नई दिल्ली: अनाधिकृत कब्ज़े से जुड़े अधिकारों की गुंजाइश नहीं होना, बाबरी मस्जिद की किसी इस्लामिक ढांचे के अवशेषों पर तामीर को साबित करने में मुस्लिम पक्ष की विफलता, नमाज़ के लिए विवादित स्थल के केवल एक हिस्से का इस्तेमाल होने का तथ्य, और 300 वर्षों से अधिक समय तक राम जन्मभूमि स्थल पर नमाज़ अदा नहीं किया जाना.
सुप्रीम कोर्ट ने दशकों से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद का केंद्र रही अयोध्या की भूमि पर राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करते हुए इन चार कारणों का जिक्र किया है.
भले ही विवादित भूमि मुस्लिम पक्ष को नहीं मिली, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 1949 में मस्जिद में अनाधिकृत प्रवेश और 1992 में उसके विध्वंस के ज़रिए उनके साथ हुई नाइंसाफी की बात को माना. इसीलिए अदालत ने मुस्लिम पक्षकार सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के दावे को स्वीकार करते हुए उसे पांच एकड़ जमीन दिए जाने का आदेश दिया है.
अदालत ने कहा कि ‘मस्जिद का विध्वंस यथास्थिति बनाए रखने के आदेश तथा इस अदालत को दिए गए आश्वासन का उल्लंघन करते हुए किया गया था’ तथा ‘मस्जिद का विध्वंस और इस्लामी ढांचे का खात्मा कानून के शासन का एक गंभीर उल्लंघन था.’
‘प्रतिकूल कब्ज़े का मुकदमा’
कोर्ट की खंडपीठ को इस सवाल का जवाब देना था कि क्या वक्फ बोर्ड ने अनाधिकृत कब्जे के जरिए अयोध्या की भूमि का टाइटल हासिल किया था.
कानूनी भाषा में, प्रतिकूल कब्जे को किसी अनाधिकृत पक्ष के एक निश्चित अवधि के लिए कब्जा करके किसी भूखंड से संबंधित अधिकार पाने के रूप में परिभाषित किया गया है.
यह भी पढ़ें : बाबरी मस्जिद विध्वंस : अप्रैल 2020 तक फैसला, 24 दिसंबर को गवाहों के पेश होने की आखिरी तारीख
मुस्लिम पक्ष का कहना था कि मस्जिद यदि किसी मंदिर के अवशेषों पर बनाई गई हो, जैसा कि हिंदू पक्ष मानता है, तो भी उनके पास प्रतिकूल कब्जा था क्योंकि उस भूमि पर बाबरी मस्जिद 16वीं शताब्दी के बाद से ही मौजूद थी.
पर सुप्रीम कोर्ट ने इस दावे को खारिज करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले पर सहमति व्यक्त की, जिसमें प्रतिकूल कब्जे की दलील को ठुकराते हुए कहा गया था कि यह एक खुली जगह थी जहां प्रार्थना के लिए ‘कोई भी कुछ भी बना सकता था’.
‘मस्जिद के नीचे कोई इस्लामी ढांचा नहीं’
सुप्रीम कोर्ट ने सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की इस दलील को ‘बाद में सोचा गया विचार’ बताते हुए खारिज कर दिया कि बाबरी मस्जिद एक ईदगाह के इस्लामी ढांचे के ऊपर बनाई गई थी जहां कि नमाज़ पढ़ी जाती थी.
अदालत ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की 2003 की एक रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मस्जिद के नीचे का ढांचा कोई ‘इस्लामी संरचना नहीं’ थी, और विवादित स्थल पर खुदाई से प्राप्त मूर्तियों से वहां किसी हिंदू संरचना की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं.
अदालत ने कहा, ‘मस्जिद के नीचे ईदगाह के अस्तित्व संबंधी दलील से ये संकेत जाता है कि मस्जिद एक ध्वस्त ईदगाह की नींव पर तामीर की गई थी. ये एक अवास्तविक परिकल्पना है, और वहां से मिली चीज़ों की प्रकृति दावे के खिलाफ जाती है. इसलिए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के आग्रह के विपरीत ईदगाह वाला तर्क बाद में बनाया गया है.’
‘मुसलमानों द्वारा पूरी परिसंपत्ति का इस्तेमाल नहीं’
अदालत ने 2.77 एकड़ की विवादित भूमि का बाहरी आंगन – जहां हिंदू देवता राम से जुड़े स्थल थे – और आंतरिक आंगन – जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी – के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया.
अपने फैसले में खंडपीठ ने कहा कि मुस्लिम पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों से ये साबित नहीं हो पाता है कि उपासना के लिए मुसलमानों द्वारा पूरे भूखंड का उपयोग किया जाता था.
यह भी पढ़ें : अयोध्या फैसले से गदगद हुए आडवाणी, भगवान का शुक्रिया अदा कर कहा- मैं धन्य महसूस कर रहा हूं
अदालत ने माना कि ‘बाहरी आंगन वास्तव में भगवान राम के भक्तों के इस्तेमाल में और उनके कब्जे में था’ और ‘निश्चय ही भूमि के वे हिस्से स्थानीय मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा धार्मिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किए जाते थे.’ इसीलिए अदालत ने अपने फैसले में कहा कि पूरी भूमि को ‘वक्फ’ यानि मुस्लिम धार्मिक और अन्य उद्देश्यों के लिए दान की गई संपत्ति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है.
अदालत ने हिंदू पक्ष के इस दावे को खारिज करने का भी उल्लेख किया कि राम की जन्मभूमि होने के कारण भूमि को एक कानूनी पक्ष माना जाए. विवादित भूमि के वक्फ होने की मुस्लिम पक्ष की दलील हिंदुओं के कानूनी पक्ष के तर्क का ‘प्रतिबिंब’ है, इसलिए उसे खारिज कर दिया गया.
‘1528 से 1856-57 तक मस्जिद में नमाज़ नहीं’
किसी मस्जिद की प्राथमिक विशेषताओं में से एक है वहां नमाज़ अदा किया जाना. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के वकील ज़फरयाब जिलानी ने कहा कि विवादित स्थल आज भी एक मस्जिद का काम करता है और आज तक वहां नमाज अदा की जाती है.
पर अदालत ने कहा कि मुस्लिम पक्ष ने कब्जे, ‘उपयोग या निर्माण से लेकर 1856-57 के बीच मस्जिद में नमाज़ अदा किए जाने’ के संबंध में ‘कोई विवरण’ प्रस्तुत नहीं किया.
अदालत ने उल्लेख किया कि अंग्रेजों द्वारा मस्जिद के बाहर के रेलिंग के रूप में एक दीवार के निर्माण के बाद ही वहां नमाज़ पढ़ा जाना आरंभ हुआ.
फैसले में कहा गया है, ‘मस्जिद के निर्माण की तारीख से लेकर अंग्रेजों द्वारा ईंट की जालीदार दीवार बनवाए जाने तक 325 वर्षों से अधिक समय तक की अवधि तक के लिए, मुस्लिम पक्ष ने ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए जोकि विवादित स्थल पर उनका नियंत्रण होने को साबित करता हो.’ हालांकि हिंदुओं ने वहां मस्जिद होने के बावजूद विवादित स्थल पर पूजा करना जारी रखा था.
यह भी पढ़ें : क्या सोमनाथ के तर्ज पर बन सकता है राममंदिर का ट्रस्ट
अदालत के अनुसार, ‘विवादित स्थल और उसके आसपास हिंदुओं की पूजा-अर्चना के पहचान योग्य स्थलों में सीता रसोई, स्वर्गद्वार और राम के जन्म की प्रतीक बेदी (पालना) शामिल हैं. विवादित स्थल पर पूजा के प्रचलित तरीकों में तीर्थयात्रियों द्वारा परिक्रमा और धार्मिक त्योहारों के अवसर पर बड़ी संख्या में भक्तों की उपस्थिति शामिल रही हैं’.
अदालत ने कहा कि ईंट की दीवार बनने के बाद भी, हिंदुओं ने तीन गुंबदों वाली संरचना (मस्जिद) की ओर मुंह कर प्रार्थना करना जारी रखा, जो ‘गर्भ गृह’ या भगवान राम के जन्म के असल स्थान के मस्जिद के भीतर होने के विश्वास से प्रेरित था.
अदालत ने कहा कि इस प्रकार आंतरिक आंगन भी हिंदुओं की आस्था का एक हिस्सा था.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)