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Sunday, 13 October, 2024
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पोंटी चड्ढा, माल्या जैसे शराब माफियाओं का दौर खत्म, ये अब समाज सेवक वाली छवि चाहते हैं

राज्य दर राज्य शराब उद्योग को अपने नियंत्रण में लाने के लिए कदम बढ़ाया जा रहा है. शराब के महारथियों का कारोबार सिमट कर स्थानीय स्तर तक रह गया है. अब न तो उनका पास पहले जैसा स्वैग है और न ही कोई राजनीतिक संरक्षण.

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एक समय था जब ‘शराब माफिया’ शब्द लेते ही जहन में बेइंतहा पैसा, पावर और रौबिले अंदाज वाले किसी शख्स की तस्वीर घूम जाया करती थी. स्थानीय शहर के पत्रकारों की नजर सबसे पहले उनकी जीवनशैली और अचानक से बढ़ती शोहरत पर पड़ती और वो वहां से चटकारे दार कहानियां निकाल कर लाते थे. लेकिन आज उत्तर प्रदेश के वाराणसी के पत्रकारों का कहना है कि पुराने कारोबारियों की युवा पीढ़ी काफी बदल चुकी है. वे ‘शराब माफिया’ के टैग को हटाना चाहते हैं.

गूगल पर सर्च करने पर भी परिणाम कुछ ऐसा ही मिलेगा. वहां उन्हें आप ‘समाज सेवक’ या सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पाएंगे.

वाराणसी में एक स्थानीय हिंदी दैनिक के एक युवा पत्रकार अंशुल अग्रवाल, सीमांचल के शराब माफिया के आकर्षक और रंगीन मिजाज जीवन के बारे में पढ़ते हुए बड़े हुए हैं. अग्रवाल कहते हैं, ‘ कभी चखना बेचने वाला, अब बना लिक्विर किंग’, कई साल पहले मैंने इस हेडलाइन वाली खबर को पढ़ा था. इसमें एक स्ट्रीट वेंडर के रूप में उसकी संघर्ष की कहानी का बखान था.

सुर्खियों में आने वाला आखिरी ‘लिक्विर किंग’ गुरदीप सिंह ‘पोंटी’ चड्ढा ही था, जो 2012 में अपने भाई के साथ गोलीबारी में मारा गया. चड्ढा सबसे बड़ा शराब कारोबारी था, जिसका उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 10 अरब डॉलर का साम्राज्य फैला था. उसकी भव्य जीवनशैली लिविंग रूम में चर्चा का विषय थी.

पोंटी चड्ढा की मौत के बाद के दशक में, पैसा और राजनीतिक पावर के साथ तेजतर्रार व्यक्तित्व और बेशर्मी के मामले में उनके किरदार में फिट बैठने के लिए कोई भी आगे नहीं आया.

एक वरिष्ठ पत्रकार पंकज पाराशर ने कहा, ‘मैंने उस समय से उद्योग पर नज़र रखी हुई थी, जब उनकी कहानियों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा जाता और बड़े शौक के साथ पढ़ा जाता था. बाद में, मैंने शराब उद्योग में कोई नया चेहरा सामने आते नहीं देखा.’

आज शराब उद्योग चरमरा गया है. इसमें विजय माल्या या पोंटी चड्ढा जैसे एक किंगपिन का दबदबा नहीं है. पिछले दस सालों में राज्य दर राज्य शराब उद्योग को अपने नियंत्रण में लाने के लिए आगे बढ़े हैं, जिससे व्यापारियों के लिए पोंटी चड्ढा की तरह उठने के लिए बहुत कम जगह बची है.

अब लिक्विर किंग शायद ही ‘राजा’ हों. शराब के महारथियों की अब ज्यादा अहमियत नहीं बची है. उनका कारोबार सिमट कर स्थानीय स्तर तक रह गया है. अब न तो उनका पास पहले जैसा स्वैग है और न ही कोई राजनीतिक संरक्षण.

जब अरविंद केजरीवाल सरकार ने, 2021-22 में दिल्ली के लिए निजी खिलाड़ियों को शराब बेचने की अनुमति देने वाली अपनी नई आबकारी नीति शुरू की, तो सुगबुगाहट शुरू हो गई कि यह शराब के माफियाओं यानी अगले पोंटी चड्ढा के एक नए युग की शुरुआत करेगी. लेकिन सरकार द्वारा एक अगस्त को नई नीति को वापस लेने का मतलब है कि यह पुरानी यथास्थिति में वापस आ गई है.


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आबकारी नीतियों में बड़ा बदलाव

वाराणसी के रहने वाले शराब कारोबारी दिलीप जायसवाल अभी भी पुरानी यादों से उबरे नहीं है. वह उद्योग के बारे में कहते हैं, यह ‘एक अभिशाप’ है. जबकि वह 25 से ज्यादा सालों से इसका हिस्सा बने हुए हैं.

नीतिगत सुधारों ने एक दशक में उत्तर प्रदेश के देश के दो सबसे बड़े शराब व्यवसायियों के साम्राज्य को हिला कर रख दिया. पश्चिमी यूपी में पोंटी चड्ढा और पूर्वी यूपी में जवाहर जायसवाल. एक पूर्व सांसद जवाहर मौजूदा समय में जमानत पर बाहर है और अभी भी अपना शराब का कारोबार चलाता है. लेकिन अब उसका साम्राज्य उतना विशाल नहीं है जितना पहले था.

दिलीप कहते हैं , ‘यह अब एक उचित खेल नहीं रहा. वे उम्मीद करते हैं कि हम राजनीति में उनकी आर्थिक मदद करें, लेकिन वे खुदरा और थोक व्यापार को अपने नियंत्रण में ले रहे हैं. सभी सरकारी प्रयास इस धंधे में लगे निजी खिलाड़ियों को मारने के लिए हैं’ दिलीप ने अब हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र में अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं.

जब यूपी में भाजपा सत्ता में आई, तो योगी आदित्यनाथ सरकार ने सालों बाद उत्पाद शुल्क सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की, जिसने मुट्ठी भर व्यापारियों के एकाधिकार को तोड़ दिया. आज शराब की थोक और खुदरा बिक्री दोनों ही सरकार के नियंत्रण में है और नए खिलाड़ियों को लाइसेंस जारी किए जा रहे हैं. इसने ‘पुराने खिलाड़ियों’ बेबस बनाकर एक तरफ कर दिया.

यूपी के आबकारी विभाग के एक ब्यूरोक्रेट ने बताया, ‘हमने जोन वाइज ब्रेकअप खत्म किया और थोक क्षेत्र को फिर से जिंदा कर दिया. हमने निजी व्यक्तियों को जिलों में डिस्टलरी खोलने की अनुमति दी. वे नए ब्रांड पेश कर सकते हैं और स्वतंत्र रूप से अपनी शराब बेच सकते हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘दूसरा, हमने रिटेल पार्ट को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया. हमने एक व्यक्ति को दो दुकानों तक सीमित (लाइसेंस) कर दिया है. इसलिए बड़े शराब कारोबारी अगर अपने ड्राइवर, ड्राइवर की पत्नी, रसोइया या रसोइया की पत्नी के नाम से दुकानें खोल भी लें तो एक बड़ा माफिया एक बार में 50 दुकानें नहीं चला पाएगा. यह हमारे लिए गेम चेंजर रहा है.’

यूपी ने पहली बार उद्यमियों को शराब की दुकानें खोलने, बार चलाने और मॉल में खुद की प्रीमियम दुकानें खोलने के लिए भी तैयार किया है. पिछले साल सरकार ने 75 बार लाइसेंस जारी किए थे. ब्यूरोक्रेट ने समझाया, ‘अब कोई भी शराब की दुकान चला सकता है. यह पहले संभव नहीं था क्योंकि ये माफिया उन्हें काम करने नहीं देते थे.’

इन उपायों ने राज्य के खजाने को भर दिया है. 2012-13 में सरकार ने 9,783 करोड़ रुपये जुटाए थे. 2021-22 तक, राजस्व 36,321 करोड़ रुपये था यानी एक दशक में 45 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि.

अन्य राज्यों में असंतोष

जहां उत्तर प्रदेश सरकार को अपनी उपलब्धियों पर गर्व है, वहीं व्यवसायी जमीनी स्थिति को ‘बिल्कुल खराब’ बताते हैं. वे कहते हैं कि उन्हें दरकिनार किया जा रहा है, जबकि सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों दलों के राजनेता उद्योग पर ज्यादा नियंत्रण रखते हैं. यह दूसरे राज्यों में भी चल रहा है.

झारखंड में सरकार ने राजस्व बढ़ाने के लिए थोक और खुदरा क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया. इसने शराब के मूल्य निर्धारण और निर्माण को नियंत्रित करने के लिए 2010 में झारखंड स्टेट बेवरेज कॉर्पोरेशन लिमिटेड (JSBCL) की स्थापना की. इसी तरह झारखंड की नई शराब नीति निजी खिलाड़ियों को शराब खरीदने और बेचने की अनुमति देती है, जबकि एजेंसियां सरकारी नियंत्रण में रहती हैं. तमिलनाडु में शराब की दुकानों पर राज्य विपणन निगम का पूरा स्वामित्व है. हालांकि शशिकला की एक शराब कंपनी है, लेकिन राज्य में कोई नया शराब अरबपति नहीं है.

उत्तराखंड के लिए शराब राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है. लेकिन शराब के व्यापार पर पोंटी चड्ढा का एकाधिकार तब कम होने लगा जब राज्य ने दुकानों के आवंटन के लिए लॉटरी सिस्टम शुरू किया. 2007-2008 में बीसी खंडूरी सरकार नए प्रावधान लेकर आई, जिससे स्थानीय लोगों को दुकाने खोलने की अनुमति मिल गई. एक आबकारी अधिकारी ने कहा कि इससे चड्ढा के साम्राज्य को झटका लगा, जिसमें राज्य की कई कंपनियां शामिल थीं. मौजूदा समय में उत्तराखंड सरकार का 2022-2023 के लिए 3,600 करोड़ रुपये के राजस्व का लक्ष्य है.

चैरिटी की ओर बढ़ते कदम

अपने समय में चरम पर रहे पोंटी को राजनेताओं का बेइंताह प्यार मिला था. 2000 के दशक में पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा उन्हें मिले संरक्षण ने उन्हें शराब उद्योग पर नियंत्रण हासिल करने में मदद की. 2009 में जब मायावती यूपी की मुख्यमंत्री थीं, तो उन्हें पूरे राज्य के थोक वितरक अधिकारों से सम्मानित किया गया था. मुलायम सिंह यादव ने भी लखनऊ में उसके मल्टीप्लेक्स मॉल वेव का उद्घाटन किया था.

माना जा रहा था कि पोंटी के बड़े बेटे मनप्रीत सिंह चड्ढा उर्फ मोंटी अपने पिता के कदमों पर चलेंगे. लेकिन पोंटी की मौत के बाद पारिवारिक बड़ी कंपनी वेव ग्रुप मोंटी और चड्ढा के छोटे भाई राजिंदर के बीच विभाजित हो गई. तब से दोनों परिवारों ने अपने-अपने व्यवसायों के चैरिटी आर्म्स को उजागर करने के लिए एक ठोस प्रयास किया है.

वे अपना प्रभाव बढ़ाने के नए क्षेत्रों की ओर चले गए हैं जैसे कि कोविड राहत शिविर और स्वास्थ्य शिविर स्थापित करना. पोंटी चड्ढा को सीएसआर वेबसाइट पर मोंटी और उनके परिवार ने उद्धृत किया हुआ है-‘जीवन का व्यवसाय जीवन है, व्यवसाय नहीं.’ इसमें विकलांग बच्चों के लिए दान, महिलाओं की सुरक्षा के लिए मैराथन, खाद्य बैंक, खेल गतिविधियां और स्वास्थ्य देखभाल इकाइयां शामिल हैं.

राजिंदर ने अपनी ‘दिल से सेवा’ पहल को लेकर कोविड की पहली लहर के दौरान टेलीविजन पर साक्षात्कार दिया था. दूसरी लहर में मोंटी ने कोविड मरीजों के लिए गाजियाबाद वेव सिटी आवासीय टाउनशिप खोल दी थी.

यूपी में छोटे शहर के व्यवसायी भी चैरिटी के काम में लग गए हैं. सर्दियों में बेघरों को कंबल बांटते हुए या कोविड के दौरान प्रवासियों को गेहूं के बैग बांटते हुए उनके राइट-अप और फोटो स्थानीय अखबारों के पन्नों पर जगह बनाते नजर आ जाएंगे.

वे जिन घरों में रहते हैं, वे आज भी महलनुमा हैं. वे जो कारें चलाते हैं वे सस्ती नहीं हैं. लेकिन उन्हें आकार में छोटा कर दिया गया है. आज वे अपने दान कार्य के लिए जाना जाने चाहते हैं. यह सम्मान का सबसे आधुनिक पदक है जो उन्हें सामाजिक सीढ़ी पर चढ़ने वाले व्यवसायियों की नई फसल के साथ लाकर खड़ा करेगा.


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आप, विघटनकारी?

आम आदमी पार्टी की सरकार द्वारा दिल्ली और पंजाब में नई आबकारी नीतियां लागू किए जाने के बाद शराब कारोबारियों का एक बार फिर बाजार पर एकाधिकार होने की आशंका हो गई थी.

पिछले साल, AAP ने दिल्ली की शराब नीति को यह दावा करते हुए बदल दिया कि यह व्यापार को नियंत्रित करने वाले माफिया को समाप्त कर देगी. इसने क्षेत्र को 32 क्षेत्रों में विभाजित किया और प्रत्येक में 27 दुकानें चलाने की अनुमति दी. हालांकि, पड़ोसी राज्यों के पास इससे मिलने वाले नतीजों को लेकर अपनी आपत्तियां थीं.

पड़ोसी राज्य के एक आबकारी आयुक्त ने कहा, ‘आने वाले सालों में दो से तीन बड़े खिलाड़ियों का एकाधिकार स्थापित करने का यह एक और तरीका था’ वह आगे कहते हैं, ‘बड़े व्यवसायी छोटे व्यापारियों का सफाया करने के लिए हर चाल का इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने 50 प्रतिशत छूट पर शराब बेचना शुरू किया. छोटे व्यवसायियों को अपनी कीमतों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मजबूर किया गया, वो जानते थे कि ऐसे में वे टिके नहीं रह सकते और अंततः बाहर हो जाएंगे.’

Customers queueing outside a liquor store in Delhi | ANI file photo
दिल्ली में एक शराब की दुकान के बाहर ग्राहकों की कतार | एएनआई फाइल फोटो

लेकिन दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा नई आबकारी नीति की सीबीआई जांच की मांग के बाद, केजरीवाल सरकार ने कहा कि वह पुरानी व्यवस्था को वापस ला रही है. अधिकारी ने कहा, ‘नीति को बाधित करने के दिल्ली सरकार के प्रयासों से उन्हें भले ही फाइनेंसर मिल गए हों, लेकिन इसने पड़ोसी राज्यों को कुछ शराब माफियाओं की दया पर पुरानी व्यवस्था में वापस खींच लिया होगा.’

पंजाब में भी आप के प्रयोग ने छोटे व्यापारियों के लिए व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है. पंजाब में थोक और खुदरा निजी उद्यमों में शामिल लोगों ने भी पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. शराब कारोबारियों का कहना है कि नई शराब नीति मनमानी है और उद्योग पर एकाधिकार करने की भी कोशिश है.

छोटे शहरों में नए रास्ते

अनिश्चितता को देखते हुए कई शराब कारोबारी अब अपनी बोतलें एक टोकरी में नहीं रख रहे हैं. अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े रहना मूलमंत्र है. इसमें हॉस्पिटैलिटी और रियल एस्टेट क्षेत्र विशेष रूप से आकर्षक साबित हुए हैं. यह बिहार का सच है जहां कुछ साल पहले 2016 में शराबबंदी लागू हुई थी.

बिहार के एक व्यवसायी प्रकाश चंद्रा कहते हैं, ‘राज्य सरकारों ने महसूस करना शुरू कर दिया कि जब वे शराब उद्योग को नियंत्रित कर सकते हैं और राजस्व उत्पन्न कर सकते हैं, तो व्यापारियों को क्यों पनपने दें? यह राजस्व उन्हें फंड करने में मदद करता है. वह अपने स्वयं के राजनीतिक अभियान और मतदाताओं को लुभाने के लिए कल्याणकारी योजनाएं तैयार करते हैं’ चंद्रा नीतीश कुमार सरकार द्वारा शराब पर प्रतिबंध लगाने के बाद अन्य विकल्पों की तरफ जाने के लिए विवश हो गए थे.

हिंदी पट्टी के छोटे शहरों में भी विविधीकरण हो रहा है. इन शहरों की सड़कें चमकदार नए ऑटोमोबाइल शोरूम, शॉपिंग मार्ट, खुदरा स्टोर और होटलों से अटी पड़ी हैं. कुछ उद्यमी व्यवसायियों ने एथेनॉल प्लांट लगाना शुरू कर दिया है. मसलन ग्लोबस स्पिरिट्स यूपी, बिहार और पंजाब में एथेनॉल प्लांट लगा रही है. शराब से लेकर स्वच्छ ईंधन तक, भारत के शराब महारथियों की कहानी में यह अगली शिकन है.

(शिखा सलारिया, पृथ्वीराज सिंह और सोमविया अशोक के इनपुट्स के साथ)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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