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Friday, 29 March, 2024
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केरल की डेमोग्राफी बदल रही है, लेकिन उस तरह से नहीं जैसा कि राजनेता बता रहे हैं

'गॉड'स ओन कंट्री' कहे जाने वाले 'अतिथि' कामगार केरल के मजदूरों का बोझ उठा रहे हैं. यहां बंगाली बाजार, भोजपुरी गाने मलयाली मुंडू के साथ मौजूद मिलते हैं.

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सुबह की पहली किरण के साथ कोच्चि की सड़कें बंगाली शब्दों की आवाज़ से गूंजने लगती हैं: इखाने एशो, तोलो- ‘यहां आओ, उठाओ.’

सुबह के 5:45 बजे हैं. मलयाली निवासी अभी भी सो रहे हैं. लेकिन शहर का कचरा उन बंगाली पुरुषों के समूहों द्वारा इकठ्ठा किया जा रहा है जो इस इलाके में धमक चुके हैं.

एक मलयाली महिला अपने घर से बस इतना ही बाहर निकलती है कि वह कूड़ा उठाने वाले की गाड़ी में कूड़ा फेंक सके. दोनों कुछ नहीं बोलते: भाषा उन दोनों के बीच की एक ‘सुविधाजनक’ बाधा है.

केरल की डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी) बदल रही है, लेकिन यह उस तरह से नहीं हो रहा है जिस तरह से राजनेता आपको यकीन दिलवाना चाहेंगे. बंगाली मजदूर अब केरल के कचरा संग्रह उद्योग का लगभग सारा बोझ उठाते हैं. और वे अकेले नहीं हैं: यहां का फर्नीचर सहारनपुर के कारीगरों द्वारा बनाया जाता है; वृक्षारोपण का काम झारखंड के मुंडाओं द्वारा किया जाता है; सुंदरबन के कामगार पारंपरिक मत्स्य पालन के कारोबार में मदद करते हैं; असम की महिलाएं वस्त्र और परिधान के कारखानों में काम करती हैं; ओडिशा की महिलाएं लोगों के घरों में काम करती हैं, और निर्माण क्षेत्र में काम करने के लिए तो पूरे भारत भर से लोग केरल आते हैं.

सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इन्क्लूसिव डेवलपमेंट (सीएमआईडी) के कार्यकारी निदेशक बेनॉय पीटर कहते हैं, ‘यह हमेशा या तो कोई संकट या लोगों की आकांक्षाएं होती हैं जो लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं. हर झुग्गी-बस्ती के ऊपर एक सपनों की छतरी है.’

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केरल की कामगार समस्या और प्रवासन के गणित को अक्सर ‘मध्य पूर्व में रहने वाले 30 लाख मलयाली और केरल में रहने वाले 30 लाख प्रवासियों’ के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है.

राज्य के पास काम और मजदूरी दोनों मौजूद है, लेकिन कड़ी मेहनत वाले काम करने के प्रति स्थानीय लोगों की अनिच्छा उन्हें ‘ईश्वर के अपने देश’ (‘गॉड’स ओन कंट्री’) की तुलना में खाड़ी देशों को पसंद करने को प्रेरित करती है.

केरल सरकार द्वारा प्रवासी श्रमिकों को ‘अतिथि कामगार’ कहा जाता है, लेकिन मलयाली लोग हर किसी को एक सुर में ‘हिन्दीकारन’ कहते हैं. भले ही इस राज्य में अन्य धार्मिक और जातीय समूहों के प्रति बहुत अधिक सहिष्णुता है, फिर भी स्थानीय मलयाली और बाहरी लोगों के बीच बहुत कम मेल-जोल है. प्रवासी कामगार ‘जातीय बस्तियों’ में रहते हैं और केरल के सिर्फ उन्हीं स्थानीय लोगों के साथ बातचीत करते हैं जो या तो उनके नियोक्ता या फिर सहकर्मी हैं.

एक बंगाली कहता है, ‘मलयाली वैसे भी भारत से बाहर जाते रहते हैं – काम तो काम है. हम बस अपना काम कर रहे हैं, और फिर वह अपने द्वारा इकठ्ठा किए गए कचरे को एक ट्रक में लोड करना शुरू कर देता है, जिसे कोचीन नगर निगम के लिए काम करने वाले दो मलयाली पूरे शहर में घुमाते हैं.

इबरार कहते हैं, ‘केरल के बारे में जो बात है वह है पैसा.’ मूलरूप से गुवाहाटी के रहने वाले इबरार कोच्चि की सबसे बड़ी मलिन बस्तियों (झुग्गी) में से एक, काथ्रिकाडुवु, में रहते हैं, और प्लास्टिक कचरा इकट्ठा करने के बदले प्रतिदिन लगभग 500 रुपये कमाते हैं. उनका दिन अहले सुबह 3:30 बजे शुरू होता है, वे पहले कचरा उठाते हैं और फिर इसे छांटने में समय खर्च करते हैं. कचरे के बड़े ढेरों के बारे में उन्हें अपने असम और बंगाल के अन्य प्रवासी दोस्तों से सूचना मिलती है जो रेस्तरां में काम करते हैं.

वे कहते हैं, ‘यह केवल हमारे लोग हैं जो यह काम करते हैं.’

कोच्चि में बंगाली कचरा इकट्ठा करने वालों का एक समूह | वंदना मेनन | दिप्रिंट

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केरल ही क्यों?

शाजीब शेख अपनी शामें प्रवासियों के एक और सीमित दुनिया (माइक्रोकॉस्म) – पेरुंबवूर स्थित बंगाली मार्केट – में बिताते हैं.

31 वर्षीय शेख पास के एक कारखाने में सीमेंट की ईंटें बनाते हैं, जो केरल के होटल, मॉल और कार्यालयों के निर्माण में काम आती हैं. शाम के करीब 6 बजे, वह अपने काम से निकल जाते हैं और अपने हैंगआउट स्पॉट (मौज-मजे की जगह) पर पहुंच जाते हैं. यह मध्य केरल में स्थित एक मिनी-बंगाल जैसा है, लेकिन यह अन्य राज्यों के प्रवासियों के लिए भी एक आरामदायक स्थान है. और जो चीज उन्हें केरल में खींच लाती है वह है यहां का पैसा और अपेक्षाकृत कम धार्मिक भेदभाव.

शाजीब 10 साल से, जब से उनका पहला बेटा पैदा हुआ था, मुर्शिदाबाद से केरल आ रहे हैं, लेकिन फिर भी वे यहां बसे नहीं है. वह केरल के ‘रिवॉल्विंग डोर’ से गुजरने वाले हजारों मौसमी प्रवासियों में से एक हैं. उनका मौजूदा अनुबंध सिर्फ छह महीने का है. लेकिन अगर वह अचानक से बीच में काम छोड़कर चले भी जाते हैं, तो भी उन्हें विश्वास है कि जब वह वापस आने की योजना बना रहे होंगे तो केरल में उनके लिए हमेशा से कोई न कोई नौकरी जरूर मौजूद होगी.

शाजीब कहते हैं, ‘कम से कम यहां केरल में अधिक पैसा तो है, और लोग भी अधिक शिक्षित हैं. इसलिए अगर कोई समस्या होती भी है, तो भी ज्यादातर लोग इसे अपने नियोक्ताओं के साथ सुलझा लेते हैं क्योंकि (यहां मिलने वाला) पैसा इसके लायक है. केवल एक नियोक्ता ने मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया था – मैंने उसके साथ दो सप्ताह तक ही काम किया, फिर मैंने अपना वेतन लिया और कभी वापस नहीं गया.’

केरल के पेरुम्बवूर में बंगाली मार्केट के पास दो युवा प्रवासी श्रमिक। | वंदना मेनन | दिप्रिंट

यह राज्य असंगठित क्षेत्र के कामगारों लिए भारत में सबसे अधिक न्यूनतम मजदूरी प्रदान करता है, जो प्रतिदिन औसतन 700-800 रुपये है. केरल में काम करने वाला औसत प्रवासी कामगार 10,000 रुपये से 15,000 रुपये प्रति माह कमाता है. लगभग 22 प्रतिशत प्रवासी एक महीने में 20,000 रुपये से अधिक कमा लेते हैं. चूंकि यह एक अत्यधिक मोबाइल (चलता-फिरता) कार्यबल है, इसलिए इस पर जनसांख्यिकीय दृष्टिकोण से नजर रखना मुश्किल है: अधिकांश प्रवासी मौसमी श्रमिक होते हैं, और अपने अनुबंध तथा काम की उपलब्धता के आधार पर अपने गृह राज्य और केरल के बीच आते जाते रहते हैं.

एक सामुदायिक रसोई और स्नानघर के साथ तंग, मंद रोशनी वाले आवास में सैकड़ों कामगार एक साथ रहते हैं. मर्द लोग अलग-अलग क्वार्टर में रहते हैं, जबकि परिवारों के पास थोड़ी अधिक जगह होती है. प्रत्येक कमरे का किराया मकान मालिक द्वारा तय किया जाता है, और उनमें से अधिकांश को किराए बचाने के लिए एक ही कमरे में रहने वाले कई पुरुषों के साथ कोई समस्या नहीं होती है.

जो परिवार पलायन करके आये हैं, वे कुट्टीपदम के पुरुष-प्रधान बंगाली बाजार से थोड़ी दूर रहते हैं. महिलाएं सब्जियां (जिनके बारे में वे कहती हैं कि यह बंगाल और उत्तर पूर्व में सब्जियों की तुलना में काफी महंगी हैं) खरीदती हैं, ताकि वे अपनी सामुदायिक रसोई में बड़ी मात्रा में खाना बना सकें.

उनमें से एक, अनिमा, एक दुकानदार को इशारा कर रही हैं और टूटी-फूटी मलयालम में बात करने की कोशिश कर रही हैं, जबकि उसका बच्चा सब्जियों के प्लास्टिक बैग से लटका हुआ है.अनिमा अपनी बेटी को स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए काफी सारी दौड़-धूप कर रही थीं, लेकिन एक स्थानीय प्लाईवुड कारखाने में लगी उसकी नौकरी और मलयालम को समझने में उसकी अक्षमता ने इसे एक कठिन संघर्ष बना दिया था.

जब एक स्थानीय गैर-लाभकारी संस्था, सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इन्क्लूसिव डेवलपमेंट, ने उन बच्चों के माता-पिता से संपर्क किया, जिन्हें उन्होंने दिन के समय बाहर खेलते हुए देखा था, तब जा कर अनिमा उनकी मदद ले सकीं और उनकी बेटी का दाखिला संभव हुआ.

मूलरूप से डिब्रूगढ़ की रहने वाली अनिमा कहती हैं, ‘समस्याएं तो हमेशा रहती हैं, लेकिन अभी के लिए मैं आराम से हूं.’ वह कहती हैं, ‘भाषा की जानकारी न होना बहुत मुश्किल वाली बात है. लेकिन मैं असम के बहुत से लोगों से मिली हूं – मुझे पता है कि लोग पेरुंबवूर को इस कारण से पसंद करते हैं, क्योंकि वे वास्तव में अपने मूल स्थान के किसी व्यक्ति को यहां पा सकते हैं.‘


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कुट्टीपदम में रहने वाली अनिमा और उनकी बेटी। | वंदना मेनन | दिप्रिंट

इसी तरह के हलके शहरों और कस्बों में व्यवस्थित रूप से विकसित हो गए हैं, जहां प्रवासी आबादी रहती है, लेकिन फिर भी पेरुंबवूर जो कोच्चि से लगभग 90 मिनट की दुरी पर है – शहर से अपनी निकटता के कारण एक पसंदीदा प्रवासी केंद्र बन गया है. शाम के समय, पुरुषों के काम से लौटना शुरू करते ही, कांदंथरा स्थित बंगाली मार्केट, गतिविधियों का एक केंद्र सा बन जाता है. यहां के सभी किराना स्टोर में फीके पड़ गए बंगाली साइन बोर्ड लगे हैं. बंगाली मछली के कटलेट और चॉप जैसे व्यंजन मलयाली किराना स्टोर पर पारम्परिक रूप से मिलने वाले मुख्य आहार – लटकते केले के गुच्छों- के साथ-साथ बेचे जाते हैं.

हिंदी में डब की गई फिल्में देखने के लिए कामगार छोटे टीवी स्क्रीनस के आसपास इकट्ठा होते हैं. वे स्थानीय रेस्तरां – खदीजा बंगाली होटल – में एक साथ खाना खाते हैं और आपस में बात करते हैं. उन्हीं श्रमिकों में से एक का कहना था कि उसे अपने अंतरराज्यीय प्रवासी पहचान पत्र के लिए आवेदन करना होगा. दूसरा पूछता है कि क्या उसके पास व्हाट्सएप है: क्योंकि सरकार अब इस कार्ड की सॉफ्ट कॉपी भेजती है.

रविवार को, शहर के मुख्य -गांधी बाजार- का रूप ही बदल जाता है और अब इसे ‘भाई’ बाजार के रूप में जाना जाने लगा है: मलयाली गैर-स्थानीय कामगारों को ‘भाई’ कहते हैं. रविवार को, अपने छुट्टी के दिनों में, कारखानों के कर्मचारी पैसे खर्च करने या बस स् बाहर घूमने-फिरने की खातिर उस बाज़ार में जाते हैं. वहां लगे अस्थायी स्टॉल बंगाली बीड़ी और पान बेचते हैं, और बाजार में मोबाइल फोन की दुकानों से निकलने वाले भोजपुरी गाने और उड़िया भजनों की आवाजें सुनाई देती रहती हैं.

पेरुम्बवूर के ‘भाई बाजार’ में आने के लिए प्रवासी कामगार अंगमाली और कोच्चि जैसे स्थानों से यहां तक की यात्रा करते हैं. कभी-कभी वे मनके से बने हार और खिलौनों की तरह अपने स्वयं के सामान भी बेचते हैं – यह प्रवासियों द्वारा प्रवासियों के लिए चलाया जाने वाला बाजार है.

सांस्कृतिक चिंताएं

वहीं रूढ़िवादी, ज़ेनोफोबिक (नस्ल विरोधी) धारणाएं जो दुनिया भर में प्रवासियों का पीछा करती हैं, केरल में भी प्रवासी श्रमिकों के पीछे लगीं हैं: जैसे कि वे स्थानीय संस्कृति पर एक ‘बुरा प्रभाव’ डालते हैं, कि वे स्थानीय श्रमिकों के लिए मजदूरी कम करवा देते हैं, और यह कि वे आक्रामक होते हैं और अक्सर झगड़े में पड़ जाते हैं.

लेकिन कोई इस बात की शिकायत नहीं करता कि वे स्थानीय लोगों की नौकरी छीन रहे हैं – क्योंकि मलयाली खुद उन नौकरियों में काम नहीं करना चाहते हैं.

तिरुवनंतपुरम स्थित सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज की प्रोफेसर प्रवीणा कोडोथ के अनुसार, पेरुंबवूर की अर्थव्यवस्था प्रवासी श्रमिकों पर ही निर्भर करती है.

कोडोथ कहती हैं, ‘प्रवासी कामगार अपने जीवन-यापन पर बहुत पैसा खर्च करते हैं – वे अपनी अधिक मजदूरी आवास और भोजन पर खर्च कर देते हैं. सांस्कृतिक तनाव यह है कि मलयाली इस सब से बहुत खुश नहीं हैं, लेकिन आर्थिक पहलू कुछ ऐसा है जिससे वे लाभान्वित हो रहे हैं.’

इस बात पर सतर्कता बरती जा रही है कि किसे रहना है, और लोग कितनी अच्छी तरह ‘जोड़’ कर रहे हैं – यह अपने आप में एक कठिन काम है क्योंकि अधिकांश प्रवासी मौसमी और चलते-फिरते होते हैं. केरल को अपनी शिक्षा प्रणाली पर गर्व है, और मलयालम सीखने वाले प्रवासी बच्चे सांस्कृतिक बाधाओं को तोड़ने के एक कदम और करीब आ जाते हैं.

लेकिन स्कूल भी तनाव का एक स्थल बन जाते हैं. कोडोथ, जो शिक्षा तक लोगों की पहुंच का अध्ययन करती हैं, के अनुसार वह उन स्कूलों के बारे में जानती हैं जो प्रवासी बच्चों के नामांकन से इनकार कर देते हैं, और उन्हें ऐसे माता-पिता-शिक्षक संघों के बारे में भी पता है जो प्रवासी बच्चों की बढ़ती संख्या को एक संभावित मुद्दे के रूप में सामने ला रहे है. स्थानीय स्वशासन इसमें शामिल न होकर इसकी प्रतिक्रिया से बचता है.

यही कारण है कि सैकड़ों प्रवासी खुद को जातीय घेरेबंदियों में समेटे हुए रह रहे हैं.

पेरुम्बवूर में रहने वाले एक स्थानीय सीटू कार्यकर्ता अजितन ने खुद एक सिगरेट सुलगाते हुए ऐलान किया, ‘शराब, ड्रग्स, महिलाएं. यही उनकी समस्या है. और वे बहुत जोर से बोलते हैं.‘

‘शोर मचाने वाले और आक्रामक हिंदीकारन‘ का स्टीरियोटाइप व्यापक रूप से साझा किया जाता है. स्थानीय मलयाली अक्सर उनके बीच होने वाले झगड़े, खासकर पेरुम्बवूर के बंगाली बाज़ार में, की शिकायत करते हैं.

और, जैसा कि राजस्थान के सवाई माधोपुर से आने वाले एक टैटू कलाकार रॉकी – जो आमतौर पर कोच्चि के मरीन ड्राइव पर बैठते हैं- मानते हैं, इसमें कुछ सच्चाई हो सकती है. वह पिछले सप्ताहांत के संडे मार्केट में एक बंगाली कामगार के साथ चिल्लाने वाली होड़ में शामिल होने की बात भी स्वीकार करते हैं. वह कहते हैं, ‘वह मुझे 2000 रुपये के टैटू के लिए 200 रुपये देना चाहता था, तो निश्चित रूप हमने हिंदी में लड़ाई की.’ उन्होंने आगे कहा, ‘कुछ अन्य हिंदी भाषी लोगों ने हमें रोका. मलयाली बस तमाशा देख रहे थे.’

रॉकी, राजस्थान के सवाई माधोपुर के एक टैटू कलाकार। वह कोच्चि के मरीन ड्राइव से अपना बिजनेस चलाते हैं | वंदना मेनन | दिप्रिंट

और मलयाली – जैसे नसीर, जो एक मकान मालिक हैं – जरूर सतर्क नजर रखते हैं. वह और उनका भाई नौशाद, जो पेरुंबवूर में एक दुकानदार है, अपने किरायेदारों की लगातार निगरानी करते हैं. उन्हें उन महिलाओं पर बहुत शक होता है जो उनके ‘अकेले’ पुरुष किरायेदारों के साथ हेलमेल बढ़ा सकती हैं. लगभग 15 वर्षों से प्रवासियों के लिए आवास की सुविधा प्रदान करते हुए, वे वर्तमान में लगभग 30 पुरुषों को एक लाइन से बने चार कमरों और एक आउटबिल्डिंग में रखते हैं – इनमें से ज्यादातर पश्चिम बंगाल, असम और उत्तर प्रदेश से हैं.

वह कंधे उचकाते हुए कहते है, ‘किराया लगभग 1,000 रुपये प्रति माह है – यदि एक व्यक्ति स्वयं इसे वहन कर सकता है, तो हमें कोई समस्या नहीं है. बेशक, हम नशीले पदार्थों और महिलाओं जैसी चीजों को प्रोत्साहित नहीं करते हैं. ये लोग सभ्य हैं, लेकिन आप जानते हैं कि यह सब कैसा है!’ उन्होंने कई पुरुषों से ‘महिलाओं को अपने कमरे में लाने’ के लिए अपना मकान छोड़ने के लिए कहा हुआ है.

उनके पीछे उनका एक किरायेदार मुस्कुराते हुए खड़ा है. प्लाइवुड की एक फैक्ट्री में काम करने वाले 32 वर्षीय मुशर्रफ हिंदी में कहते हैं, ‘यह इतना भी बुरा नहीं है. यहां भी लगभग सभी लोग मुस्लिम हैं, यहां सभी के साथ समान व्यवहार किया जाता है.’ मूलरूप से मुर्शिदाबाद के रहने वाले मुशर्रफ ने अपनी पत्नी और तीन बच्चों को घर पर छोड़ रखा है और अब एक अन्य व्यक्ति के साथ एक कमरा साझा करते हैं. वे कहते हैं, ‘हमें यह पसंद हो या नहीं, हमें बस काम करना है?’


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गॉड्स ओन वर्कफोर्स

केरल के पास देने को काम बहुत है, लेकिन उसका अपना कार्यबल नहीं है.

सीएमआईडी के एक अध्ययन, जिसका शीर्षक ‘गॉड्स ओन वर्कफोर्स: अनरेवलिंग लेबर माइग्रेशन टू केरल’ है, के अनुसार केरल में अधिकांश प्रवासी श्रमिक एससी/एसटी और अल्पसंख्यक समुदायों से आते हैं. उनमे से पांच-चौथाई (80%) से अधिक आठ भारतीय राज्यों : ओडिशा, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, कर्नाटक और तमिलनाडु – से हैं. वे जिन उद्योगों में काम करते हैं, वे विविध हैं और शारीरिक श्रम पर बहुत अधिक निर्भर हैं – खनन और उत्खनन से लेकर आतिथ्य तक, केरल के सभी प्रमुख आर्थिक क्षेत्र प्रवासी श्रमिकों के बल पर ही चलते हैं.

और फिर भी, सीएमआईडी के बेनॉय पीटर के अनुसार, सरकार उन्हें प्रतीकात्मक रूप से ‘अतिथि कामगार’ के रूप में संदर्भित करती है.

पीटर ने कहा, ‘केरल को इन प्रवासियों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में व्यवहार नहीं करना चाहिए – यह वास्तव में केरल है जो युवा श्रमिकों के लिए बेताब है.’ केरल में अनिवासी केरलवासियों की देखभाल करने वाला एक पूरा सरकारी विभाग है, लेकिन प्रवासी श्रमिकों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है.

उन्होंने उस जनसांख्यिकीय संक्रमण की ओर इशारा किया जिससे केरल पिछले 30 वर्षों में गुजर रहा है. भारत में सबसे कम जनसंख्या वृद्धि दर केरल की है, जो राष्ट्रीय औसत – 17.6 प्रतिशत – के मुकाबले सिर्फ 4.9 प्रतिशत है. केरल के दो जिलों – पथानामथिट्टा और इडुक्की – की जनसंख्या वृद्धि दर तो नकारात्मक है.

पीटर के अनुसार, काम के अवसरों की पेशकश के अलावा भारत भर में विकास के स्तर में असमानता एक और कारण है जो केरल में प्रवास की वकालत करता है. वे कहते हैं ‘यह सामाजिक प्रसार है. अन्य राज्यों की तुलना में यहां मानव विकास बहुत तेजी से हो सकता है.‘

शिक्षा में पर्याप्त निवेश ने शिक्षित लोगों में उच्च स्तर की बेरोजगारी के साथ-साथ शारीरिक श्रम करने वाले लोगों की कमी को भी पैदा किया है. कोडोथ कहती हैं, ‘मलयाली लोगों की शैक्षिक प्रोफाइल ने अपने आप में एक नया आयाम ले लिया है. ऐसी भावना है कि मलयाली किसी खास तरह के काम को तुच्छ समझेंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे काम उनके लायक नहीं हैं. यही कारण है कि हमारे पास लगभग हर संभव क्षेत्र में प्रवासी श्रमिक हैं.‘

साथ ही मध्य पूर्व का आकर्षक खिंचाव अभी भी केरल में महसूस किया जाता है – और प्रवासियों और उनके लाभ के लिए काम करने वालों ने भी इसे देखा है.

कोडोथ कहती हैं, ‘लोग कहते हैं कि यह प्रवासियों की खाड़ी के देशों जैसा है, और यह वास्तव में वैसा ही है. हमारी अर्थव्यवस्था उनके श्रम पर चलती है, हम पूरी तरह से उन पर निर्भर हैं; और फिर भी हम उनके साथ इतना बुरा व्यवहार करते हैं. ठीक वैसे ही जैसे अरब लोग भारतीयों के बारे में सोचते हैं.’

श्रम को संगठित करना

केरल में नियोक्ता प्रवासी श्रमिकों को इस वजह से काम पर रखते हैं क्योंकि यह स्थानीय श्रम की तुलना में सस्ता और अधिक निंरतरता वाला है.

लेकिन प्रवासी कामगारों के बीच भी, कुछ प्राथमिकताएं और पूर्वाग्रह हैं जो नौकरियों को उनके हिसाब से छांटते हैं. उदाहरण के लिए, उत्तर भारतीयों को तमिल श्रमिकों की तुलना में अधिक पसंद किया जाता है क्योंकि तमिल लोग अधिक बहस करने वाले होते हैं और मलयालम या तमिल में अपने वेतन एवं काम के घंटों के बारे में तोल-मोल कर सकते हैं. और एक श्रमिक ठेकेदार के अनुसार, उत्तर और पूर्व के अविवाहित पुरुष अधिक आज्ञाकारी होते हैं.

साथ ही, सभी अतिथि कामगारों को अधिक ‘सम्मानजनक’ नौकरियां नहीं मिल पाती हैं. कोच्चि के लुलु मॉल में कार्यरत 17 वर्षीय सुरक्षा गार्ड अविनाश, जो नागालैंड से है, ने सुना है कि उत्तर-पूर्व से होने के अलावा अच्छा दिखने के साथ फ्रंट-डेस्क वाली नौकरी, जिसमें ग्राहकों के साथ आमने-सामने समय बिताना शामिल होता है, मिलने की संभावना बढ़ जाती है – लेकिन उन्हें पहले मलयालम सीखनी होगी.

उन्होंने केरल में काम करने और कॉलेज की पढ़ाई के लिए पैसे बचने के लिए अपने 21 वर्षीय बड़े भाई का अनुसरण किया. उसे यकीन नहीं है कि वह फ्रंट डेस्क की नौकरी करेगा, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए पर्याप्त पैसे बचाने के लिए उसने खुद को तीन साल का समय दिया हुआ है.

पीटर कहते हैं कि अगर ट्रेड यूनियन प्रवासी श्रमिकों को अपने पाले में लेने के लिए तैयार हों, तो अधिकांश प्रवासियों की समस्याओं का समाधान हो जाएगा. लेकिन स्थानीय ट्रेड यूनियनों की प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के लिए लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है.

पेरुम्बवूर के स्थानीय सीटू के सदस्यों के अनुसार, अतिथि कामगार बहुत अस्थिर और अनियमित होते हैं. सीटू चैप्टर के सचिव शशि भी इसी बात को दोहराते हैं कि ये कामगार ‘अशांति पैदा करते हैं’ और अक्सर ‘आपस में लड़ते रहते हैं.’

एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि एर्नाकुलम जिले में 95 प्रतिशत प्रवासी श्रमिक किसी भी ट्रेड यूनियन का हिस्सा नहीं हैं. जो सदस्य थे वे भी बड़े पैमाने पर तमिलनाडु से थे- असम और पश्चिम बंगाल के केवल 1.1 प्रतिशत श्रमिक ही ट्रेड यूनियनों के सदस्य थे.

अनुबंध वाले श्रमिक जिस तरह से काम करते हैं उसका वर्णन करते हुए शशि कहते हैं, ‘हम उनका प्रतिनिधित्व नहीं करते क्योंकि वे स्थिर नहीं रहते हैं. वे बहुत घूमते रहते हैं – एक सप्ताह वे इस शहर में काम करते हैं, अगले सप्ताह वे दूसरे शहर में चले जाते हैं. और वे मलयालम नहीं बोलते हैं. वे मलयाली लोगों से अलग-थलग रहते हैं और वास्तव में ‘संगठित’ नहीं होते हैं.’

शशि का कहना है कि केरल आने से पहले श्रमिकों को अपने गृह राज्य में संघ बनाना चाहिए, फिर सीटू की राष्ट्रीय उपस्थिति उन्हें समाहित कर लेगी. प्रवासी श्रमिकों को एकजुट करने के प्रयास में, सीटू जनरल काउंसिल ने मई 2022 में पश्चिम बंगाल के ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट नेताओं को केरल में आने और काम करने के लिए आमंत्रित किया था.

प्रवासी श्रमिकों को राज्य सरकार के साथ पंजीकृत करने पर भी जोर दिया जा रहा है : श्रम मंत्री वी शिवनकुट्टी ने श्रम विभाग को श्रम ठेकेदारों को भी लाइसेंस जारी करने का निर्देश दिया. अतिथि कामगारों को पंजीकृत करने के लिए भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण कोष बोर्ड (बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर फण्ड बोर्ड) द्वारा विकसित ‘अतिथि ऐप’ नामक एक ऐप भी लॉन्च किया गया है.


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ऊपर उठना भी संभव है

कौशल्या और अमित मंडल 39 साल पहले साल 1983 में ओडिशा से केरल आए थे. कौशल्या हाल ही में घरेलू कामगार के रूप में सेवानिवृत्त हुई हैं, जबकि अमित पेशे से माली हैं. आज के दिन में इस दंपति के पास कोच्चि के चंबक्करा में एक तीन मंजिला घर है. उन्होंने इसे बनाने में 90 लाख रुपये खर्च किए और हर महीने अपने घर पर 40,000 रुपये की मासिक किस्त (ईएमआई) का भुगतान करते हैं.

कौशल्या और अमित आज के केरल में काफी कुछ एक अपवाद की तरह हैं, लेकिन इस तथ्य के प्रमाण भी मौजूद हैं कि क्लास मोबिलिटी (अपने वर्ग से ऊपर उठना) भी केरल की इस कहानी का एक हिस्सा है.

अमित कहते हैं, ‘जब हम पहली बार यहां आए थे तो हमें वास्तव में केरल बहुत पसंद आया था, लेकिन हमने सोचा था कि हम यहां केवल कुछ वर्षों के लिए ही रहेंगे. फिर मैं बीमार पड़ गया, और मलयाली लोगों ने हमारी मदद की – ऐसा प्यार हमें कहीं और नहीं मिलेगा.’ उन्होंने आगे कहा, ‘और यहां कोई खास चोरी या अपराध भी नहीं है. राज्य सरकार बहुत कुछ करती है. ओडिशा की राज्य सरकार भी मदद करती है, लेकिन यहां जितनी नहीं.’

अमित का अनुमान है कि उन्होंने लगभग 300 लोगों को ओडिशा से केरल में प्रवास करने में मदद की होगी, जिसमें उनके विस्तारित परिवार के सदस्य भी शामिल हैं. मंडल की दूसरी पीढ़ी के सभी सदस्य एक-दूसरे से मलयालम में बातचीत करते हैं: आखिरकार, वे केरल में ही पले-बढ़े हैं. कौशल्या और अमित के बेटे सूरज रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल की सवारी करते हैं और हिंदी की तुलना में धाराप्रवाह मलयालम ज्यादा बोलते हैं.

कौशल्या (बाएं) हाल ही में एक घरेलू कामगार से सेवानिवृत्त और उनके पति अमित, जो कि माली हैं, कोच्चि के चंबक्करा में अपने तीन मंजिला घर में | वंदना मेनन | दिप्रिंट

उनकी एक रिश्तेदार कनक मंडल, जो एक घरेलू कामगार हैं, ने भी अभी-अभी 11.5 लाख रुपये में जमीन का एक प्लॉट खरीदा है. 37 वर्षीय कनक केरल में 17 साल से रह रही हैं, और वह अपने दोनों बच्चों को इसी राज्य में पाला है. वह अपना एक घर बनाने के लिए बचत कर रही हैं, और आगे की वित्तीय सहायता की उम्मीद कर रही हैं – वह एक गोल्ड लोन और अपने तीन नियोक्ताओं से कुछ आर्थिक मदद भी ली हैं. उनके बच्चे, प्रदीप और निशांत, एक स्थानीय निजी स्कूल में पढ़ने जाते हैं और एक-दूसरे से सिर्फ मलयालम में बात करते हैं – कनक ने खुद छठी कक्षा तक पढ़ाई की है.

कनक कहती हैं, ‘मेरा सपना हमेशा से अपना घर बनाने का था.’ उनका आठ साल का बेटा निशांत उनके पास आता है और कहता है कि उसने पहले ही अपना बाथरूम डिजाइन कर लिया है. केरल में रहने वाले 93 फीसदी प्रवासी कामगार शौचालय साझा करते हैं, जबकि, चिंताजनक रूप से, तीन फीसदी का कहना है कि वे अभी भी खुले में शौच कर रहे हैं.

वह कहती हैं कि बालासोर में रहने वाले उनके कुछ रिश्तेदार उनसे थोड़े ईर्ष्यालु हैं, और सभी तरह की वित्तीय मदद के लिए उन पर निर्भर करते हैं. उन्होंने कहा, ’मैं उनकी शिकायतें एक कान से सुनती हूं और दूसरे कान से निकाल देती हूं. मेरी बहनें मेरे काम को नहीं समझती हैं – उन्हें लगता है कि मुझे बिना काम किये बहुत अधिक पैसा मिलता है. लेकिन यह सच नहीं है.’

कनक का कहना है कि वह कौशल्या और अमित को अपने ‘रोल मॉडल’ के रूप में देखती हैं. उन्होंने अपनी खुद की संपत्ति जमा नहीं की, बल्कि उन्होंने इसे साझा किया और अन्य प्रवासियों की आकांक्षाओं में मदद की. कौशल्या कहती हैं कि उन्हें नहीं लगता कि मलयाली या प्रवासी जब उनके घर आते हैं तो वे उनसे ईर्ष्या करते हैं – इसके बजाय, वह उनका आशीर्वाद लेती हैं.

कौशल्या कहती हैं, ‘मलयाली खुद हमें बताते हैं कि उत्तर भारतीय केरल में विकास लेकर आये हैं. केरल में श्रम करने को लेकर कोई प्रतिष्ठा नहीं है. लेकिन वे दुबई में मजदूरी करते हैं, है कि नहीं? फिर वे स्टाइल के साथ वापस आते हैं.’

फिर वह वापस अपने बैगनी रंग के सोफे पर बैठ जाती हैं, और उनका परिवार अपने 55’ फ्लैट स्क्रीन टीवी पर क्रिकेट मैच देखना जारी रखता है.

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