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Thursday, 28 March, 2024
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CAA पर संयुक्त राष्ट्र इकाई समेत 140 याचिकाओं के बावजूद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में एक साल में सिर्फ 3 बार आया

सीएए के खिलाफ पहली याचिका संसद में दिसंबर 2019 में पारित होने के बाद दायर की गई थी. सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने माना कि यह मामला ‘हर किसी के दिमाग में छाया’ हुआ है.

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नई दिल्ली: नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के 11 दिसंबर 2019 को संसद में पारित होने के बाद से ही इस पर पूरे देश में विरोध-प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया था. पारित होने के अगले दिन ही इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किए जाने के साथ ही इस कानून को तुरंत चुनौती भी मिल गई थी.

सीएए 10 जनवरी 2020 को लागू हुआ था, तब से ही सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में इसके खिलाफ याचिकाओं का अंबार लगता जा रहा है. मौजूदा समय में आईयूएमए की याचिका के साथ में 140 से अधिक याचिकाएं जुड़ चुकी हैं. यहां तक कि मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त मिशेल बेचेलेट की तरफ से भी पिछले साल कानून के खिलाफ मामले में दखल संबंधी आवेदन दायर किया जा चुका है जिसमें उन्होंने एमिकस क्यूरी के तौर पर अदालत की मदद की पेशकश की है.

हालांकि, इन याचिकाओं पर कोई खास प्रगति नहीं हुई है और अब तक सुप्रीम कोर्ट में यह मामला तीन बार ही आया है. शीर्ष अदालत ने केंद्र को सुने बिना कानून को स्थगित करने पर कोई अंतरिम आदेश पारित करने से इनकार कर दिया था, जिसने इन याचिकाओं पर पहली बार अपना जवाब देने में 2.5 महीने से अधिक का समय लगाया था.

कानून क्या कहता है

भारत में नागरिकता को नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत विनियमित किया गया है. 2019 के अधिनियम ने इसी कानून को संशोधित किया है.

संशोधन अवैध प्रवासियों को नागरिकता का अधिकार देता है बशर्ते वे (ए) हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदायों से संबंध रखते हों, और (बी) अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आए हुए हों. यह केवल उन प्रवासियों पर लागू होता है जो 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले भारत आ चुके हैं. पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों को प्रावधान से छूट दी गई है.

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सरल शब्दों में कहें तो संशोधन इन श्रेणियों के लोगों के लिए भारतीय नागरिकता हासिल करने की प्रक्रिया फास्ट-ट्रैक करता है, जबकि बाकी सबकी नागरिकता के लिए 1955 के अधिनियम के तहत निर्धारित सामान्य प्रक्रिया ही लागू होगी.

1955 का कानून किसी व्यक्ति को नैसर्गिक तौर पर नागरिकता के लिए आवेदन की अनुमति देता है, अगर वह व्यक्ति कुछ अर्हताओं को पूरा करता हो. इसमें एक शर्त यह है कि संबंधित व्यक्ति भारत में पिछले 12 महीनों तक केंद्र सरकार की सेवा में रहा हो, और इससे पहले 14 वर्षों में से कम से कम 11 महीने रहा हो. हालांकि, संशोधन निर्दिष्ट श्रेणियों के लिए निवास की अवधि को घटाकर पांच साल कर देता है.

2019 अधिनियम के साथ संबद्ध उद्देश्यों और कारणों संबंधी वक्तव्य के जरिये इसके पीछे के तर्क को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है. इसमें कहा गया है, ‘पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश का गठन एक विशिष्ट धर्म के आधार पर हुआ है. परिणामस्वरूप, इन देशों में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों से संबंधित लोगों को धर्म के आधार पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है.’


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तमाम याचिकाएं

इस कानून को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं में केरल के राजनीतिक दल आईयूएमएल के अलावा तृणमूल कांग्रेस के सांसद महुआ मोइत्रा, कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के नेता असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस नेता देवव्रत सैकिया और गैरसरकारी संगठन रिहाई मंच व सिटीजन अगेंस्ट हेट और अधिवक्ता एमएल शर्मा तथा कानून के कुछ छात्र शामिल हैं.

पिछले साल जनवरी में केरल ने भी संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत एक मुकदमा दायर किया, और इस तरह वह सीएए को चुनौती देने वाला पहला राज्य बन गया. अनुच्छेद 131 सर्वोच्च न्यायालय को भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवादों को सुनने का अधिकार देता है.

कानून को चुनौती देने वाली तमाम याचिकाओं में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से कई बार किए गए उस ऐलान को आधार बनाया गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि असम में अपनाई गई प्रक्रिया की तर्ज पर पूरे देश में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन तैयार किया जाएगा. उदाहरण के तौर पर 20 नवंबर 2019 को शाह ने राज्यसभा में कहा था कि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा, हालांकि यह आश्वासन दिया था कि ‘किसी भी धर्म के किसी भी व्यक्ति को इससे डरने की कोई जरूरत नहीं है.’

याचिकाएं एनआरसी के साथ जुड़ने के बाद सीएए के असर को लेकर आशंकाएं जताती हैं. उदाहरण के तौर पर आईयूएमएल ने अपनी याचिका में कहा है, ‘संशोधन अधिनियम पारित होना और एनआरसी पर देशभर में अमल होना….यह सुनिश्चित करेगा कि अवैध प्रवासी मुस्लिमों पर तो मुकदमा चलाया जाए और उन अवैध प्रवासियों, जो हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई है, को नैसर्गिक तौर पर भारतीय नागरिक होने का लाभ मिल सके.

याचिकाकर्ताओं का यह भी तर्क है कि सीएए अनुच्छेद 14 (कानून की नजर में सब समान हैं) का उल्लंघन करता है, जो ‘किसी भी व्यक्ति’ को कानून में समान संरक्षण की गारंटी देता है, न कि नागरिकता के आधार पर. वे संशोधित अधिनियम में दो तरह से वर्गीकरण किए जाने को भी चुनौती देते हैं—एक तो यह छह समुदायों की पहचान करता है लेकिन मुसलमानों को छोड़ देता है, और दूसरा यह सिर्फ तीन देशों के लोगों पर लागू होता है.

कई याचिकाकर्ता इस आधार पर ही 2015 और 2016 में केंद्र की तरफ से जारी की गई चार अधिसूचनाओं को भी चुनौती देते है. ये अधिसूचनाएं उपरोक्त छह धर्मों और तीन देशों से संबद्ध अवैध प्रवासियों को पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 और विदेशियों संबंधी अधिनियम, 1946 के तहत निर्वासन और हिरासत से छूट देती हैं.

संशोधनों की आलोचना धर्मनिरपेक्षता के उल्लंघन, अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार), 15 (धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) और 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) आदि के साथ-साथ नागरिकता और संवैधानिक नैतिकता के प्रावधानों के आधार पर भी की गई है.

महुआ मोइत्रा की याचिका में कहा गया है कि यह अधिनियम एक ‘विभाजनकारी, बहिष्करणीय और भेदभावपूर्ण कानून है जो धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षति पहुंचाने वाला है.’


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‘हर किसी के दिमाग में छाया’

सीएए के खिलाफ दलीलों पर सुप्रीम कोर्ट में पहली बार सुनवाई 18 दिसंबर 2019 को हुई, जिसमें कई वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, इंदिरा जयसिंह, सलमान खुर्शीद, अभिषेक मनु सिंघवी, मोहन परासरन, आर. बसंत, संजय हेगड़े मेनका गुरुस्वामी, राजीव धवन, श्याम दीवान और जयंत भूषण आदि याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.

कई वकीलों ने मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे और जस्टिस बी.आर. गवई और सूर्यकांत की पीठ से आग्रह किया कि कानून पर रोक लगाई जाए और मामले की तुरंत सुनवाई शुरू की जाए.

हालांकि, पीठ ने शीतकालीन अवकाश के बाद मामले को सुनने की मंशा जताई और सिर्फ सरकार को नोटिस जारी किया. इसके बाद मामले को 22 जनवरी 2020 तक टाल दिया गया. उस दिन अदालत ने इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, हालांकि, यह माना कि मामला ‘हर किसी के दिमाग में छाया’ हुआ है.

पीठ ने वकीलों को संक्षेप में अपनी प्रारंभिक दलीलें पेश करने की अनुमति दी. सिब्बल, धवन और सिंघवी ने अदालत से मेरिट पर इसकी सुनवाई से पहले यह तय करने को कहा कि क्या मामले को संविधान पीठ को भेजा जाना चाहिए. सिब्बल ने कहा कि अदालत इस बीच यह भी कर सकती है कि सीएए पर अमल कुछ महीनों के लिए रोकने का अंतरिम आदेश जारी कर दे.

हालांकि, अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने किसी भी तरह के स्थगन आदेश या अंतरिम राहत का विरोध करते हुए मांग की कि सबसे पहले केंद्र को अपना जवाब दाखिल करने की अनुमति दी जानी चाहिए.

अदालत ने वेणुगोपाल की दलीलों से सहमति जताई और केंद्र सरकार को चार सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया. इस बीच, उसने आदेश भी जारी किया कि किसी भी हाई कोर्ट को सीएए से जुड़े किसी भी मामले पर सुनवाई नहीं करनी चाहिए.

इसके अतिरिक्त, अदालत ने रजिस्ट्री से सीएए के खिलाफ आई याचिकाओं को सूचीबद्ध करने के लिए दो अलग-अलग श्रेणियां बनाने के लिए भी कहा, एक असम और त्रिपुरा से संबंधित मामलों की और दूसरी देश के बाकी हिस्सों से संबंधित याचिकाओं की. ऐसा असम और त्रिपुरा के याचिकाकर्ताओं की तरफ से उनके मामलों का निपटारा अलग से किए जाने के आग्रह के आधार पर किया गया. उनका तर्क था कि सीएए लागू होने से असम की जनसांख्यिकी में व्यापक बदलाव आएगा, क्योंकि बांग्लादेश से बड़ी संख्या में आए हिंदू शरणार्थी असम में बसे हैं.

मुख्य मामला 18 फरवरी को भी सुप्रीम कोर्ट के सामने आया. उस समय भी नई याचिकाएं दायर की गई थीं, इसलिए उन्हें केंद्र के सामने रखने को कहा गया. तब से और भी कई याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं और उन्हें भी साथ ही संलग्न करने के निर्देश दिए जा चुके हैं लेकिन कोई उपयुक्त सुनवाई नहीं हुई है.

‘कोई हड़बड़ी नहीं’

संजय हेगड़े ने दिप्रिंट को बताया कि शीर्ष अदालत ने इस मामले को ‘शीर्ष प्राथमिकता’ पर नहीं लिया था जब इस पर अंतरिम स्थगन आदेश की मांग की गई थी.

वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा, ‘अदालत नोटबंदी के मामले की तरह ही इस केस को भी शीर्ष प्राथमिकता पर नहीं लेती है, कम से कम अंतरिम आदेश जारी करने के संबंध में. जो कि संभवत: स्थिति को तत्काल शांत करने में काफी कारगर होता.’

हेगड़े ने कहा, ‘आपको याद होगा कि जब मंडल (आयोग की सिफारिशें) का मुद्दा आया और देशव्यापी हंगामा हुआ, वह सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश ही था जिसने स्थिति को संभालने का काम किया, तथ्य यह भी है कि दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने ही मंडल सिफारिशों को बहाल किया. हेगड़े ने कहा कि कभी-कभी किसी सुनवाई में सक्रिय रूप से कुछ करना देश में आए उबाल को घटाने के लिए एक बड़े संदेश के तौर पर कारगर होता है.’

जब मार्च में सीएए याचिकाओं को तत्काल सूचीबद्ध करने की मांग रखी गई थी तो चीफ जस्टिस बोबडे ने कहा था कि वह सबरीमला मामले में बहस के बाद मामले को सूचीबद्ध करेंगे, जिसके बारे में उनका कहना था कि सुनवाई 16 मार्च 2020 से शुरू होगी. लेकिन सिब्बल ने जोर देकर कहा कि इस मामले में केवल दो घंटे की सुनवाई की जरूरत है ताकि अंतरिम राहत प्रदान की जा सके. अदालत ने तब होली के अवकाश के बाद मामले का उल्लेख करने को कहा, जो 16 मार्च को समाप्त होना था. लेकिन अब तक मामले की सुनवाई नहीं हुई है.

5 मार्च को जब सिब्बल ने इस मामले का उल्लेख किया, तो उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र ने याचिकाओं पर अपना जवाब अभी तक दाखिल नहीं किया है. तब वेणुगोपाल ने अदालत को बताया कि जवाब तैयार है और दो दिनों के भीतर दायर कर दिया जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के मुताबिक, याचिकाएं दायर होने के ढाई महीने बाद केंद्र सरकार ने आखिरकार जवाबी हलफनामा दायर किया है. दिप्रिंट को मिले इस हलफनामे में केंद्र ने स्पष्ट किया कहा है कि ‘इतिहास स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि उक्त तीनों देशों में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को बिना कोई अधिकार दिए छोड़ दिया गया था और उक्त संशोधन के जरिये इस कथित ऐतिहासिक अन्याय को किसी अन्य व्यक्ति के अधिकारों को छीने या उसमें कोई कटौती किए बिना ही खत्म करने का उपाय किया गया है.’

संविधान के तहत धर्म की स्वतंत्रता का उल्लंघन किए जाने के तर्क के संदर्भ में केंद्र ने दावा किया कि वास्तव में कानून इसके ठीक विपरीत है. उसका कहना है कि ‘धर्म की स्वतंत्रता के किसी सिद्धांत का उल्लंघन करने के बजाये सीएए तो इन चुनींदा समुदायों की ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ की रक्षा करता है, जिन्हें विशेष रूप से इन पड़ोसी देशों में अपने धर्मों की अभिव्यक्ति और पूजा-पाठ करने के कारण ही सताया गया है.’

इस तर्क पर कि मुसलमानों को इससे विशेष रूप से बाहर रखा गया है, केंद्र ने बताया है कि सीएए में चीन के तिब्बती बौद्धों और श्रीलंका के तमिल हिंदुओं को भी बाहर रखा गया है. इसलिए, उसका दावा है कि सिर्फ मुसलमानों को बाहर रखे जाने का तर्क एकदम निराधार है.

हलफनामे में सीएए के जरिये धर्मनिरपेक्षता के भारतीय आदर्शों को वस्तुत: आगे बढ़ाने का दावा करते हुए कहा गया है, ‘इन चुनींदा पड़ोसी देशों, जो एक खास धर्म को मानने वाले हैं और जहां अल्पसंख्यकों के धार्मिक उत्पीड़न का लंबा इतिहास रहा है, में धार्मिक आधार पर उत्पीड़न को मान्यता देना एक तरह से धर्मनिरपेक्षता, समानता और भाईचारे के भारतीय आदर्श पर अमल करना ही है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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