर्षों और छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा आतंकी हमले में ‘फंसाए जाने’ को लेकर सामूहिक यादें हैं, जिससे उनका, बकौल उनके, कोई लेनादेना नहीं था.

इंतजार, मुकदमा, रिहाई

दोर्नापाल-जगरगुंडा रोड पर पुल के निर्माण की सुरक्षा में लगे सीआरपीएफ के 70 जवानों की बटालियन को 24 अप्रैल 2017 को महज 100 मीटर की दूरी पर बुर्कापाल गांव की ओर से करीब 250 माओवादियों ने दनादन गोलियां दागनी शुरू कर दीं. हमले में 25 जवान मारे गए और सात जख्मी हो गए. जवाब में दो राज्यों के तीन जिलों (छत्तीसगढ़ में बीजापुर और सुकमा तथा तेलंगाना में भूपालपल्ली) के 28 गांवों से एक महिला और तीन नाबालिगों सहित कुल 125 आदिवासी पकड़े गए.

उन पर आइपीसी की अन्य धाराओं के अलावा छत्तीसगढ़ पुलिस ने आर्म्स एक्ट, एक्सप्लोसिव सब्सटांसेज एक्ट की धाराएं लगाईं और बाद में यूएपीए (गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून) और छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा कानून की धाराएं भी लगा दी गईं.

दोरनापाल-जगरगुंडा मार्ग पर जिस पुल पर घात लगाकर हमला किया गया था, उस समय सीआरपीएफ के जवान पहरा दे रहे थे, वह पुल अभी भी आधा बना हुआ है | फोटो: ज्योति यादव | दिप्रिंट

चार साल तक यह मुकदमा जगदलपुर एनआइए की अदालत में बिना सुनवाई के पड़ा रहा. और यूएपीए का मतलब था कि आदिवासियों को जमानत नहीं मिल सकती थी. सुकमा स्थित चकील बिचम पोंडी के सहयोगी भीमा पोडयामी ने कहा, ‘इन चार साल में आरोपियों के लिए 10 वकील गए लेकिन सुनवाई नहीं शुरू हुई. जिस दिन हम भीमा से दांतेवाड़ा अदालत में मिले, अलग-अलग मामलों में नौ आदिवासियों की रिहाई हुई थी.

उन्होंने कहा, ‘लचर जांच-पड़ताल, प्रतिशोध में गिरफ्तारियां और पुलिस की लीपापोती यहां का आम रवैया है.’ जब मामले से बिचम और भीमा जुड़े तो बात आगे बढ़ने लगीं. मामला अदालत में मई 2021 में पहुंचा और आरोप-पत्र जून में लगा और जुलाई के पहले हफ्ते में गवाहों को बुलाया जाने लगा. आरोपी आदिवासियों को 10 से 15 के समूह में अदालत में पेश किया जाता और सुनवाई हर हफ्ते सोमवार, मंगलवार और बुधवार को होती थी.

एक साल बाद 15 जुलाई 2022 को 121 आदिवासियों को रिहा कर दिया गया. एक विचाराधीन कैदी डोडी मंगलू की 2 अक्टूबर 2021 को जेल में मृत्यु हो गई थी और तीन नाबालिगों को जमानत मिल चुकी थी. विशेष जज दीपक कुमार देशलहरी ने कहा, ‘अभियोजन पक्ष यह साबित करने में नाकाम हो गया कि आरोपी नक्सल गुट के सक्रिय सदस्य हैं या अपराध में लिप्त थे. अभियोजन पक्ष यह भी साबित नहीं कर सका कि अभियुक्तों से पुलिस ने हथियार या बम बरामद किए.’


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‘फंसाए गए’; बकौल आईजी, ‘बेकसूर नहीं’

कुछ दूरी पर एक खाट पर लेटे 40 साल के मुचाकी मुक्का गला फाड़कर चिल्लाते हैं, ‘मैं नक्सलाइट नहीं हूं.’ मुक्का को 2018 में एक बम धमाके के सिलसिले में पकड़ा गया, जिसमें उनकी पत्नी बुरी तरह जख्मी हो गई थीं. उनके छोटे बेटे मुचाकी नंदा के मुताबिक, जेल में ‘उन्हें 2017 के मामले में भी फंसा हदया गया.’

मुचाकी ने कहा, ‘हम हर रोज दो लड़ाइयां लड़ते हैं. एक, नक्सलों के साथ और दूसरी सशस्त्र बलों के साथ. दोनों ही हमें दूसरे पक्ष का समर्थक मानते हैं. पांच साल पहले जब नक्सलों ने सीआरपीएफ पर हमला किया, हम गांव से मिलों दूर थे. हम जंगल में बीज प्नडुम (पेड़ देवता) का स्थानी त्योहार मनाने के लिए जुटे थे.’

2010 के एक मामले में 10 आदिवासियों को करीब तीन साल जेल में बिताने पड़े और आखिर 2013 में एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. तब भी बचाव पक्ष के वकील बिचम पोंडी ही थे. हताशा के साथ सोडी केसा कहते हैं, ‘हमले के बाद सरकारी हिंसा के डर से सभी पुरुष आंध्र प्रदेश में भाग गए. सिर्फ औरतें, बच्चे और बूढ़े ही गांव में रह गए. पुलिस ने संदेश भेजना शुरू किया कि वे रोजगार देंगे और गिरफ्तार नहीं करेंगे. आदिवासी लोट आएं.’ लौटने वालों में वे भी थे, जिन्हें पुलिस ने एक बस में भरा और ले गई. कुछ तो लौटकर आए ही नहीं, सिर्फ रहस्य की हालत में उनके मौत की खबर आई.

आरोपी गांव वालों के लिए भले रिहाई से इस प्रकरण का अंत हो सकता है, मगर बस्तर रेंज के आईजी सुंदरराज पट्टिलिंगम के मुताबिक, ‘मामला अभी बंद नहीं हुआ है.’ उन्होंने कहा, ‘हम अभी भी आईपीसी की धारा 173 (8) के तहत 139 भगोड़े नक्सलियों की पड़ताल कर रहे हैं.’

आईजी का कहना है कि पुलिस कोर्ट के फैसले का आदर करती है लेकिन वे गांव वालों को बेकसूर नहीं मानते हैं. उनका आरोप है, ‘वे नक्सलियों के लिए मिलिशिया काडर की तरह काम करते हैं. चाहे दबाव में या डर के मारे वे नक्सल नेटवर्क के समर्थक बन जाते हैं. वे उन्हें शरण देते हैं, उनके लिए निगरानी करते हैं, खाना खिलाते हैं और पड़ोस के कैंपों का रास्ता रोकने के लिए पेड़ काटकर सडक़ बंद कर देते हैं और उस दौरान नक्सली सुरक्षा बलों पर घातक हमले करते हैं.’

गांव वाले इन आरोपों का खंडन करते हैं. बेटे के साथ गिरफ्तार किए गए केसा नंदा कहते हैं, ‘हम इसलिए नहीं भागे कि हमारा हमले से कोई लेनादेना था. हम डर के मारे भागे थे. हम सरकारी हिंसा से बचना चाहते थे.. हम गांव वाले हैं. हम भी हमले की बात सुनकर भौचक रह गए थे.’

मदकम भीमा भी यही कहते हैं. ‘बिना वजह उन्होंने हमें पांच साल जेल में बंद रखा.’

सोडी केसा ने कहा कि वे लंबे समय समय से आंध्र प्रदेश में रह रहे थे, लेकिन उन्हें 2016 में पिता की मृत्यु के बाद लौटना पड़ा. उन्होंने कहा, ‘साल भर के भीतर ही मुझे सुरक्षा बलों के खिलाफ साजिश रचने के लिए पकड़ लिया गया. मैं तो बस खेती करता हूं.’

आजाद हवा में घर लौटे

जगदलपुर से 17 जुलाई की दोपहर चेल आदिवासी शाम को बुर्कापाल पहुंचे और उसी सरकारी स्कूल के मैदान में उतरे, जहां से पांच साल पहले उठा ले जाए गए थे. अब वे सब कुछ भुला देना चाहते थे. सभी ने एक स्वर में कहा, ‘हम सुरक्षा कैंप में साहेब के साथ अच्छे रिश्ते बनाएंगे. हमोर खेत बगल में ही हैं.’

परिवार वाले उनके लौटने की राह देख रहे थे. जब वे पहुंचे, औरतों ने ताजा पानी से उनके पेर धोए. अगले दिन उनकी आजादी का जश्र मनाया गया. लेकिन आजादी का असली स्वाद तो तब मिला, जब उन लोगों ने स्थानीय महुआ, मटन और पोर्क का स्वाद चखा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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