आगरा: आगरा के चक्की पाट इलाके की गलियों में, लगभग हर घर का जूतों से कुछ न कुछ संबंध नजर आता है. यहां कुछ लोग जूतों के सोल्स की छंटाई कर रहे हैं, कुछ स्लिपर्स के लिए रबर तराश रहे हैं, कुछ जूतों के फीते अलग कर रहे हैं, कुछ ब्राण्ड लोगो काट रहे हैं जिन्हें स्नीकर्स पर लगाया जाना है, और कुछ जूतों पर हाथ से नक़्क़ाशी कर रहे हैं.
मुगलों के समय से जूता बनाने का केंद्र रहा आगरा, आज भारत में एक अग्रणी निर्माता है, जहां देशभर में पहने जाने वाले 65 प्रतिशत जूते बनते हैं, और जिसकी निर्यात में 28 प्रतिशत हिस्सेदारी है. यहां के उद्योग के बहुत से छोटे निर्माता और श्रमिक चक्की पाट इलाके से काम करते हैं.
लेकिन, यहां का मूड बुझा हुआ सा है. कोविड लॉकडाउन और महामारी की चालू लहर, उद्योग पर बहुत भारी रही हैं, लेकिन 1,000 रुपए से कम मूल्य के जूतों पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) दर में बढ़ोतरी ने – जो इस महीने से 5 प्रतिशत से बढ़कर 12 प्रतिशत हो गई- व्यवसाय की कमर तोड़ दी है. बहुत से कारोबार घाटे में चले गए हैं, और कुछ तो दुकान बंद कर रहे हैं.
निराशाजनक स्थितियों के कारण हींग की मंडी, जिसे आगरा का जूतों का बाजार कहा जाता है, और जो अपने चमड़े के जूतों के लिए प्रसिद्ध है, बढ़ी हुई जीएसटी दर के खिलाफ विरोध जताते हुए, पिछले बुधवार हड़ताल पर चली गई. उनका कहना है कि जीएसटी बढ़ने से बिक्री में कमी आएगी और उनका मुनाफा भी घटेगा. उसके बाद से कारोबार बहाल हो गया है लेकिन ग्राहक बहुत कम संख्या में नजर आते हैं.
कच्चा माल विक्रेताओं और श्रमिकों से लेकर, छोटे निर्माताओं और व्यवसाइयों तक, उद्योग के सभी हितधारकों का कहना है, कि वो बहुत कष्ट से गुजर रहे हैं. उन्हीं के जैसी दुर्दशा एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु,व मध्यम उद्यम) क्षेत्र में बहुत से दूसरे उद्योगों की भी है, जहां महामारी के चलते 9 प्रतिशत व्यवसाय बंद हो गए और करोड़ों लोग रोजगार से हाथ धो बैठे.
आगरा के जूता उद्योग में भी बहुत से कारीगर और श्रमिक, इंडस्ट्री छोड़ने को मजबूर हो गए हैं. एक निर्माण इकाई में काम कर रहे एक श्रमिक विनय ने दिप्रिंट को बताया कि उसके दूसरे बहुत से साथियों ने हाल ही में सब्ज़ियां बेंचने जैसे दूसरे धंधे शुरू कर दिए हैं.
उसने कहा मुझे अपने माता-पिता और भाई-बहनों का पेट पालना है… देखते हैं कितने दिन मैं ये जारी रख सकता हूं. मैं छह-सात वर्षों से काम कर रहा हूं, लेकिन इतनी खराब स्थिति पहले कभी नहीं देखी है’.
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‘70 प्रतिशत छोटे निर्माताओं ने काम बंद कर दिया है’
चक्की पाट में अभिकाम सिंह का छोटा सा ऑफिस, बीआर आम्बेडकर और भगवान बुद्ध की तस्वीरों से भरा हुआ है, जैसा कि इलाके की बहुत सी दूसरी दुकानें और घर हैं.
सिंह जूता दस्तकार फेडरेशन के अध्यक्ष हैं, जो जूता कारीगरों का एक छाता संगठन है. उन्होंने दिप्रिंट के बताया कि इस साल 1 जनवरी को जीएसटी बढ़ोतरी लागू हो जाने के बाद से बहुत से व्यवसाइयों वो सब ऑर्डर्स या तो रोक दिए हैं या रद्द कर दिए हैं, जो पहले दिए गए थे.
अभिकाम ने कहा, ‘निर्माताओं को अब चिंता सता रही है, चूंकि उन्होंने कच्चा माल पहले ही खरीद लिया है और श्रमिकों को मजदूरी भी अदा कर दी है. अब वो क्या करेंगे? बढ़ी हुई जीएसटी दरों की वजह से कारोबारी ऑर्डर्स मना कर रहे हैं’.
उनके भाई अनिरुद्ध सिंह ने, जो खुद भी कारीगर संघ के सदस्य हैं, समझाया कि जीएसटी वृद्धि ने उस स्थिति को और बिगाड़ दिया है, जो लॉकडाउन और कच्चे माल की बढ़ती कीमतों के चलते पहले ही खराब थी.
अनिरुद्ध ने कहा, ‘फिलहाल जूता बनाने वाले लोग सरकार द्वारा श्रमिकों को दी गई राहत के दायरे में नहीं आते. उसमें मुख्य रूप से निर्माण में लगे श्रमिकों पर ध्यान दिया गया है. अच्छा रहेगा कि अगर सरकार इसे विस्तार दे दे’.
आगरा के जूता उद्योग में लगे अधिकतर श्रमिकों का ताल्लुक जाटव समुदाय से है (जो अनुसूचित जातियों की सूची में आते हैं).
अनिरुद्ध ने समझाया कि महामारी से पहले, करीब 3.5 लाख श्रमिक आगरा के जूता उद्योग से जुड़े हुए थे और 3,500-4,000 के बीच छोटे निर्माता थे. यहां हर वर्ष, करीब 50 लाख जोड़ी जूते बनाए जाते थे, जिनमें से 25 प्रतिशत निर्यात हो जाते थे (मुख्य रूप से यूरोपियन देशों को) और बाकी घरेलू बाजार में चले जाते थे.
अनिरुद्ध ने बताया, ‘2020 के बाद से कोई कारोबार न होने की वजह से 70 प्रतिशत छोटे निर्माता अपना काम बंद कर चुके हैं. वो अब बड़े कारखानों में काम कर रहे हैं, जहां उन्हें दैनिक आधार पर कहीं कम पैसा मिलता है. उनका सारा सम्मान और स्वामित्व खत्म हो गया है’.
तिलक राज ऐसे ही एक निर्माता हैं, जो बड़ी मुश्किल से काम चला पा रहे हैं. एक श्रमिक उनकी निर्माण इकाई में दाख़िल हो रहा था, जब उन्होंने पूछा, ‘जीएसटी बढ़ने के बाद हम कारीगरों को कैसे रखेंगे?’
तिलक ने कहा, ‘मैं इसी काम को करते-करते बूढ़ा हो गया हूं, और मेरे परदादा भी इसी काम में लगे हुए थे. इस पूरे समय में हमने इतने बुरे दिन कभी नहीं देखे’.
तिलक ने आगे कहा, ‘जीएसटी हम पर लागू नहीं होना चाहिए, बल्कि उन निर्माताओं पर लगना चाहिए, जो एक घंटे में 100 जूते बना लेते हैं. आप हाथ से जूता बनाने वालों और मशीनों के जरिए जूते बनाने वालों पर एक समान टैक्स कैसे लगा सकते हैं?’
उनका कहना था कि ज्यादातर कारीगर जो पहले उनके यहां काम करते थे, गुजर-बसर के लिए अब सब्ज़ियां बेंच रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘जब से बीजेपी सरकार सत्ता में आई, कंपनी घाटे में चल रही है. अच्छे होता कि अगर वो हमारी सहायता करने पर ध्यान देते, बजाय राम मंदिर बनाने के’.
उत्तर प्रदेश में आगामी चुनावों के बारे में पूछने पर, राज ने कहा कि वो उसको वोट देंगे जो उनके बच्चों के बारे में सोचेगा.
‘हम कलयुग से गुजर रहे हैं’
व्यापारियों की एक एसोसिएशन आगरा शू फैक्ट्री फेडरेशन के अध्यक्ष गगनदास रमानी ने कहा कि जीएसटी दर दोगुने से अधिक हो गई है, जिसने उनके सामने एक अभूतपूर्व चुनौती खड़ी कर दी है.
उन्होंने कहा, ‘देश के पैंसठ प्रतिशत लोग जो जूते पहनते हैं, वो आगरा में बने होते हैं. यहां के जूते ज़्यादा बिकते हैं क्योंकि वो सस्ते होते हैं. 45वीं जीएसटी बैठक में जूतों और टेक्सटाइल्स पर जीएसटी को 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत करने का फैसला किया गया था (बाद वाले को टाल दिया गया है). हम नवंबर से इसका विरोध कर रहे हैं’.
रमानी ने समझाया कि ज़्यादा कारोबारी कर्ज़ लेकर काम चलाते हैं और उनके पिछले ऑर्डर्स रुक जाने के कारण वो नए ऑर्डर्स पर काम नहीं कर पा रहे थे. उनके अनुसार, नोटबंदी, लॉकडाउंस और जीएसटी सब के असर ने मिलकर उद्योग को बहुत नुकसान पहुंचाया है और सबसे बुरी मार गरीब कारीगरों पर पड़ी है.
रमानी ने याद दिलाया कि स्वर्गीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि टेक्सटाइल और जूता उद्योग दोनों श्रम उन्मुख हैं, और उनके साथ समान बर्ताव होना चाहिए.
रमानी ने कहा, ‘चूंकि सरकार कपड़ा उद्योग के लिए वापस 5 प्रतिशत जीएसटी पर चली गई है, इसलिए जूता उद्योग के लिए भी यही किया जाना चाहिए’.
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं सिर्फ वही मांग रहा हूं जो वो (सरकार) इस दौरान कहते आ रहे हैं. फिलहाल तो हम कलयुग से गुजर रहे हैं, जिसकी लाठी उसकी भैंस’.
हींग की मंडी में जूतों के लिए कच्चा माल बेंचने वाले अब्दुल अलीम ने कहा कि हालांकि जीएसटी बढ़ने से उनपर सीधा असर नहीं पड़ता लेकिन कारोबार कम है क्योंकि उनके सामान की मांग कम हो गई है.
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सरकार से मांग
व्यापारियों तथा कारीगरो की यूनियनों ने आगरा के जिला मजिस्ट्रेट को ज्ञापन दिए हैं, जिनमें प्रधानमंत्री को संबोधित करके उनसे जीएसटी की बढ़ी दर वापस लेने की मांग की गई है.
इसके अलावा, जूता श्रमिक फेडरेशन ने कच्चे माल की कीमतों पर भी नियंत्रण की मांग की चूंकि वो साल में 20-25 बार बढ़ जाते हैं. उन्होंने ये भी अनुरोध किया कि उन्हें कम ब्याज दरों पर कर्ज़ दिए जाने चाहिएं.
अभिकाम सिंह ने कहा, ‘हमें सरकार से कोई राहत नहीं मिली है. वो बहुत सारी योजनाएं लाते हैं, लेकिन उनमें से कोई अमल करने लायक नहीं होती और वो सिर्फ ट्रेनिंग या कारखानों में टूलकिट्स उपलब्ध कराने तक सीमित होती हैं. फिलहाल, उद्योग पूरे घाटे में चल रहा है’.
रमानी ने बताया कि मंगलवार को वो उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री सुरेश खन्ना से भी मिले थे, जिन्होंने व्यापारियों को आश्वासन दिया कि इस मामले को, फरवरी में जीएसटी परिषद की बैठक में उठाया जाएगा. रमानी ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जीएसटी दर, वापस पहले की 5 प्रतिशत ही कर दी जाएगी.
अभिकाम ने कहा, ‘अगर हमें कोई समाधान नहीं मिलता, तो हमारे पास एक और हड़ताल करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचेगा’.
जूता उद्योग समेत सभी MSMEs 2020 के बाद से जूझ रहे हैं
कोविड महामारी ने एमएसएमई क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है. 2015-16 नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार, एमएसएमई इकाइयों ने देश भर में क़रीब 11 करोड़ रोजगार पैदा किए, लेकिन इनमें से करीब 3 करोड़ रोजगार, महामारी के शुरू के महीनों में खत्म हो गए.
पिछले साल जून में प्रकाशितइकनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली की एक रिपोर्ट के मुताबिक मई 2020 में लॉकडाउन के पीक के दौरान, एमएसएमई इकाइयों में उत्पादन 75 प्रतिशत औसत क्षमता से गिरकर 13 प्रतिशत पर आ गया था.
राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के चरम पर क्षेत्रवार संकट के स्तर का पता लगाने के लिए, मिश्रित-पद्धति पर आधारित इस सर्वे में आगे कहा गया कि औसतन, व्यवसायों ने अपने केवल 44 प्रतिशत श्रमबल को रोक कर रखा. 69 प्रतिशत कंपनियों ने बताया कि उन्हें नहीं लगता, कि वो तीन महीने से ज़्यादा अपना काम जारी रख पाएंगी.
हालांकि अर्थव्यवस्था के फिर से खुलने पर चीजें सुधरने लगीं, लेकिन दूसरी कोविड लहर ने इस क्षेत्र को एक और झटका दे दिया. अप्रैल और मई 2021 में, नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) में होने वाली 60 प्रतिशत वृद्धि एमएसएई इकाइयों से आई, जो उससे पहले 30 से 40 प्रतिशत होती थी.
कारोबार को चलाए रखना मुश्किल हो गया है, क्योंकि काम के सीमित घंटों तथा लॉकडाउंस सी वजह से उत्पादन लागत बढ़ गई है, और सरकार से मिलने वाली वित्तीय सहायता, कथित रूप से केवल 20 प्रतिशत शीर्ष एमएसएमई इकाइयों तक ही पहुंच पाई है. इन सब मुश्किलों के ऊपर कच्चे माल की क़ीमतें अच्छी ख़ासी बढ़ गई हैं और बाजार में मांग कम हो गई है.
मई 2021 में, एक कम्यूनिटी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोकलसर्कल्स की ओर से 6,000 एमएसएमई इकाइयों का सर्वेक्षण किया गया, जिनमें से लगभग 60 प्रतिशत का कहना था कि या तो उन्हें अपने काम के स्तर को कम करना पड़ेगा, या फिर बिल्कुल बंद करना होगा.
देशभर में पहने जाने वाले 65 प्रतिशत जूते, आगरा जूता उद्योग में बनते हैं, और देश के कुल जूता निर्यात में इसकी 28 प्रतिशत हिस्सेदारी है.
भारत में जूता उद्योग का एक और क्लस्टर है कानपुर-उन्नाव, और यहां भी कई बार के लॉकडाउंस, अंतर्राष्ट्रीय ऑर्डर्स रद्द होने और पहले से सप्लाई किए गए ऑर्डर्स पर भी डिस्काउंट्स की मांग के चलते मंदी देखी जा रही है.
बहुत से ब्राण्ड्स ने ऑर्डर्स के लिए भुगतान नहीं किया और इस संकट की सबसे अधिक मार श्रमिकों पर पड़ी है, चूंकि उनके बक़ाया का भुगतान नहीं हुआ था. 2020 में, काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोर्ट ने बताया कि ऑर्डर्स कैंसल होने की वजह से तमिलनाडु क्लस्टर के हाथ से 2,800 रुपए मूल्य के निर्यात ऑर्डर्स निकल गए.
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