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Sunday, 22 December, 2024
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दिल्ली ‘धिल्लिकापुरी’ थी, कुतुब मीनार था ‘सूर्य स्तंभ’- हिंदुत्व-समर्थक प्रेस ने राजधानी के हिंदू अतीत पर कहा

हिंदुत्व-समर्थक मीडिया ने पिछले कुछ दिनों की खबरों और सामयिक मुद्दों को कैसे कवर किया और उन पर क्या टिप्पणियां कीं, दिप्रिंट ने इस पर नज़र डाली.

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नई दिल्ली: कुतुब मीनार कभी एक सूर्य स्तंभ था और दिल्ली थी धिल्लिकापुरी- वो शहर जिसे एक हिंदू राजा ने 11वीं शताब्दी में बसाया था- ये दावा किया गया है इस हफ्ते के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र पाञ्चजन्य में.

राष्ट्रीय राजधानी के अतीत पर निशाना साधते हुए पत्रिका की कवर स्टोरी में आरोप लगाया गया कि ‘वामपंथी इतिहासकारों’ ने दिल्ली के असली इतिहास को अस्पष्ट कर दिया था.

‘दिल्ली किसकी’ शीर्षक से पाञ्चजन्य की कवर स्टोरी में दावा किया गया, ‘सभी ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से आभास होता है कि दिल्ली की स्थापना हिंदू सम्राट अनंगपाल द्वितीय ने की थी. यहां पर तोमर वंश का राज था और उसने इसे धिल्लिकापुरी का नाम दिया. ब्रिटिश पुरातत्वविद जनरल कनिंघम द्वारा खोजे गए बहुत से शिलालेखों से भी इसकी पुष्टि होती है. इसके बावजूद एक लंबे समय तक सच्चाई कागज़ों में दबी रही. लेकिन वामपंथी इतिहासकारों द्वारा तैयार की गई ये मिथ्या धारणा ज़्यादा समय तक नहीं चलेगी. दिल्ली के असली संस्थापक को गुमनामी से निकालने के प्रयास शुरू हो गए हैं’.

कथित पूर्वाग्रह और चूक को सही करने के लिए भारत के इतिहास की किताबों को फिर से लिखना, राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कांग्रेस के साथ नाकाम बातचीत और नई दिल्ली में नया प्रधानमंत्री संग्रहालय उन दूसरे विषयों में से थे, जो इस हफ्ते आरएसएस तथा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उनके सहयोगी संगठनों से जुड़े प्रकाशनों, तथा कुछ दक्षिणपंथी लेखकों के लेखों के पन्नों पर छाए रहे.


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अनंगपाल तोमर और सूर्य स्तंभ

दिल्ली के इतिहास पर पाञ्चजन्य के लेख से पहले मध्य-अप्रैल में राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण ने महरौली में अनंगपाल बावली के पास एक हेरिटेज वॉक का आयोजन किया था, जिसमें वरिष्ठ आरएसएस नेता अनंगपाल भी शरीक हुए थे. माना जाता है कि इस बावली का निर्माण अनंगपाल द्वितीय तोमर ने किया था. बाद में केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी और अर्जुन राम मेघवाल ने भी इस इलाके का दौरा किया, जहां मेघवाल ने दिल्ली विकास प्राधिकरण से जर्जर बावली की मरम्मत के लिए कहा.

पुरालेखीय साक्ष्यों- जिनमें बिजोलिया, सरबन और दूसरे संस्कृत पुरालेख शामिल हैं- से आभास होता है कि राजा अनंगपाल ने 1052 और 1060 के बीच धिल्लिकापुरी का निर्माण कराया था.

पाञ्चजन्य के लेख के अनुसार, ‘कुल मिलाकर, ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि तोमर वंश के शासन काल में दिल्ली एक बहुत छोटी सी नगरी थी. पुरातात्विक साक्ष्य से अनंगपाल तोमर की इंजीनियरिंग क्षमताओं का भी पता चलता है. अनंगपुर किला फरीदाबाद के पास अनंगपुर गांव में स्थित है. अनंग बांध और सूरजकुंड जलाशय उस दौर की जल संचयन तकनीक की शानदार मिसालें हैं. अनंगपाल द्वितीय की मृत्यु 1081 ईसवी में हुई. उसने 29 साल, छह महीने और 18 दिनों तक दिल्ली पर शासन किया’.

पाञ्चजन्य के ही एक और लेख में दिल्ली के श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डॉ अनेकांत जैन ने कहा कि दिल्ली के महरौली में कुतुब परिसर में स्थित कुतुब मीनार- जिसे सुल्तान क़ुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा 13वीं सदी में निर्मित बताया जाता है- मूल रूप से एक सूर्य स्तंभ था.

उन्होंने लिखा, ‘12वीं-13वीं सदी का कवि बुद्धश्रीधर ‘धिल्ली’ कही जाने वाली एक जगह का उल्लेख करता है, जिसके खंभे आसमान को छूते थे. एक और जैन इतिहासकार प्रोफेसर राजाराम जैन ने उस स्तंभ की तुलना कुतुब मीनार से की है, जिसका निर्माण राजा अनंगपाल ने कराया था. बुद्धश्रीधर ने कहा था कि बहुत से शिलालेखों में छोटी या बड़ी घंटियां बनीं थीं, जिनसे संकेत मिलता था कि जरूर कोई बड़ी घंटी भी रही होगी, जो एक खास अंतराल के बाद बजकर समय बताती होगी’.

जैन ने आगे कहा, ‘कुतुब मीनार के पास ही बनी हुई क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के मुख्य द्वार पर अरबी भाषा में एक शिलालेख है. क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने लिखा है: ‘587 हिजरी (1191-92 ईसवी) में क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने इस किले पर फतेह हासिल की और सूर्य स्तंभ के परिसर में बने हुए 27 बुतख़ानों (मंदिरों) को तोड़कर इस मस्जिद को बनवाया. हर एक मंदिर 20 लाख देहलीवाल (दिल्ली में ढलने वाले सिक्के का नाम) की लागत से बना था’.


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‘दूसरे’ नज़रिए से इतिहास

आरएसएस के अंग्रेज़ी मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र ने इस हफ्ते अपनी कवर स्टोरी, एनसीईआरटी की 10वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तकों से मुगल इतिहास के कुछ हिस्सों को हटाने पर चल रहे विवाद #TextbookDebate को समर्पित की. लेख में तर्क दिया गया कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में महत्वपूर्ण मुद्दों की अनदेखी की गई है और प्रारंभिक मध्यकाल तथा मध्यकालीन दौर की उनकी कवरेज बहुत सारे पूर्वाग्रहों से ग्रसित है.

‘डिस-कोर्स करेक्शन’ शीर्षक से अपने एक लेख में अपने आपको एक स्वतंत्र शोधकर्ता बताने वाली डॉ अंकिता कुमार ने लिखा, ‘छात्रों का बोझ कम करने के लिए, जैसा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत अपेक्षा थी, एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों से कुछ हिस्से हटा दिए गए हैं. भावी पीढ़ियों को हमारी जड़ों से जोड़ने के लिए हमें शैक्षिक सामग्री के राष्ट्रीयकरण पर होने वाली बातचीत को एक नया रूप देने की ज़रूरत है.

उन्होंने आगे लिखा, ‘जब भारत के प्रारंभिक मध्यकाल तथा मध्यकालीन दौर की बात आती है, तो उसमें बहुत सारे पूर्वाग्रह मौजूद हैं और कुछ घटनाओं तथा महत्वपूर्ण मुद्दों की अनदेखी की गई है. मसलन, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में दक्षिण से आगे के क्षेत्र के इतिहास को कवर नहीं किया गया है. उदाहरण के लिए वंशों का उल्लेख सिर्फ सरसरी तौर पर किया गया है’.

उन्होंने लिखा, ‘विजयनगर साम्राज्य ने लगभग 400 वर्षों तक राज किया और 1565 के प्रसिद्ध तालीकोटा युद्ध के बाद भी वो 80 वर्षों तक बना रहा. लेकिन उसके साथ न्याय नहीं हुआ है और इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में उसे उचित स्थान नहीं मिला है. विजयनगर साम्राज्य ने 1558 में शक्तिशाली पुर्तगाली साम्राज्य को परास्त किया था और यदि उन्होंने तालीकोटा युद्ध जीत लिया होता, तो भारत की राजनीतिक स्थिति कुछ अलग रही होती’.

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के पूर्व निदेशक डॉ जेएस राजपूत, जिनकी पुस्तकों को पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत लॉन्च कर चुके हैं, उन्होंने भी इसी विषय पर ऑर्गेनाइज़र में एक लेख लिखा.

उन्होंने लिखा, ‘दुर्भाग्य से भारत का इतिहास, जो उनके राजनीतिक और सांप्रदायिक एजेंडा को पूरा करने के लिए अंग्रेज़ों के हाथों पहले ही राजनीतिकरण और आघात झेल चुका है, उसे उन इतिहासकारों ने और बिगाड़ दिया जो वैचारिक मजबूरियों के तहत काम करते थे और इस प्रक्रिया में उन्होंने अपनी मर्ज़ी से गंभीर विकृतियां शामिल कर दीं. इसमें से बहुत कुछ धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर किया गया, जिसे खुद कुछ राजनीतिक मान्यताओं पर पूरा उतरने के लिए परिभाषित किया गया’.

राजपूत ने आगे लिखा, ‘दूसरे नज़रिए’ को पाठ्यपुस्तकों में कोई जगह नहीं दी गई. ‘आज, वैज्ञानिक रूप से साबित हो गया है कि ऐसा कोई आक्रमण नहीं हुआ था लेकिन हमारी पाठ्यपुस्तकें अभी भी उसपर अड़ी हुई हैं! आज़ादी के बाद के पूरे दौर में भारत के युवाओं ने वो सब सीखने और आत्मसात करने का अवसर गंवा दिया कि भारतीय सभ्यता में परिकल्पना की सर्वव्यापकता थी, उसमें हर प्रकार की विविधता के लिए आदर था और उसका किसी भी दूसरे धर्म या पंथ के साथ कोई झगड़ा नहीं था’.

लेखक और दक्षिणपंथी स्तंभकार राजीव तुली ने फर्स्टपोस्ट में रामराज्य की अवधारणा के बारे में लिखा और तर्क दिया कि इसकी प्रकृति वास्तव में लोकतांत्रिक है.

‘सामाजिक स्तर पर, रामराज्य एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था है जो न्यायसंगत, नैतिक और विधि सम्मत है. विभिन्न नागरिकों के बीच कोई बुनियादी टकराव या शत्रुता नहीं है. इसमें इस धारणा को खारिज किया गया है कि विकास का आधार कोई टकराव, प्रतिरोध या द्वंद है, जिनका साम्यवादी या हेगेलियंस समर्थन करते हैं. ना ही इसका एकमात्र मार्गदर्शक सिद्धांत कोई आत्मकेंद्रित लाभ लाभ है जो पूंजीवाद का स्वभाव है. इसलिए आदर्श समाज एक आदर्श राष्ट्र की प्रस्तावना है’.

तुली ने लिखा, ‘आर्थिक स्तर पर, इसमें साम्यवाद की तरह ये नहीं माना जाता कि मनुष्य मूल रूप से एक भौतिकवादी जीव है और सभी रिश्ते प्रचलित आर्थिक रिश्ते की ऊपरी इमारत होते हैं. इसका लक्ष्य सभी का कल्याण होता है, जिससे कोई अछूता नहीं है. रामराज्य में आर्थिक गतिविधियों और राष्ट्रीय संसाधनों की संपदा के वितरण का आदर्श इस सिद्धांत पर है: ‘हर किसी को उसकी योग्यता के अनुसार और हर किसी को उसकी आवश्यकता के अनुसार’.


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‘प्रशांत किशोर- घोड़ों की दौड़ में गधा नहीं है’

राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कांग्रेस के साथ बातचीत विफल होने पर टिप्पणी करते हुए ऑर्गेनाइज़र ने दावा किया कि किशोर केवल जीतने वाले पक्ष के साथ काम करना पसंद करते हैं.

दक्षिणपंथी लेखक डॉ गोविंद राज शिनॉय ने लिखा, ‘क्या पीके वास्तव में अमित शाह के खिलाफ अजेय हैं, जैसा कि वो दावा करते हैं? अगर हम पीके की सफलता की कहानी का विश्लेषण करें, तो समझ सकते हैं कि वो लगभग हमेशा ही सबसे मजबूत पार्टी या गठबंधन के साथ काम करना पसंद करते हैं. ऐसी एक भी मिसाल नहीं है जहां पीके ने किसी कमज़ोर खिलाड़ी की जीतने में मदद की हो. एसपी-कांग्रेस के लिए तमाम तरकीबें लड़ाने के बाद भी, यूपी-2017 में बीजेपी ने ज़बर्दस्त जनादेश हासिल किया. 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान वो सक्रिय प्रचार से बाहर रहे. संक्षेप में, पीके अपनी सीमाएं जानते हैं लेकिन वो उन्हें स्वीकार नहीं करते’.

उन्होंने आगे लिखा, ‘पीके के साथ समस्या है उनका बमुश्किल छिपा हुआ अहंकार. वो इस सच्चाई को जानते हैं कि अपनी तमाम ‘सफलताओं’ के बावजूद, वो यूपी में अमित शाह को हरा नहीं पाए हैं और बीजेपी के खिलाफ उन्होंने अभी तक कोई आम चुनाव नहीं जीता है. अहंकार कहावत के ‘गर्म घी’ की तरह होता है. उसे आप न निगल सकते हैं, न उगल सकते हैं. 2012 में बीजेपी के लिए नि:शुल्क काम करने से लेकर, करोड़ों रुपए लेकर एक कंसल्टेंट के तौर पर किसी भी पार्टी के लिए काम करने तक, जो बीजेपी को हरा सकती हो, एक दशक में उन्होंने एक लंबा सफर तय कर लिया है’.


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नए प्रधानमंत्री संग्रहालय पर

बीजेपी राज्य सभा सांसद विनय सहस्रबुद्धे ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्रियों के नए म्यूज़ियम का स्वागत किया, जो भारत के सभी प्रधानमंत्रियों को समर्पित है और दिल्ली में नेहरू स्मारक म्यूज़ियम और लाइब्रेरी के परिसर में स्थित है.

सहस्रबुद्धे ने लिखा, ‘पहले तो ये कांग्रेस तथा बहुत से तथाकथित प्रगतिशील राजनीतिक समूहों द्वारा निष्ठापूर्वक व्यवहार में लाई जा रही, राजनीतिक अस्पृश्यता के खात्मे को संस्थागत करने का काम करता है. दूसरे, ये एक अनोखी मिसाल भी पेश करता है कि कैसे कोई परियोजना, जिसे विशुद्ध रूप से राजनीतिक समझा जा सकता है, उसे एक बिल्कुल गैर-पक्षपातपूर्ण और निष्पक्ष ढंग से हैंडल किया जा सकता है’.

उन्होंने आगे लिखा, ‘अभी तक केवल पांच पूर्व पीएम- नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव और वाजपेयी- ऐसे हैं जिनकी समाधियां राजधानी में स्थित हैं. इसके अलावा, राष्ट्रीय राजधानी में संग्रहालय हैं जो केवल नेहरू, शास्त्री और इंदिरा को समर्पित हैं. नया संग्रहालय इस चयनात्मक उदारता का अंत करता है’.

उन्होंने आरोप लगाया, ‘हमारे देश में कुछ प्रधानमंत्रियों ने खुद को उस समय भारत रत्न से विभूषित कर लिया था, जब वो खुद कुर्सी पर थे. कुछ दूसरों के अलंकरण को तब तक इंतज़ार करना पड़ा, जब तक कोई सहानुभूति रखने वाली पार्टी सत्ता में नहीं आ गई. इस परियोजना के साथ पीएम नरेंद्र मोदी ने हमारे पिछले प्रधानमंत्रियों की राष्ट्रीय पहचान को लोकतांत्रिक करने का एक नया ताज़ा अध्याय शुरू किया है’.


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केरल में ‘जिहादी हमला’

ऑर्गेनाइज़र ने 2003 में केरल के कोझीकोड ज़िले में मराड बीच पर एक मुस्लिम भीड़ के हाथों आठ हिंदुओं की हत्या के बारे में भी लिखा, जिस दिन घटना की 19वीं बरसी थी.

ऑर्गेनाइज़र के लेख में कहा गया, ‘केरल के पूरे हिंदू-विरोधी मीडिया ने इस घटना के महत्व को कम किया. वो उन स्थानीय लोगों को उजागर करने में लगे थे जो वहां से भाग गए थे. केरल के किसी भी विज़ुअल या प्रिंट मीडिया ने पीड़ितों के घरों का दौरा नहीं किया. एक बड़े विज़ुअल मीडिया के एक वरिष्ठ संपादक ने अचानक ‘निष्पक्ष धर्मनिरपेक्षता’ पर हमला बोल दिया और कहा कि हमले के लिए जो कोई भी ज़िम्मेवार था उसकी निंदा की जानी चाहिए’.

उसने कहा, ‘क्या किसी को पता है कि कौन ज़िम्मेवार था? पैटर्न काफी स्पष्ट था. जब हिंदू मरते हैं तो बेहतर है कि इस बारे में अस्पष्ट रहा जाए कि कौन ज़िम्मेवार है या फिर दोनों समुदायों पर दोष मढ़ दिया जाए कि वो बराबर से हिंसा के लिए ज़िम्मेवार थे. आप सिर्फ मुसलमानों को दोष नहीं दे सकते, क्या दे सकते हैं? नरसंहार था कि नहीं था, असली अहमियत ‘सेक्युलरिज़्म’ की थी.

‘मराड के लगभग 130 हिंदू परिवारों के चले जाने के बाद, पोन्नानी से मराड तक कोझीकोड बीच का ये 65 किलोमीटर लंबा हिस्सा, हिंदुओं से पूरी तरह साफ हो जाएगा, जैसा हिटलर का जर्मनी जूदेव मुक्त हो गया था’.

थिंक-टैंक प्रज्ञा प्रवाह के प्रमुख आरएसएस विचारक जे नंदकुमार ने भी ‘मुस्लिम लीग-एनडीएफ (अब पीएफआई)-सीपीएम धुरी द्वारा नियोजित और क्रियान्वित और पाकिस्तान द्वारा वित्त-पोषित जिहादी हमले’ के बारे में ट्वीट किया. पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) एक इस्लामी संगठन है, जो 2006 में नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट (एनडीएफ) के उत्तराधिकारी के रूप में गठित किया गया था.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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